Monthly Archives: October 2016

प्रभु ही प्रेम की पहल करते हैं … 

Oct 10, 2016


परम पूज्य श्री महाराजश्री ने कहा ~ कि प्रभु से बड़ कर कोई प्रेमी नहीं …. 

गुरूजन शायद और सिखाना चाहते हैं …. 

प्रभु ही सदा सदा प्रेम की पहल करते हैं। हमें तो प्रेम का कुछ पता ही नहीं होता । पहले संसारी लोगों में से अपने प्रेम की छवि चखाते हैं, चाहे माँ के रूप में , पति, पत्नि या बच्चों के रूप में । यह छाया दिखा कर वे गुरू रूप में उस असली दिव्य प्रेम की बूँद का रसपान करवाते हैं और वहाँ से उसके दिव्य प्रेम की ओर यात्रा आरम्भ होती है । 

पूज्य महाराजश्री परमेश्वर को सुहृद कहते हैं। जो बिन कारण भला चाहता है। प्रभु बिन कारण जगत पर कृपा करते हैं। बिन कारण क्षमा करते हैं, यदि माँगे, बिन कारण हमारे लिए व हमारे संग बहुत रोते हैं जब हम अपने ही कर्मों की वेदनाओं से ग्रसित होते हैं। क्यों ? क्योंकि वे असली प्रेमी हैं। वहाँ कोई माँग नहीं है, कोई अपेक्षा नहीं है । पर जब वे किसी के प्रेमी बनना स्वीकार करते हैं, तो महाराजश्री कहते हैं कि वे तब अपेक्षा रखते हैं कि उनका प्रेमी केवल उनका हो जाए। 

माँ सीता अशोक वाटिका में हर पल प्रभु राम के सिमरन में ही रहती । उनकी पुकार केवल यही थी कि प्रभु आएँ व उन्हें छुड़ाएँ । जब श्री श्री हनुमान जी संदेश लाए तो वे बोले कि प्रभु आपकी याद में हर पल रहते हैं। वे कम खाते हैं। बस आपका ही नाम लेते रहते हैं। यह संदेश दिया !! प्रभु ने अपने प्रेम का इज़हार किया ! अपने प्रेम के बारे में कहा कि उनका चित हर पल माँ सीता के ही संग होते हैं । 

जिस तरह एक प्रेमिका ने डट कर राक्षसों से कहा जिस तरह सूर्य की किरणें सूर्य से पृथक नहीं हो सकतीं , उसी प्रकार मैं भी अपने प्रभु राम से पृथक नहीं हो सकती ! सो आया प्रेम का संदेश उनके प्रेमी से , उनके प्रभु से, कि मैं हर पल तुम्हारा ही स्मरण करता हूँ !! 

गुरूदेव कहते हैं कि पर हमारे मन में यह अवश्य आता है कि प्रभु वे तो जगतजननी है, अन्य तो संत हैं, या उन्होंने तो कितनी तपस्या की हुई है! बात तो तब बने कि हम जैसे मामूली लोगों को आप अपने प्रेम में रंग दो ! हम तो अपेक्षा ही नहीं कर सकते कि आप हमारे प्रेमी बनें, यह तो आपजी की अहेतुकी उदारता होगी, पर आप में रम जाएँ, आप में बह जाएँ, बस आप ही आपका रस पान हर क्षण करते रहें, यह प्रार्थना तो कर ही सकते हैं! कृपया हमपर कृपा कर दीजिएगा । 

प्रभु सबके अंग संग होते है पर शास्त्र व गुरूजन प्रमाण देते हैं कि प्रभु प्रेमी बनते हैं । 

मेरे राममम मेरे स्वामी मेरे प्रभु !!!! 

आज दशहरे के पावन दिवस पर ओ प्रभु में लीन मेरे गुरूजन आपजी से विनती है कि हम राम संग जिएँ । यदि यह न हुआ प्रभु तो जी न पाएंगें । प्यारे राम के प्रेम में जिएँ और अंतत: उनके श्री श्री चरणों में विलीन हो जाएँ । 

श्री श्री चरणों में  

प्रभु से बड़ा प्रेमी कोई नहीं 

Oct 10, 2016 


परम पूज्यश्री महाराजश्री कहते हैं कि प्रभु से बड़ कर कोई प्रेमी नहीं । वह प्रेम में क्या क्या करता है….

पूज्य महाराजश्री परमात्मा की कृपास्वरूप की चर्चा कर रहे थे  कि अचानक यह डेढ़ पंक्ति कान में पड़ी व घर कर गई !! 

हम सब को गुरूजनों की अपार कृपा का रसपान मिला है। संसार सँवरा , साधना में उत्थान , हर एक ने उनके सशरीर होते व तत्व रूप में होते यह अहसास किया है । 

कैसा होता होगा प्रभु का प्रेम ! यदि हम संसारी तुच्छ प्रेम से तुलना करें , तो हमें होता है कि जो प्रेमी है वह हमारा ही हो ! गुरूजन प्रभु के लिए ऐसा कहते हैं कि प्रभु से हमसे चाहते हैं कि हम केवल उनके हों? पर क्या प्रभु केवल हमारे हो जाते हैं? 

महाराजश्री व संत गण कहते हैं कि प्रभु निर्पेक्ष हैं, हर पर समान रूप से कृपा करते हैं, एक जैसी कृपा उड़ेलते हैं, एक जैसा प्यार करते हैं, एक जैसी क्षमा करते हैं… तो जब सब एक जैसा .. तो व्यक्तिगत कैसे? 

सो जितनी मर्जी वे कृपा करते हैं , हम यह मानते हैं, स्वीकार करते हैं, पर वे हमसे प्रेम करते हैं, एक प्रेमी के रूप मे … यह विश्वास करने में इतनी कठिनाई क्यों? शायद इसलिए कि हम सोच ही नहीं सकते कि प्रभु हमारे प्रेमी हो सकते हैं !! उन बेचारों को कितने प्रमाण हमें देने पड़ते होंगे ,यह बताने के लिए कि वे हमारे हैं और केवल हमारे ! पर क्या करें , हमारी बुद्धि व समझ इतनी उच्च नहीं न ही यह विश्वास कि हमारे परमेश्वर प्रेमी हो सकते हैं ! 

पर कहते हैं दिव्य प्रेम आपको संकुचित नहीं करता। राधा जी व ललिता या अन्य गोपियों में कभी ईर्ष्या नहीं हुई प्रभु के दिव्य प्रेम को लेकर !! शास्त्र तो नहीं पता पर अनुमान है कि प्रभु भी तो उनके संग व्यक्तिगत रूप से रहे होंगे तभी तो रास लीला का महत्व है। जहाँ हर एक गोपी को उसके अपने कान्हा मिले और वे नाचे!! हर को अपने प्रेम से ऐसा भर दिया होगा कि किसी और सोच व नज़र के लिए स्थान ही नहीं रहा होगा । 

पूज्य महाराजश्री ने एक बार सुनाया कि नारद जी ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा – प्रभु यह आप किसका ध्यान लगा रहे हैं। सारा संसार आपका ध्यान लगाता है आप किसका ध्यान लगा रहे हैं ? 

भक्ति मार्ग कहता है कि  ऐसा होता है कि कृपा सब पर बरसती ही, दिव्य प्रेम सब पर एक समान बरसता है इन सब के बावजूद, परमेश्वर दिव्य प्रेमी भी बनते हैं । यहाँ जब भक्त प्रभु के प्रेम में अपना सम्पूर्ण अस्तित्व खो देता है तो केवल प्रभु ही रह जाते हैं । 

ज्ञान मार्ग में कुछ अलग नहीं है । सब एक । कोई तू मैं का भेद नहीं । केवल एक दिव्य चेतना । 

सो चाहे ज्ञान मार्ग से समझें चाहे भक्ति मार्ग से बात तो पूर्ण रूप से घुल जाने की है !! 

साष्टांग नमन गुरुदेव ! हे राम ! आपके श्री चरणों में घुल जाएँ , ऐसे कि वापिस अपने अस्तित्व में न आ सकें । भगवन ! गुरूजन! यह कृपा आपके सिवाय कोई नहीं कर सकता !!! 

राममममममममममममममममममममममम

कर्तव्य पालन भावना से उच्च है 

Oct 9, 2016


परम पूज्य श्री महाराजश्री ने कहा- भावनाओं से ऊपर कर्तव्य है । एक साधक मनमानी नहीं करता वह सदा गुरू आज्ञा में रहता है। 

जब प्रभु राम अपने गुरूदेव के संग मिथिला गए, और वहाँ एक तरफ़ राजा जनक अपनी पुत्री माँ सीता के विवाह को लेकर व्याकुल हो रहे थे और दूसरी तरफ़ माँ सीता के अश्रु अपने प्रभु के लिए बहते जा रहे थे। प्रभु राम, चुप रहे। कुछ नहीं किया। जबकि राजा जनक की बजाए उनकी ध्यान अपनी भक्तिनि के अश्रुओं की ओर था! पर कुछ न कहा। क्योंकि गुरू आज्ञा नहीं थी। पर हृदय उनका माँ सीता के आँसु देखकर व्याकुल हो रहा था। बार बार मन ही मन क्षमा याचना कर रहे थे कि मेरे कारण तुम्हारे आँसुओं निकल रहे हैं। 

पूज्य गुरूदेव कहते हैं कि यदि आप उसके लिए दो बूँद भी निकाल दो तो वे न जाने कितने आशीर्वाद से भर देते हैं। 

इसी तरह जब वनवास का उन्हें बोला गया, राजा दशरथ कितना बिलख रहे थे कि राम! न जाओ! इतना प्रेम अपने पिता से और इतने लाड़ले अपने पिता के, पर कुछ न कहा। भावनाओं में न बहे, कर्तव्य निभाया ! 

बात तो जीवन में उतारने की है ! कितने सत्संगी हुए हैं जिन्होंने अपने गुरूजनों की आज्ञा को सर्वोपरि रखा !! सदा वही किया जो गुरू आज्ञा में था ! 

 भजन गाने वाले के बारे में गुरूजन कहते हैं कि भजन पाठ तो प्रभु को सदा रिझाने के लिए होना चाहिए न कि संगत को रिझाने के लिए। सत्संगों का कार्यक्रम साधक करते हैं आयोजित, सेवा करते हैं, केवल गुरूजनों की प्रसन्नता हेतु न कि लोगों की प्रशंसा हेतु । 

या घर में बच्चा आया है, हमने सत्संग जाना है, पर भावना व मोह में आकर हम सत्संग नहीं जाते! या जाप पाठ सब स्थगित कर देते हैं। गुरूजनों के अनुसार राम नाम लेना हमारा परम कर्तव्य है। आपके परिवार में उत्सव है पर आपके सत्संगी को आपकी आवश्यकता है ! क्या करेंगे आप? जो गुरूआज्ञा में चलने की कोशिश करते  हैं, गुरूजन उन्हें अपने अनुसार चलाते हैं, समाज के हिसाब से नहीं! 

हम सब के आगे यह प्रलोभन आते हैं।  नज़र तो केवल गुरूजनों पर ही होनी चाहिए । 

गुरूजन के हम जितने मर्जी प्यारे रहे  हों, या दिन भर जाप करते हों ,पर यदि गलत काम करें व करते रहें, स्वार्थ व मनमानी करें तो वे कहाँ खुश होते हैं, बल्कि उनकी मेहनत बेकार हो जाती है। अपनी साधना हमें यूँही देते हैं, पर ऐसे काम करके, हम न ही अपने कर्म निकृष्ट करते हैं बल्कि उनकी कृपा का भी दुर्पयोग । 

गुरूदेव ! मेरे राम! आपके नित सिमरन से इन सब चीज़ों पर विजय मिलती है। हम सब पर कृपा करें कि हम साधना की इन चीज़ों पर सजग रहें। आप कैसे प्रसन्न होते हैं, हमें पता चले और आप स्वयं ही अपने मार्ग पर हमें चलाएँ। 

श्री श्री चरणों में 

अपना असली घर- श्रीरामशरणम् 

Oct 8, 2016 


परम पूज्य श्री डॉ विश्वामित्रजी महाराजश्री ने कहा- कि पूज्य स्वामीजी ने कितना सुन्दर नाम दिया है श्रीरामशरणम । यह कोई building का नाम नहीं है। यह राम का घर है। श्रीरामशरणम गच्छामि – मैं श्री राम के घर जाता हूँ । श्री राम जो मेरे घर हैं मैं वहाँ जाता हूँ ! 

कितनी उच्च सोच ! कितनी असीम व अनन्त सोच । मात्र building नहीं !! जब कि building तो केवल देह तक सीमित है, गए व आ गए! कोई रह नहीं सकता ! पर असली का श्रीरामशरणम जहाँ से वापिस आना ही नहीं ! Permanent Home !! 

यह मात्र बताया ही नहीं कि हमारा असली घर कौन सा है, नाम भी बताया और वहाँ जाने के लिए संपूर्ण रूप से मार्ग भी प्रशस्त किया !यह भी कहा कि हम असली में कौन हैं !  इंतज़ार करते होंगे वे अपने बच्चों का । माता पिता तो इंतज़ार ही करते रहते जब तक बच्चा घर न लौट आए। संसारी माता पिता सोते नहीं है जब तक बच्चा न घर पहुँच जाए , फिर वे चैन की साँस लेते हैं, यह तो अनश्वर माँ हैं , बाबा हैं !! यह कितने युगों से इंतज़ार कर रहे होंगे ? 

यदि श्री रामशरणम building नहीं , तो कहाँ है यह? जहाँ राम स्थापित हैं ! कहाँ हैं राम विराजमान? दीक्षा के समय क्या हुआ था ? किन्हें हमारे हृदय में स्थापित किया था ? राम को ! पारब्रह्म परमेश्वर श्री राम को ! सो उनका निवास स्थान तो हमारे भीतर हुआ ! 

कैसे जाएँ फिर अपने हृदय में ? क्या मरने के बाद ही जाया जाता हैं यहाँ ? गुरूजन ने राम नाम का जहाज दिया है। वे कहते हैं यह राम नाम जब प्रेम से लिया जाए जब खरबों में अविरल लिया जाए तो भीतर की जन्मों की पर्तों का अनावरण होता है और हमारे घर का रास्ता हमें दिखता जाता है ! देह में रहते , मानव जन्म में ही जा सकते हैं अपने घर ! 

राम नाम के साथ सम्पूर्ण समर्पण कुंजी है अपने घर के ताले की !! सम्पूर्ण सम्पर्ण से तात्पर्य है कि हर पल हर परिस्थिति में हम यह न विस्मरण करें कि हम तो रामांश हैं । देह नहीं, मन नहीं, बुद्धि नहीं .. रामांश ! 

ओ प्यारे गुरूजन आज के पावन अतिमांगलीक शुभावसर पर हम अपने घर , श्रीरामशरणम् , राम के पास जाने की , अपनी माँ की परम गोद में जाने की , देह में रहते हुए जाने की तैयारी करें। यह यात्रा तो केवल गुरूजन की अकारण कृपा से ही सम्भव है। हे माँ रूपी गुरूजन ! ओ बाबा रूपी गुरूजन हम आए शरण आपकी कृपा कीजिए कृपा कीजिए कृपा कीजिए । 

सर्व श्री श्री चरणों में 

आसक्ति से त्याग 

Oct 8, 2016


आसक्ति का त्याग 

आसक्ति का त्याग , त्याग है। आसक्ति मोह में परिवर्तित हो जाती है तो व्यक्ति अंधा हो जाता है ~ परम पूज्य डॉ विश्वामित्र जी महाराजश्री के मुखारविंद से 
संसार से आसक्ति, संसार की चीज़ों से आसक्ति , तो बार बार जन्म लेकर आती है। इसकी कृपा तो गुरूजन ही कर सकते हैं । 
गुरूजन से आसक्ति …. सशरीर जब होते हैं तो उनके रूप से, देह से आसक्ति हो जाती है। गुरूदेव कहते हैं कि वह स्वाभाविक है। परमेश्वर ने गुण ही उन्हें ऐसा दिया हुआ होता है कि संत संसार से दिव्यता की ओर साधक को मोड़ सके। 
पर जब वह आसक्ति उनकी देह से मोह में परिवर्तित हो जाए, तब गड़बड़ हो जाती है, क्योंकि जैसा गुरूदेव ने कहा व्यक्ति अंधा हो जाता है ! उसकी बुद्धि पर अज्ञानता का पर्दा छा जाता है। क्रोध, ईर्ष्या सदा हावि रहते हैं । “मेरे हैं वे ” केवल “मेरे” !!! शायद इसी आसक्ति में डूबने से गुरूजनों ने स्वयं को कभी परमेश्वर या अपने को वैसा स्थान नहीं दिया। न ही चरण तक छुआ ने दिए । वे देह रूप में सदा मामूली ही रहे। और पाप तक कहा यदि मनुष्य को ( देह को ) भगवान माना। 

गुरूजन / संत तो हाड़ मास नहीं होते ! न ही कभी थे। पर क्योंकि हम उनके भीतर की ज्योति को देख नहीं सकते सो बाहर तक ही रहते ! और अभी भी कई क्यों चाहते हैं वे लौट आएँ क्योंकि देह तक ही हम सीमित हैं। देह का आकर्षण इतना गहरा है कि समझ होते हुए भी पार नहीं जा पाए । 
उनके तत्व रूप से आसक्ति, परमेश्वर के ज्योति रूप से आसक्ति ही सत्य है व पवित्र भी । इस रूप के मोह हो जाने से या इतना गहन अनुराग हो जाने से जब साधक यहाँ अंधा होता है तो दिव्यता में अंधा होता है न कि क्रोध, मोह, ईर्ष्या में। यह अंधापन अवश्य परमेश्वर से साक्षात्कार करवा देता है । 
पर यहाँ एक बात है.. जब साधक समर्पित हो .. तो चाहे देह से ही आसक्त क्यों न हो, यह दाइत्व परमेश्वर व गुरूजनों का होता है कि वे साधक को उस मोह से बाहर करें। पर नकारात्मकताएं तो पीड़ा देती हैं । और जहाँ देह का ” मेरापन ” हो वहाँ शान्ति तो बिल्कुल नहीं । 

यह सब त्याग तो गुरूकृपा से ही सम्भव हैं। जब वे इन पर्तों का अनावरण करें तभी शान्ति है।
आज के पावन दिवस पर माँ से यही निवेदन है कि कृपया हमें अपनी देह की आसक्ति से मुक्त करें । जब स्वयं को देह नहीं समझेंगे , तभी दूसरों को भी देह न समझने में सक्ष्म हो सकेंगे । दया करें माँ । कृपा करें । कृपया प्रार्थना स्वीकार करें। जो ज्ञान प्रसाद बक्शा है कृपया वह यथार्थ में उतरे। केवल खोखले शब्द न रह जाएँ। देह की आसक्ति में तो बहुत पीडा है। “मेरेपन” के मोह में असहनीय पीड़ा है। ओ राम कृपा करें, कृपा करें, कृपा करें । 

श्री श्री चरणों में 

FAQs for the week of Oct 7. 

Oct 7, 2016


यह सामाजिक दुनिया, Facebook की दुनिया ऐसे ही है, कृपया किसी पर विश्वास न कीजिए। सब ऐसे ही है ! हमें यहाँ नहीं पता कि कौन प्रार्थना कर रहा है हमारे लिए और कौन खेल खेल रहा है ! 

परम पूज्य श्री महाराजश्री कहते हैं कि विश्वास उस पर करना है हमें । हमारा लेना देना राम से है , संसार से नहीं ! सो उसपर विश्वास करके जीवन यापन करना है । केवल वही विश्वास के योग्य है ।
क्या मतलब है इसका ? कैसे हम फिर दुनिया में आध्यात्म को लाएँ जहाँ लोग ( चाहे साधक हों या संसारी) जरूरी नहीं विश्वास के पात्र हों ।

राम पर जब विश्वास हो तो संसार छुरा यदि मारे पीछे से, राम का दाइत्व होता है सम्भालने का! राम अपने प्यारे का जब योगक्षेम उठाते हैं , तो उसको हर प्रकार के तूफ़ानों में सम्भाल कर रखते हैं ।

गुरूजन तो एक शब्द भी गलत ढंग से यदि उनके शरणागत साधक को कहा गया हो यदि , तो उसकी भरपाई करते हैं !!! चाहे दूसरे भी उन्हीं के साधक क्यों न हों । दूसरों द्वारा गलत चीज पर , पीडा पहुँचाए जाने पर , गुरूजन सदा आगे रहते हैं अपने शरणागत के।
इसलिए वे कहते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करिए । वह देखेगा संसार को, वह सम्भाले गा संसार को । बहुतों की बुद्धि मोड़ना उसे आता है !

This social life on FB is all waste. Don’t trust anybody here. Everybody are like that only! We don’t know who prays for us here and who “plays” with us. 

Param Pujya Shri Maharajshri says that we need to trust only Him. We are concerned with only Ram, and not with the world! We need to have 100% faith on him and carry on with our life. Only he is capable of being trusted.
What does that mean? How then we should bring spiritualism in the world where devotees or non – devotees cannot necessarily be trusted?
If one has faith in Ram then even if the world back stabs,  Ram takes up the responsibility to take care! Ram takes care of all baggage of the one who has completely surrendered at His Lotus feet, He protects him in all kinds of storms!!
Gurujan are such that even if a single word has been said to the sadhak in an inappropriate manner, They compensate it! Even if others are sadhaks too!! When others’ play games, cause hurt, Gurujans always are upfront of their surrendered devotee.
That’s why They insist that trust Him! He will see to the world and take care of the world! They know how to turn around the negative intentions !!
All at Their Lotus feet!

Jai Jai Ram

असली “मैं” व असली घर

Oct 6, 2016


परम गुरू राम, मेरे गुरूजनों के श्रीचरणों में कोटिश्य प्रणाम । बारम्बार प्रणाम । 

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महाराजश्री कह रहे हैं कि चलिए तैयारी करें, अपने वास्तविक घर जाने की । जहाँ जाकर आराम व शान्ति मिलनी सुनिश्चित हैं क्योंकि वह अपना घर है । 

किसके घर की बात हो रही है? हम सब सारा जीवन अपना लगा देते हैं “अपना घर” बनाने के लिए? रुल खुल कर जीते हैं, पूँजी बचा बचा कर जीते हैं कि घर बन जाए !! पर गुरूदेव कौन से घर की बात कर रहे हैं? क्या वे मरणाुपरान्त की बात कर रहे हैं ? कि जहाँ सबने जाना है? 

नहीं !! वे तो जीवन रहते की बात कर रहे हैं ! हम अपने आप को गलत ही समझते आए हैं!! हम हाड़ माँस का पुतला नहीं ! आत्मा हैं !! हम विकारों से भरा मन / बुद्धि नहीं, पावन, शुद्ध आत्मा हैं ! सबसे बड़ी बाधा साधना में यही है कि हम स्वयं को देह समझते हैं। 

क्यों हम अपने को पसन्द नहीं करते ? क्योंकि हम देह व मन / बुद्धि तक हीसीमित रहते हैं !! जो लोग कहते हैं कि ” अपने से प्यार करो, फिर संसार से कर पाओगे” उसका तात्पर्य यही है कि जो हम असली मे हैं, उससे प्यार हो जाए। और शायद उससे प्यार किए बिना रह नहीं पाएँगे हम सब !! वह तो विकारों से रहित , अति प्रेममय है, शक्ति से परिपूर्ण , करुणामय है! बहुत सुंदर है ! वह हमारी आत्मा है !! 

पर हम भूल जाते हैं। हम पर माया की गहरी परत बार बार पडती रहती है। क्योंकि हम अपने को भूल जाते हैं, इसलिए खुश नहीं रहते, इसलिए संतुष्ट नहीं रहते। सदा सदा बेचैन व दुखी व उदास रहते हैं! 

सो, परम पूज्य गुरूदेव , इसी आत्मा के असली घर की बात कर रहे हैं। जब अपने को पहचानेंगे तो अपने घर का भी पता लग जाएगा । मानव जीवन की असली साधना ही स्वयं के पहचानना है। परम पूज्यश्री प्रेम जी महाराजश्री कहते हैं कि ” अपने आप को जाने बिना ही चले गए फिर क्या ? सबसे दुखी वह प्राणी है जो भटका हुआ है , जो अपने को नहीं पहचान पाया। ”

बार बार इसका स्मरण कि मैं देह नहीं आत्मा हूँ । बार बार इसका चिन्तन अति अनिवार्य है । अपने को देह व मानने से कितनी ही समस्याओं का स्वयमेव समाधान हो जाता है ! हे राम दया कीजिए! आपकी कृपा बरसी गुरूजन कि इसपर चिन्तन हो आया । बारम्बार प्रणाम। नत शिर वंदना । 

श्री श्री चरणों में 🙏

Internal devotion 

Oct 5, 2016


My pranaams to My Lord Ram and my Gurujans. Gratitude O Divinity, for allowing me to hear and read about You. It’s too enthralling for my soul .. My gratitude for allowing me to bathe my mind, intellect in it …but You are way beyond that.. But thanks…for everything.

Param Pujya Shri Maharajshri says that O the Supreme God! May I do Your  aarti.. Aarti is a form of prayer that is sung at the end of all sadhna or puja. In here the glories of the Lord, deity are sung, with a lamp, incense, etc. So Pujya Shri Swamiji Maharajshri says that may my reverence and devotion be the lamp and incense, while I perform Your Aarti.

Param Pujya Swamiji Maharajshri ‘s path of devotion is all internal. Nothing is required on the outside. Pujya Maharajshri says that just you are needed and Ram! That’s it. Complete sadhna is possible with just these two ! Hence , the emotions of reverence and devotion are required to sing His glories!

We as sadhaks are so much fixed on the outside that we confuse the inside with the outside! Pujya Maharajshri says that “all we need to do is to change our gaze from outside to inside” He says that Swamiji’s sadhna is so beautiful that you imagine Yourself being with Him in any form on the inside! Play with Him, feed Him, love Him, as You want. Be with Him on the inside as You want! He’ll be there!

There was a sadhak, who used to do the same with Lord Krishna. He would feed Him and then put a garland of orange flowers on His Lord, all mentally. One day while while doing a similar practice, He saw that instead of orange flowers Lord had adorned white flowers! He was caught unawares! He smiled and said to His Lord, So You wanted white flowers today!

Another sadhak used to hug his Gurudev, mentally. Everyday he would hug Gurudev and enjoy the bliss . One day to his amazement, his Gurudev hugged him back!! His Gurudev put his arms too around him to complete the Divine embrace!!!

So even though a sadhak starts with imagination, Pujya Maharajshri says that those imaginations become real. All is felt and heard by Him. All problems in this simple and uncomplicated devotion arises, when we confuse our inner mind with outer world !! Outer world is illusion. It keeps changing and in reality , how could a devotee be in loving embrace with his Guru or feed his Lord.. That confusion with open eyes and closed eyes, causes pain and torment.As outside world has only pain to offer, it being transitory!! But inner world can be devotes’ ! The way he wants to offer His love to His Lord or Guru!

Thank you my Lord ! For taking on this solace filled and sublime journey within .

All Yours. Jai Jai Ram

गुरू आज्ञा 

Oct 3, 2016



जब राम के सिवा कुछ बोलना ही नहीं तो यह जिह्वा बोले क्यों? जब राम के सिवाय कुछ सोचना ही नहीं तो यह मन सोचें क्यों? जब राम के सिवाय कहीं जाना ही नहीं तो यह पैर चलें क्यों? 

~ परम पूज्य डॉ विश्वामित्र जी महाराजश्री के मुखारविंद से 

हम जैसे  गुरू आज्ञा नहीं मानते ! हम इस जिह्वा से राम नाम लेते हैं, दूसरों के साथ प्यार के बोल बोलते हैं, सामाजिक गतिविधियां करते हैं और साथ ही क्रोधित शब्द बोलते हैं, दूसरों की निंदा करते हैं, दूसरों को नीचा दिखाते हैं । 

हम जैसे मन से भी गुरू आज्ञा नहीं मानते । मन में राम के सिवाय कुछ नहीं होना चाहिए पर हम मन में संकल्प विकल्प बनाते हैं, खुश व दुखी होते हैं, संसारी गतिविधियों व वार्तालापों के बारे में सोचते रहते हैं, क्यों कहा ? क्यों किया? क्यों हुआ ? 

राम हमारे भीतर हैं, उनका निवास स्थान हमारे भीतर है, हमारा गंतव्य हमारे भीतर है, पर हम सदा बाहर ही जाते रहते हैं। यह मंदिर, यह भवन, वह पंडित , इत्यादि! विश्राम तो अपने घर ही मिलता है, गुरूजन कहते हैं, अपना घर तो भीतर है, जहां चलने की, पैर की आवश्यकता ही नहीं पड़ती , पर हम फिर गुरू आज्ञा नहीं मानते! हम इधर उधर भटकते रहते हैं ! हम जैसे बाहर ही रहते हैं । 

आज की सीख 😇
गुरू आज्ञा में ही कल्याण है। गुरू आज्ञा में ही आनन्द व विश्राम है। राम के अलावा हर चीज माया है, हर सोच माया  है, हर जगह माया है ! 
मन में राम के सिवाय कोई विचार आए,वह माया है ! माया से बचाव केवल राम नाम से सम्भव है। राम के चिन्तन से सम्भव है। जहां ढील दी, मायावी संसारी विचार भीतर घर कर जाते हैं और हमारा कितना पतन हो जाता है। सो बार बार मन संसार में जाए, राम पर ही लाना है। गुरू आज्ञा न मानने से कृपा भी तो रुक जाती है, बंद नाली में जैसे कूड़ा फंस गया हो। पर गुरू आज्ञा में रहने से हम कृपा का channel खुला रंखते हैं। 

क्षमा कीजिए गुरूदेव, न जिह्वा से, न मन से न अंतिर्मुखी चिन्तन से आपका कहना माना ।सद्बुद्धी दीजिए प्रभु, गुरू आज्ञा का स्वप्न में भी न उल्लंघन हो। 
श्री श्री चरणों में 🙏

गुरूजन के साथ संबंध 

Oct2, 2016

गुरूजनों के साथ जैसे संबंध स्थापित करो जिस भाव से स्थापित करें वे वैसा ही निभाते हैं । 

आज एक साधिका बता रहे थे कुछ २०-२१ वर्ष पूर्व की बात। वे युवा अवस्था में थी। उनके नगर के पास के नगर में पूज्यश्री महाराजश्री आए हुए थे। तो कॉलेज के बाद वहाँ जाना था, अगले दिन सत्संग था। उन्होंने अपनी मित्र के साथ जाने का कार्यक्रम बनाया। परिवार जन अलग से जा रहे थे । उनके घर में खास तरह का फल लगा था। तो उन्होंने सोचा कि शायद वे किसी तरह पूज्य महाराजश्री को देने में सफल हो सकें। वे गुरूदेव से बहुत ज्यादा डरती थी। पर मन ही मन केवल वे ही थे तब भी उनके। 
सो दोनों सखियाँ पहुँच गई। अब वे वहाँ गई जहाँ पूज्य गुरूदेव निवास कर रहे थे। एक हाथ में फल का लिफ़ाफ़ा और दूसरे हाथ में सामान। गेट सब बंद थे। दोनों कितनी देर बाहर इंतज़ार करती रही कि क्या पता कोई दिख जाए । 
अब कुछ ही देर बाद अचानक पूज्य महाराजश्री सामने आ खडे हुए। उनके साथ दो अन्य साधक भी थे। पूज्य महाराजश्री को वे दो युवतियाँ देखकर वहाँ बिल्कुल प्रसन्नता नहीं हुई ! कुछ शायद ग़ुस्से में कहा भी । बोलना तो कितना दूर उन साधक का फल वाला हाथ पीछे ही रह गया! 
वापिस जब वे निवास स्थान पर गई, मन बहुत खराब , कि डाँट पड़ गई । गुरूदेव ग़ुस्सा हो गए !! 
रात भर बाहर बारिश होती रही बाहर और साथ ही वे रोती रही। सारी रात सब सो रहे थे और वे रोती रही। 
अगले दिन दोपहर को सत्संग, मन ही मन ठाना था कि अपना चेहरा गुरूदेव को नहीं दिखाएँगी । कि गुरूदेव उन्हें न देख सकें तो एक लम्बी सी साधिका के पीछे दुबक कर बैठ गई । 
अब गुरूदेव तो जानी जान! सत्संग में नीचे मुँह कर के बुसक बुसक के पाठ कर रही, एक दम ऊपर देखा तो आगे कोई भी नहीं और गुरूदेव निहार रहे ! आगे वाली साधिका खिसक गई थी ! हड़बडाहट में सिर नीचे किया। फिर कुछ देर बाद सिर ऊपर उठा तो गुरूदेव फिर देख रहे!!! 
सत्संग की समाप्ति हुई और दीक्षा के उपरान्त सभी साधक पूज्य गुरूदेव के दर्शनों के लिए खड़े थे। वह साधिका अब भी किसी अन्य के पीछे खडी। गुरूदेव आए, और न जाने क्या हुआ उनके आगे से सारी संगत हट गई और वह पूज्य महाराजश्री के बिल्कुल आगे हाथ जोड़े और उनकी कृपामयी दृष्टि ने सम्पूर्ण रस पान गुरूदेव ने करवाया !!! 
वे साधिका बोलीं – गलती करने के बाद भी कौन मनाता है ऐसे? जिसे जीवन में किसी ने न मनाया हो वे देवाधिदेव ऐसी लीला खेलते हैं !! 

पर आगे से कभी उन्होंने इस तरह का कार्य कभी नहीं किया। 

कालान्तर में , साधिका ने बताया कि पूज्य महाराजश्री ने उन फलों का भोग लगाया 😇🙏🙏

आज गुरूदेव स्मरण कर रहे हैं …….