Monthly Archives: January 2017

सकाम व निष्काम कर्म 

Jan 28, 2017


प्रशन : फल को ध्यान में रख कर किया गया कर्म क्या सही है?आम जीवन में ज्यादातर कर्म फल को ध्यान में रख कर होता है। चाहे हम कितनी भी कोशिश करें फल की चाह के बिना के कर्म की कहीं गहरे में फल की इच्छा दबी होती है। 

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गुरूजन कहते हैं फल पर नज़र का मतलब “चाह” है जीवन में । महाराजश्री कहते हैं खाना बना रहे हैं पति को पसंद आए .. चाह है कि पति पसंद करे । काम पर जाते हैं … अवार्ड या काम सराहे जाने की चाह ! सेवा कर रहे हैं कि शायद इससे कुछ मिले …. लोगों से मिल रहे हैं , बना कर रखते हैं .. कि मुसीबत के समय काम आएं !! कोई अच्छे से बात नहीं कर रहा चाहे अपनी संतान ही क्यों न हो, यह चाहना कि वह कहना माने… भी इच्छा !!

ऐसा ही होता होगा सकाम कर्म !
तो इन सब के पीछे चाह है । इच्छाएं हैं । जब कर्म केवल करने हेतु हो , केवल कर्तव्य की दृष्टि से हो, सहज से हों , बिना किसी चाह के वे निस्वार्थ कर्म ।
इसमें एक और बात भी निहित है – मैं कर रहा / रही हूँ । कर्तापन ! इसके कारण जो जो कर रहे हैं व जो जो इच्छाएं कर रहे हैं सो कर्म फल तो कर्ता का ही होता है ! सो जन्म व मृत्यु के चक्कर जारी ।
पूज्य महाराजश्री कहते हैं कि निष्काम कर्म में कर्ता परमेश्वर हैं । वे करने व करवाने वाले। और सत्य भी यही है। यहाँ फिर जो कर्मों के बीज सूख जाते हैं , अंकुरित नहीं होते ! साधना का लक्ष्य ही यही है कि यह जान सकें कि करन करावन हार परमात्मा है ।
गुरूजन कहते हैं कि परमेश्वर की चाह , उनका तारक मंत्र नाम, हर तरह की इच्छाएं समाप्त कर देती है । उसकी चाह के आगे सब इच्छाएं मिट जाती हैं .. फिर हर कार्य वह ही करवा रहा होता है … चाहे बर्तन माँजना , या दफ़्तर जाना … फिर नीजी हित नहीं रहता !
गुरूजन कहते हैं समर्पण – जब समर्पण हो जाता है तो निजी इच्छा नहीं रहती । जैसे तू राखे । जो तू दे दे । सब स्वीकार । संसार से कुछ मिले न मिले , कुछ माएने नहीं रहता ! सो समर्पण में भी इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं । पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि कर्तव्य नहीं निभते ! कर्तव्य कर्म तो अति आवयशक हैं निभाने पर वे निभाए जाते हैं मात्र कर्तव्य के रूप में ।
सो गुरूजनों ने सकाम कर्म से ऊपर निष्काम कर्म को ही माना है और उसे ही प्रार्थमिकता दी है ।

FAQs for the week of Jan 27

Jan 27, 2017


मैं अपना मन प्रभु पर केंद्रित रखता हूँ पर फिर भी कई बार भौतिक जीवन का आकर्षण मुझे खींच लेता है । मैं इसके लिए क्या कर सकता हूँ ? 

गुरूजन कहते हैं कि मन सदा परमेश्वर पर रहे , सो इसके लिए सतत स्मरण की आवश्यकता है । चाहे उसके नाम की, उसके गुणों की जैसे वे प्रेमस्वरूर हैं, कृपास्वरूप हैं , करुणासिंधु हैं , इत्यादि । प्रभु के सतत नाम के सिमरन से भौतिकता स्वयमेव ही पीछे हटने लग जाती है। 
परम पूज्यश्री स्वामीजी महाराजश्री की साधना में कुछ ज़बरदस्ती हटाना नहीं होता , न ही वे कहते हैं, बल्कि सकारात्मक चीज़ों का आलिंगन करना होता है। इस कारण जाप व ध्यान को बढा देने से, गुरूजनों की कृपा से इसमें और रुचि होने से भौतिक लालसाएँ व आकर्षण स्वयमेव ही कम हो जाता है । 
किसी दिन तो ध्यान बहुत आसानी से हो जाता है और मुझे बहुत ही सुखद अनुभव होता है पर किसी दिन तो मन केंद्रित ही नहीं होता । इसके लिए मैं क्या कर सकता हूँ ? 

गुरूजन कहते हैं कि जब मन नहीं लगता तो यदि हम भीतर टटोलेंगे तो पाएँगे कि वासनाओं ने अपना आधिपत्थय कर रखा है । और वह इसलिए क्योंकि सतत सिमरन में कमि आने से । यदि राम नाम में मन सदा रहता है, दिन भर उसी में डुबकी लगाता है तो वासनाएँ जागती नहीं हैं । क्योंकि हमारा मुख राम की ओर है, मायापति की ओर है । सो इसकी भी कुंजी मन में प्रेमपूर्वक नाम जप , प्रेमपूर्वक परमेश्वर के विचारों में रहने की है । जितना अधिक हम दिन भर भगवद् विचारों में रहेंगे उतना हमारा ध्यान केंद्रित व मधुर रहेगा । 
I try to keep a steady mind focused on God but at times I do get carried away with the materialistic life. What can I do for this? 
In order to have mind to be in God.. one needs constant remembrance of Him. Whether it’s His Name or the remembrance of His attributes like love, Grace, benevolence… one needs to be in His thoughts.. then materialism automatically takes a back seat.. in Pujya Swamiji Maharajshri ‘s sadhna… nothing is to be forced out… instead more positive things need to be embraced… so increasing love of jaap or dhyaan automatically reduces materialism.
On some days, meditation would happen easily and gives me a pleasant experience, but at times I just can’t focus. What can I do for this?  
Gurujans say that when mind is not focused then, when we introspect, we find that the desires having taken an upper seat. This happened because the constant remembrance was not there. If mind is always in RAM Naam, if it is soaked in RAM Naam, then desires do not arise. Because we are facing the Lord of illusion. Therefore the key to this question is lovingly remembering Him, lovingly taking His Name. The more we are in HIS thoughts, the more our meditation is focused and sublime. 

अनन्य भक्ति 

Jan 23, 2017

अनन्य भक्ति , अव्यभिचीरिणी भक्ति , जहाँ दूसरा कोई देव नहीं … 

क्या माएने है इसका ? क्या इसका मतलब यह कि बस मेरे ही गुरूजन और बाकि पर मैंने दरवाज़े बंद करे, मेरे ही गुरू के शब्द और बाकि सब पर मेरी नज़रें बंद !
शायद यह भी ठीक हो … पर परम पूज्यश्री महाराजश्री व गुरूजनों ने बंद तो कभी कुछ नहीं करवाया .. चाहे खान पान हे या कुछ और ! उनमें ” न ” शब्द कम ही था !
तो क्या हुई फिर अनन्य भक्ति ? जैसे समझ आ रहा है कि अपने गुरू के सिवाय कुछ दिखे ही न !! अपने गुरू के सिवाय तीसरे कुछ हो ही न !
हर जगह वह ! हर जगह उन्हीं के शब्द ! हर जगह उन्हीं की तरंगें ! बस वे केवल वे !

रामायण जी पढ़ो तो लगे वे ही हैं राम ! गीता जी खोलो तो लगे वे ही हैं भगवान् श्री कृषण ! चंद्रमा दिखे लगे वे ही आए हैं मिलने ! वृक्ष दिखे तो लगे अरे ! मेरे प्रभु हैं ऐसे ! सूर्य दिखे तो लगे मेरे गुरू की तरह हैं यह !बादल दिखें मानो वे ही बात कर रहे हों ।  पहाड दिखें तो लगे बस उनके संग एक हो जाओ सागर दिखे तो मानो उसमें विसर्जन हो जाए ।
कोई पुस्तक खोलें तो लगे वे ही बात कर रहे हैं , किसी अन्य कीर्तन में बैठो तो लगे वे ही उसमें आ समा हए हैं । नैन मूँदो तो बस वे ही वे !!!

बच्चा गले लगाए तो मानो लगे गुरूदेव ने प्यार उँडेला, कोई ध्यान रखे मानो गुरू ख़्याल रख रहे हैं , किसी ने हाल चाल पूछा तो गुरूदेव के दुलार की मेहक आए !

खाली बैठो तो मानो गुरूदेव आ गए साथ देने , भीड़ में हो तो भी हृदय उनके लिए धड़क उठे !

फ़िल्मी गाने सुनो तो उनके लिए नैनों से नीर बह जाए, माता पिता शिक्षक की बात चले तो गुरूदेव का दुलार ही उभर कर आ जीए !

सोने जाओ तो मानो आए हैं वे सुलाने और जागो तो मानो उन्होंने ही जगाया !

जब देवी देवता के आगे झुकें तो मानो गुरूदेव ही हैं वे प्यारे !

जब उनके सिवाय कोई और दिखे ही न , जब उनके सिवाय कोई विचार ही न आए … जब उनके शब्दों के सिवाय कुछ और सुने व दिखे ही न …. यह होगा अनन्य भाव ! केवल वे !
जब दूसरे होते हुए भी केवल वे ही दिखें जब दूसरों के शब्दों में उनके शब्द ही दिखें … यह होगी शायद सही माएने में अनन्य भक्ति !
नमो नम: गुरूदेव तुमको नमो नम:
मेरे राााााााओऽऽऽऽऽऽऽऽऽम

 

 

ध्यान की विधि 

Jan 22, 2017


प्रश्न : कृपया बताइए कि महाराजश्री ने ध्यान की विधि क्या बताई हुई है ? यदि ध्यान में नींद आ जाए तो क्या करें ? 

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महाराजश्री कहते हैं कि ध्यान भक्ति का एक बहुत ही अनिवार्य अंग है। जब कि स्वामीजी महाराजश्री की साधना जप प्रधान है पर उन्होंने ध्यान दिन में दो बार कहा है। शास्त्र त्रीकाल कहता है । पर ध्यान करना अति अनिवार्य है ।

पूज्यश्री महाराजश्री साधकों को परमेश्वर को अंग संग मान कर प्रणाम करने को कहते हैं। नमस्कार सप्तक बोलकर बिल्कुल सीधे बैठने को कहते हैं। ध्यान हमेशा बैठ कर लगाया जाता है। चैंकड़ी मार कर, एक एंडी, नीचे के जो दो छेद हैं उसके बीच रखकर यदि ध्यान लगाएँ तो बहुत लाभ होता है।
महाराजश्री कहते हैं ध्यान नहीं लगता। नींद आ जाती है। बहुत ही सुखद नींद । मन बहुत तेज़ी से दौड़ना आरम्भ कर देता है।

इसके लिए पूज्यश्री महाराजश्री प्राणायाम कहते है। बहुत ही हल्के से, स्वामीजी महाराजश्रि कहते हैं जैसे नवजात शिशु माँ से दूध पीता है, जिसका माँ तक को पता नहीं चलता, ऐसे भीतर सांस लेकर , लम्बा रााााााााओऽऽऽऽऽऽऽम लेकर सांस को रोकें । इसे भीतरी कुम्भक कहते हैं। सांस इतना भर लें कि छाती व पेट फूल जाए । फिर इसे धीमे से निकालें । निकाल कर फिर सांस रोकें , इसे बाहरी कुम्भक कहा जाता है। यदि यह एक बार करके, फिर राम कहने का भी मन न करे, आप इतने आनन्द में डूब जाएँ , तो ध्यान में बैठे रहिए। यदि अभी भी मन स्थिर नहीं है तो एक बार और प्राणायाम कीजिए। यदि फिर नहीं स्थिर तो पाँच बार तक कर सकते हैं।
पूज्य महाराजश्री कहते हैं ध्यान ज्यादा समय तक नहीं लगाते। १०-१५ मिनट। फिर आधे घण्टे तक धीरे धीरे बढा सकते हैं। परमेश्वर की अथाह कृपा हो तो घण्टों भी लग सकता है।
जो मिलेगा इस ध्यान में ही मिलेगा। जीवन रूपान्तरित होगा, इस ध्यान में बैठने से ही होगा ।

सर्व श्री श्री चरणों में

गुरूजनों के ग्रंथ व अन्य अध्यात्मिक ग्रंथ 

Jan 22, 2017

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प्रश्न : क्या हमें सिर्फ पूज्यश्री गुरूजन के ही ग्रंथों का पाठ करना चाहिए ?
हमारे गुरूजनों के ग्रंथ ज्ञान के असीम सागर है। किसी वरिष्ठ साधक ने कहा था कि उनके ग्रंथों को पूर्ण रूप से समझ पाने के लिए एक जीवन काल पर्याप्त नहीं ।

हमारे गुरूजन अध्यात्मवाद के अनुयायी हैं। किसी पंथ या मत के नहीं । अध्यात्मवाद मूल है, इसी से सभी धर्मों का जन्म हुआ है । और समस्त विश्व में अध्यात्मवाद एक ही है। इसका मतलब कि जो गुरूजनों ने कहा व लिखा है, वह पहले भी आध्यात्मिक महर्षियों द्वारा कहा जा चुका है और विदेशों में भी जिन अध्यात्मवादियों ने कुछ कहा वह एक ही है । यह इसलिए क्योंकि जो सबने भीतर देखा वह एक ही था व है ।

इसलिए जो भी अन्य अध्यात्मिक ग्रंथ व शास्त्र हम पढ़ेंगे वे भी वही कह रहे होंगे जो पूज्यश्री गुरूजनों ने कहा है ।
परम पूज्यश्री स्वामीजी महाराजश्री ने भक्ति प्रकाश जी में विभिन्न संतों के बारे में लिखा है । जो यही दर्शाता है कि उन्होंने भी अन्य संतों के जीवन व लेखों का रसपान किया है । पूज्य स्वामीजी महाराजश्री ने तो अन्य संतों के भजन तक लिखे हैं ध्वनि व भजन संग्रह में , जो कि उनकी खुली सोच, विशाल हृदय दर्शाता है ।
परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महाराजश्री ने तो अन्य आधुनिक संतों के ग्रंथ तक अनुवाद किए और स्वामी रामदास जी की दिव्य दर्शन नामक पुस्तकों को भी पढने के लिए कहा ।
हमारे गुरूजन ऐसे धर्म को मानते हैं व अनुयायी हैं जो सार्वभौमिक है । जो देश काल से परे है। जो सदा था व सदा रहेगा । क्योंकि वह आत्मा के बारे में है जिस तक हम नाम योग द्वारा पहुँचते है ।
इस लिए बिना किसी संकोच के जो ग्रंथ भक्ति रस से भरपूर हैं , जो आत्मदर्शन तक लेकर जाते हैं , हम पढ सकते क्योंकि वे सब वही कहेंगे जो परम पूज्यश्री गुरूजनों ने कहा है ।
गुरूजनों के अनुसार  जो भी पढें ..( चाहे गुरूजनों के, जो कि ज्ञान के असीमातीत भण्डार हैं या कुछ और ), जीवन में अवश्य हमें उसे उतारना है ।

ऐसा मुझे सिखाया
सर्व श्री श्री चरणों में

परम पूज्यपाद श्री स्वामीजी महाराजश्री और अध्यात्मवाद 

Jan 21, 2017


परम पूज्यश्री श्री स्वामीजी महाराजश्री ने हमें अध्यात्मवादि / अध्यात्मिक कहा है ।
यह अध्यात्मवाद क्या है ?
आत्मा को लक्ष्य रखकर जो बात की जाए वह अध्यात्मवाद।
क्या हर कोई अध्यात्मवादी होता है ?
नहीं ! पूज्य स्वामीजी महाराज जी कहते हैं कि अध्यात्म विद्या को प्राप्त करने के सभी अधिकारी नहीं होते। सभी में यह योग्यता नहीं होती क्योंकि बुद्धि भिन्न भिन्न प्रकार की होती है। कोई विरला ही इसके योग्य होता है।
क्यों यह हर किसी के लिए नहीं है ? क्या है इसमें जो सब नहीं कर सकते?
पूज्य स्वामीजी महाराजश्री कहते हैं कि इसमें अपनी प्रकृति को बदलना होता है, जो सरल काम नहीं । शरीर की प्रकृति को ही बदलना बहुत कठिन है और आत्मा को- जिसे न जाने किस काल प्रकृतिमय समझता आया है-जाग्रत करना, उसको स्व – स्वरूप में लाना और भी कठिन है। इसलिए इस मार्ग पर पूरी विधि और तत्परता से चलना चाहिए।
अध्यात्मवाद किस धर्म से आया है ?
पूज्य स्वामीजी महाराजश्री कहते हैं कि अध्यात्मवाद वास्तविक धर्म हैं। और अखिल संसार में एक ही है । इससे सभी धर्मों की उत्पत्ति हुई है ! सो यह मौलिक चीज है।
तो क्या यह वास्तविक धर्म केवल भारत में ही पाया गया है ?

पूज्यश्री स्वामिनी महाराजश्री ने कहा है कि अध्यात्मवाद पुरानी चीज है । दूसरे देशों में भी है । यदि किसी पश्चिमी देश में अध्यात्मवाद की बात की गई हो या भारत वर्ष में बात की गई हो, उसमें केवल शब्दों का भेद हो सकता है पर तत्व में भेद नहीं हो सकता ।
तो क्या जो पुराने महर्षि या संत हुए और जो विदेश में संत हुए और जो पूज्य स्वामीजी के ग्रंथों में अध्यात्मवाद है क्या वह भिन्न है ?
पूज्य स्वामीजी महाराजश्री के अनुसार , सब देशों में जो अनुभवी लोग हुए हैं , वे सब एक ही बात कहते आए हैं, क्योंकि उन्होंने जो देखा, वह एक ही बात थी ।
प्रवचन पीयूष
पृष्ठ १६, १३

ग्रंथ जीवन में उतारने हैं , रटने नहीं 

Jan 21, 2017


प्रश्न : जी कृपया बताइए कि क्या हमें केवल पूज्य गुरूजनों के ग्रंथ ही पढने चाहिए ?
परम पूज्य महाराजश्री के प्रवचनों में से है – एक चीज पकड़ लीजिए और जीवन भर उसे निभाएँ , जीवन में उतार लें , तब भी कल्याण निश्चित है ।
” राम” को ही बस पकड़ ले
” मेरा तू मेरा तू मेरा तू ही तू है राम” इसे ही बेशक पकड़ लें
“सर्वशक्तिमते परमात्मने श्री रामाय नम: ” चाहे इस सिद्ध मंत्र को ही पकड़ लें ….
श्री अमृतवाणी जी तो साक्षात वेद हैं , इससे और कहीं क्या पढा जा सकता है ।
स्वामीजी ने उपनिषदों का सार दिया , श्रीमदभागवद् गीता का सार दिया… सब कुछ तो है …भक्ति प्रकाश जी…

बात रटन के कारण ग्रंथ पढने की नहीं है, या नियम निभाने की नहीं है, या पोस्ट forward करने की नहीं है । बात उसे जीवन में उतारने की है।
पूज्य महाराजश्री ने कहा- यहाँ कितने बैठे हैं जिन्होंने सुनंदरकाणड कण्ठस्थ कर लिया है ! पर जीवन में कितना उतरा ? उससे हमने क्या सीखा , यह माएने रखता है ।
परम पूज्य गुरूजनों के ग्रंथ तो ज्ञान के अनन्त सागर हैं , पर उनसे हमने क्या लिया व जीवन में क्या उतारा माएने रखता है।

सो जो भी पढें … जीवन में उतारें !
यह बच्चे हमारी धरोहर है । वे हमारे गुरूजनों की खुली सोच की तरह निकलें व बढ़ें, यही गुरूजनों से प्रार्थना है । पर सबके अपने प्रारब्ध भी हैं… सो सब अपनी अपनी राह पकड़े चलते जाएंगे ….

गुरूजन कृपा करें ।
श्री श्री चरणों में

राम में स्थित शिष्य में सेवकाई स्वयमेव ही आती है 

Jan 20, 2017


प्रश्न : स्व सुधार में क्या स्वार्थ नहीं ? शिष्य बनना और सेवक नहीं क्या स्वार्थ नहीं ? 

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महाराजश्री स्व सुधार पर बल देते है और फिर पर सुधार पर । पहले हमें अच्छे शिष्य बनना है । परम पूज्य महाराजश्री के अनुसार देह अभिमान लाँघ कर जो सेवा की जाती है वह ही असली माएने में सेवा है । 

स्वम् सेवा का एक और अर्थ भी है । स्वयं की खोज । जब हम स्वयं की खोज में निकलते हैं ,वह सबसे उच्च सेवा मानी जाती है । क्यों ? क्योंकि परमेश्वर में विलीन होकर जो सेवा होती है वह समस्त ब्रह्माण्ड का कल्याण करती है । इस स्वयं की खोज में शिष्य सम्पूर्ण रूप से समर्पित होता है । परमेश्वर उसकी देह से कोई कार्य करवाएं या न करवाएं , इसमें उसकी इच्छा नहीं रहती । अहम् शून्यता यह लेकर आता है । सृष्टि में जो कुछ भी घट रहा है परमेश्वर लीला ही जानता है। हर परिस्थिति में  वह भीतर विराजमान राम पर ही स्थित रहता है । 

यह एक गहन तपस्या है ~ भीतर अपने राम पर हर परिस्थिति में स्थित रहना । स्वयं की भौतिक इच्छाओं का यहाँ तेल समाप्त हो चुका होता है । केवल राम ही रहते हैं । 

सो जो राम में स्थित रहे वहाँ स्वार्थ कैसा ? जब राम में स्थित रहकर जगत राममय बने तो वहाँ स्वार्थ कैसा? पहला स्व कल्याण आवश्यक है । अहम् का सम्पूर्ण रूप से नाश आवश्यक है । इसमें साधक परमेश्वर के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता। अपने कार्य से मतलब रखता है । और उसका कार्य है राम पर हर पल हर क्षण स्थित रहना । 

एक अच्छा शिष्य निश्चय से स्वयमेव ही अच्छा सेवक होगा । उसे कुछ अलग से नहीं करना होगा । जो राम में स्थित रहेगा , उसमें राम की ही तो गुण बसेंगे । और राम तो केवल देना ही जानते हैं । सो अच्छे शिष्य में सेवाकाई के गुण स्वयमेव ही होंगे । पर ढिंढोरे पीटने वाले नहीं । राम की तरह गुप्त । राम गुप्त रूप से सेवा करते हैं, ढोल पीट कर नहीं। राम में एक्य साधक / शिष्य भी राम की तरह गुप्त कार्य करता है । 

यही चित्र खींचा है गुरूजनों ने स्वयं की खोज की यात्रा का। गुरूजन स्वयं ही लेकर जाते हैं इस राह पर ….. अहम् शून्यता केवल वे ही दिलवा सकते हैं …. और कोई नहीं !!!! एक शिष्य राम से कभी भिन्न न होगा, उसमें राम के गुण दिन प्रति दिन बढ़ते जाएंगे और सेवकाई भी एक गुण है। पर राम में अहम् नहीं सो राम में स्थित साधक का अहम् न्यूनतम होता जाएगा । 

रााााााााााओऽऽऽऽऽऽऽऽऽम 

श्री श्री चरणों में

FAQs for the week of Jan 20

Jan 20, 2017


मैं कोई भाव नहीं महसूस कर पाता जब जाप करता हूँ , जिसके कारण यह सब बहुत रूखा सा लगता है।कृपया बताइए कि जब मैं जाप करता हूँ तो मेरे भीतर जैविक, मनोवैज्ञानिक और ब्रह्माण्डिय स्तर पर क्या हो रहा होता है? 

 गुरूजन कहते हैं कि दिव्य प्रेम तभी प्रवाहित होता है जब हम राम नाम अत्यधिक प्रेमपूर्वक लें। भाव महसूस करने हेतु राम का उच्चारण रााााााााााओऽऽऽऽऽऽऽऽम की तरह करिए । मानो कि आप लम्बा राम ऐसे ले रहे हैं जैसे कि बहुत गहराई से उसे पुकार रहे हों। यह लम्बा राम भाव लाने में सहायता करता है और हम आसानी से ध्यान में भी उतर सकते हैं। 
पूज्य महाराजश्री कहते हैं जाप का लक्ष्य स्वयमेव ध्यानाव्स्था में उतरना है। सो,यदि जाप इस तरह करके आप ध्यान में प्रवेश कर जाते हैं तो जाप का लक्ष्य सफल हो गया। 
जब आप प्रेमपूर्वक जाप करते हैं तो  जैविक स्तर पर आपकी इंद्रियाँ मंत्र की ध्वनि के साथ संयुक्त हो जाती हैं । यह ध्वनि हमें मानसिक स्तर पर शान्ति प्रदान करती है और हम मनोवैज्ञानिक स्तर पर तनाव रहित हो जाते हैं। यदि यह प्रक्रिया बिना किसी अवरोधक के चलती जाए तब हम ब्रह्माण्ड की सर्वोच्य शक्ति ” राम” जो मंत्र में ही विराजित हैं, जैसे परम पूज्य श्री स्वामीजी महाराजश्री ने कहा है, उससे एक्य प्राप्त करते हैं। यहाँ पूज्य महाराजश्री कहते हैं कि राम नाम का उच्चारण भी बंद हो जाता है। 
I’m unable to feel emotions while doing my jaap, making it a dull experience at times. So please tell me what exactly is happening within me when I’m doing the jap at biological, psychological and cosmic level 
Gurujans say that true love can flow if we chant Ram Naam with utmost love … 
to feel that bhav utter RAM as Raaaaaaaaaaaaaaaaauuuuuuum….

Meaning, that take a long RAM as if you are calling out to Him in real depth… this long chant of Ram assists in developing that bhav and one can even slip easily into meditative mode ..

Pujya Maharajshri says that the aim of jaap is to go automatically in dhyaan… so if by doing this kind of jaap.. you enter this mode then that means purpose of jaap is solved! 

When you lovingly chant RAM this way… at the biological level your senses get connected to the sound of the Mantra RAM. That sound generates energy that helps relax us at the psychological level… if this RAM goes in further depth without any interruption that we get connected to the Supreme cosmic power.. RAM that resides in the name itself… it’s it’s in the name that the Supreme Lord resides, as said by Pujya Shri Swamiji Maharaj. Pujya Maharajshri says that here even the chant of RAM Naam stops. 
All at Their Lotus feet.

FAQs for the week of Jan 13,2017

Jan 13, 2017

साधकों के प्रश्न व गुरूजनों के प्रवचनों से समाधान


मैंने अपने गुरू को नहीं देखा इसका मुझे बहुत दुख है । मैं गुरू के लिए बहुत तड़पती थी। पर जब वे मिले, तो मैं उन्हें देख नहीं सकती। 

परम पूज्यश्री महाराजश्री ने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा है कि ” गुरू कभी मरा नहीं करते” । उनके पावन कथन अनुसार -संत गण गुरू को शरीर मानना बहुत पाप मानते हैं । 

गुरू तो चेतना है । हर बात जानने वाले, कब क्या सिखाना है, किससे मिलाना है किससे नहीं मिलाना है, सब कार्य करते हैं। वे सूक्ष्म रूप में प्रत्येक आत्मा को परमेश्वर के निकट ले जाने की मेहनत में लगे रहते हैं । कोई भी आत्मा अकेला नहीं होता। कई आत्माओं को तो पता भी नहीं होता कि उनके गुरू हैं। पर गुरू फिर भी सूक्ष्म रूप से आत्माओं को परमेश्वर की ओर ले चलने में अनथक लगे रहते हैं। 

संत गण कहते हैं कि गुरू को पता होता है कि किस आत्मा को किस रूप में मिलना है। किस आत्मा की साधना को कहाँ से आगे ले जाना है। वे उसी रूप व स्वरूप में साधक के समक्ष आते हैं। 

गुरू सब जानते हैं। उनके कार्य में कभी हस्तक्षेप नहीं करना । जिस जिस रूप में ज्ञान व अपनी शिक्षाएँ सामने ला रहे होते हैं, उसपर संशय नहीं करना न ही उँगली उठानी। जो भी परिस्थिति या इंसान हमारे समक्ष आता है वह हमारे गुरू का ही भेजा हुआ होता है। सो हर में उनकी कृपा व प्रेम ही निहित होता है, ऐसा पूज्यश्री महाराजश्री कहते हैं। 

सो यदि वे तत्व रूप में, अपने यथार्थ स्वरूप में गुरू समक्ष आएं हैं, सो वे बेहतर जानते हैं। कभी भी किसी के बहकावे में आकर अपने गुरू पर संशय नहीं करना। चाहे संसार कुछ भी कहता रहे अपने गुरू के बताए मार्ग से नहीं हटना। गुरू साधक की हर प्यास बुझाने में सक्ष्म होते हैं। चाहे दर्शनों की हो, उनके संग की हो या उन में समा जाने की हो। 

I have not seen my Guru physically, and I am very upset about it. I really used to long for my Guru. But when I finally found Him, I could not see Him. 
 Param Pujya Maharajshri has very clearly stated that ” A Guru never dies” .In His sacred words- To consider a Guru as a body is considered as a sin. 
Guru is pure Consciousness. One who knows everything, knows when to teach what, whom to make us meet and not meet, all They do. In subtle form They are working non stop to take the Soul of sadhak nearer to God. No soul is alone. Many Souls don’t even know that Their Guru is guiding them.But still even for them, the Guru works tirelessly to take the Soul towards Divinity. Sanits say that Guru knows that in which form He will meet the sadhak. Which soul to move further from which point. They then come in the required form to take the sadhak further. 
Guru knows all. One should never interfere in Their work. In whatever form They bring forth knowledge or teach us, one should never have any doubts on it or point finger at His doing. Whatever situation or person that comes in our life has been sent by our Gury only. That’s why every situation is soaked with His love and Grace, so says Pujya Maharajshri. 
So if They have come in our lives as Tatwa form, in Their real Divine Conscious form, then They know better. Never come under the influence of anybody to doubt the Guru. Whatever may the world say, never stray away from the path of your Guru. Guru is capable of quenching the thirst of the sadhak. Be it of His Darshan, or His close proximity or to finally dissolve in Him. 
All at Their Lotus feet