सत्संगति से लाभ 

Dec 30, 2016

परम पूज्यश्री महाराजश्री कहते हैं कि सत्संगति का संस्कार कभी मिटता नहीं वह अमिट रहता है । 
एक बार राजा रघु के पास एक जंगली जीव भागता भागता आया और शरण की बुहार लगाई । राजा रघु उस समय जंगल में विरक्त हो तपस्या कर रहे थे । उन्होंने उस जीव को शरण दी। 
तभी भागते भागते एक राक्षस आया और बोला – महाराज ! वह मेरे भोजन है ! उसे आप मुझे लौटा दीजिए । 

राजा बोले कि उसने मेरी शरण ली है। मैं कैसे तुम्हें दे दूँ । 
राक्षस बोला – राजन् अब आप विरक्त हैं। आप समदर्शी हैं । आप भेद भाव नहीं कर सकते। जितना आपको वह प्रिय है उतना मैं भी ! 
राजा रघु चुप ! 
पूज्य महाराजश्री बोले कि संतों महात्माओं के आगे ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं। ऐसे ऐसे तर्क सुनने को मिलते हैं । 

तो राजा रघु को अपने गुरू महर्षि विशिष्ट जी का स्मरण हो आया ! वे सब कुछ छोड़ कर सिमरन करने बैठ गए । पास ही राक्षस व जीव भी बैठे थे । 
कुछ समय पश्चात जब उन्होंने आँखें खोली तो देखा कि राक्षस का रूप ही बदल गया था । वह बोला – महाराज! मैं श्रापित था । आपके सिमरन से मेरी योनि ही बदल गई ! मैं अब राक्षस न रहा महाराज ! 
संतों की संगति पूज्य़श्री महाराजश्री ने कहा कि वह आपको भी वही ज़ुकाम लगा देती है जो उन्हें लगा होता हैं। 
संत तो ऐसे होते हैं कि कुछ न भी अपना दिया हो फिर भी अपना रंग चढा देते हैं ! 

संत तो ऐसे होते हैं कि आत्माओं को पता भी नहीं चलता कि वे संतों के मध्य हैं और रूपान्तरण होने आरम्भ हो जाते हैं । 

संतों के लिए अपने आपको दिखाने व अपनी प्रदर्शनी करने की आवश्यकता नहीं होती न ही शारीरिक उपस्थिति की … वे तो कहीं से भी दूर दूर अपनी दिव्य तरंगें विस्तृत कर मानव योनि का कल्याण करते रहते हैं !! उनमें तो यह भेद भाव भी नहीं रहता कि कौन उन्हें शारीरिक रूप में पसंद करता है कौन नहीं … वे बस बाँटते जाते हैं !!! 

ऐसे जीवन्मुक्त ब्रह्मलीन संतों के श्रीचरणों में बारम्बार प्रणाम 

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