स्वयं का सुधार – आनन्द की कुंजी 

Dec 11, 2016


परम पूज्यश्री महाराजश्री कह रहे हैं कि यदि हम अपने घर को स्वर्ग बनाना चाहते हैं तो हमें स्वयं को ही सुधारने की आवश्यकता है । 

कहीं भी यदि तनाव है, मन अशान्त है तो समझ लेना आवश्यक है कि हमारी सोच में कहीं न कहीं गड़बड़ है । नहीं तो राम नाम , महा मंत्र जो हम जपते हैं वे तो आनन्द का स्त्रोत हैं । यदि वे आनन्दमय हैं तो हम क्यों नहीं । हम तो वही आनन्दमय नाम का उच्चारण कर रहे हैं । हमारी सोच , हमारी विचारधारा ही दोषी है ! 

उदाहरणतया , घर में सासुमां कहती है यह बना आज । हमारे मन को वह भाया नहीं । पर बच्चा वही कह दे बनाने को तो हम कितने भी व्यस्त या अस्वस्थ क्यों न हों ( अधिक्तर महिलाएँ कर दें ) हम बना देंगे । तो हमने क्या किया ? हमने रूप व संबंध के कारण भेद भाव कर दिया । सो अब यदि तनाव उठा तो किसके कारण उठा ? 

हमारी गहन इच्छाएँ , हमारी गुप्त लालसाएँ , जिनका कई बार हमें पता भी नहीं होता वे भी हमारे तनाव का कारण होती हैं । घर में या बाहर यदि हममें गुप्त इच्छा है सदा आगे रहने की अपना नाम हो, प्रशंसा मिले , तो भी हम दुखी रहते हैं । हमारी चले । जो मैं कहूँ चाहे घर में या बाहर , वही मानी जाए, तो तनाव हमारे ही मन में आता है । और यदि हम यहाँ स्वयं को सुधार लें , तो मन हल्का हो जाता है । और हम आनन्दित। 

एक साधक दम्पति में हर दम्पति कि तरह विचार धारा बहुत भिन्न । दोनों साधक । सो जब विचारों में भिन्नता तो खटपट तो हो ही जाती । एक बार साधिका को स्वप्न आया कि उसके पति महाराज बन गए । जब वे उठी तो इस स्वप्न का तात्पर्य ढूँढना चाहा तो चिन्तन कर गुरूदेव की कृपा से समझ आया कि महाराज कह रहे हों कि मैं इसमें हूँ । इससे व्यवहार जैसे मुझसे करते हो वैसे करो ! 

यह बात तो सही है । गुरूजन तो राम में समाए हुए हैं । जिस हृदय में राम वहाँ गुरूजन । सो अपनी सोच हम बदल सकते हैं । दूसरे को आदर सम्मान व प्यार हम जैसे गुरूजनों को देते हैं वैसे ही उनके साथ व्यवहार कर सकते  हैं । पर यहाँ एक बात स्पष्ट रखनी आवश्यक है कि कई बार भिन्नता विचारों में इतनी होती है, इसका मतलब यह नहीं कि हमें वैसा बन जाना है जैसा दूसरा चाह रहा है ! नहीं ! हमें तो अपने अहंकार, लालसाओं व इच्छाओं पर नज़र रखनी है । कि कहीं हममें उत्कृष्ट भाव तो नहीं आ गया ! कहीं मेरी ही चले या मैं ही ठीक हूँ , ऐसा तो नहीं मैं कर रही या कर रहा ! 

यदि हमें चिन्ता की आदत है, भय में ग्रस्त रहते हैं , संशय के कारण मन शान्त नहीं रहता तो प्रेम व सम्पूर्ण शरणागति ही इसकी कुंजी है । 

मन का कोई कोना खाली न रह जाए प्रभु जिससे कोई मिथ्या विचार घर कर सके । आपका नाम जो रस व अमृतधारा प्रदान करता है उसमें यह मन सदा भीगता रहे । यह नज़र स्वसुधार पर ही सदा सदा लगी रहे । दूसरे के गुण आपही की छवि है, वहाँ सदा सदा नतमस्तक हो जाएँ । 

श्री श्री चरणों में 

Leave a comment