हम मन नहीं हैं 

Sept 10, 2016


हे भगवन! मेरे गुरूजन! आपश्री के श्री चरणों में कोटिश्य प्रणाम। बारम्बार प्रणाम। असंख्य बार प्रणाम । भगवन ले चलिए बाह्यमुखी से अंतरमुखी की यात्रा पर ! मेरे मालिक, मन व बुद्धि को छोड़ आत्मिक यात्रा पर। हे प्रभु! कृपा कीजिए, दया कीजिए !

परम पूज्यश्री महाराजश्री कहते हैं कि परमेश्वर कृपा हो गई, गुरू कृपा हो गई, शास्त्र की कृपा भी हो गई । पर मन की कृपा, स्वयं की कृपा तो करनी है। अभी के लिए,  स्वयं पर कृपा मतलब, मन पर नियंत्रण।  पूज्यश्री गुरूदेव ने बड़े स्पष्ट शब्दों में संकेत दिया है कि जब आप स्वयं को आत्मा समझेंगे पर स्वयं पर कृपा का मतलब ही कुछ और होगा।

कैसा होता होगा स्वयं को आत्मा समझना व फिर उसी में स्थित रह कर व्यवहार करना। यह केवल वही बता सकता है जो इस में रहता है। हमारे शास्त्र कहते है कि आत्मा को महसूस किया जा सकता है । पर उस अव्यक्त को शब्द प्रदान करना परमेश्वर की दिव्य लीला ही होगी !

पूज्य महाराजश्री कहते हैं हमें तो अभी मन व बुद्धि को ही नियंत्रित कर पवित्र करना है, ताकि इसके पार की झांकि मिल सके। हम अपनी दिनचर्या में मनोमुखी ही रहते हैं। बुद्धि से निर्णय लेने मन से सोचना। किसी के साथ मन नहीं मिलता, तो मन का रंग बदल जाता है । किसी के दोष दुर्गुण देख मन निर्पेक्ष नहीं रहता। या अपने व अपनों पर कष्ट सब डावाँडोल कर देता है!!! यह सब मन की ही क्रियाएँ हैं।

पर महाराजश्री कहते हैं कि हम तो मन नहीं ! न ही हम बुद्धि हैं। हम मानते ही नहीं हम आत्मा हैं। हम मानते ही नहीं कि हम पवित्र , पावन, आनन्दमय, नित्य, प्रबुद्ध, सत्य, निर्लेप, मुक्त आत्मा हैं। हम मानने को तैयार ही नहीं कि मल, इच्छाएँ , दुर्गुण सब मन , देह व बुद्धि से सम्बंधित हैं। हम मानते ही नहीं कि हम तो हर पल प्रेम हैं। हम तो हर पल आनन्द हैं ।न ही हम चंचल हैं न ही अस्थिर न ही आसक्त ! न ही देह ! मानते ही नहीं हम !  कारण कि हम बाह्यमुखी रहते हैं! यह सब बाहर नहीं है ! भीतर गहन में है।

महाराजश्री कहते हैं कि प्रेम करना सबको आता है पर हम नहीं कर सकते ! अक्ष्य प्रेम का स्रोत भीतर है पर हम सूखे। स्वयं भी प्रेम की एक बूँद के लिए तरसते हैं। क्योंकि भीतर जाते ही नहीं ! बाहर ढूँढते हैं सब! जन्मों जन्मों से बाहर ढूँढ रहे हैं… आदत पड़ गई है ! और जाती ही नहीं !

सो उस देवाधिदेव के श्रीचरणों में दण्डवत् होकर याचना करते हैं कि प्रभु कर दीजिए कृपा। मेरे जैसों को तो रोना भी स्वयं नहीं आता ! मेरे तो आँसू भी उधारे हैं…कि अबकी बार तो ले चलिए भीतर.. थक गए हैं बाहर भागते ! अब तो हिम्मत भी नहीं रही बाहर भागने की … कर दीजिए कृपा! पोथियाँ पढ पढ भी थक गए हैं… आपकी कृपा तो हर पल बरसती है हमें भी पार कर दीजिए इस मन व बुद्धि से ! कहिए तो कहाँ जाए ? आपके सिवाय कौन सा द्वार है जो खटखटाएँ ! जो आप न सुनोगे, तो कोई नज़र तक नहीं डालेगा प्रभु !! आगे जैसे आपश्री को ठीक लगे । जो आपको भाए … मेरे रामममममममममममम

सर्व श्री श्री चरणों में 🙏🙏

2 thoughts on “हम मन नहीं हैं 

  1. Only because of HIS Grace, I could seek the opportunity to read such pious well knitted thoughts. Undoubtedly, the TIPS for the diversion from external to inward journey are illustrated nicely but still there are inconsistencies in its execution / adoption – may be due to thick coating of the internal impurities which can be crushed only by Mercy of our Revered Gurujan’s / RAAAUUUM. Another, option is to be frequently in touch with such prayerful write ups.

    Oh ! my Raauuum MA, please come to our rescue to take out from the clutches of Maya – ‘Daya karo mere RAM raya, chhal na sakey ye chhalni maya’ ………………

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