अनन्य भक्ति 

Jan 23, 2017

अनन्य भक्ति , अव्यभिचीरिणी भक्ति , जहाँ दूसरा कोई देव नहीं … 

क्या माएने है इसका ? क्या इसका मतलब यह कि बस मेरे ही गुरूजन और बाकि पर मैंने दरवाज़े बंद करे, मेरे ही गुरू के शब्द और बाकि सब पर मेरी नज़रें बंद !
शायद यह भी ठीक हो … पर परम पूज्यश्री महाराजश्री व गुरूजनों ने बंद तो कभी कुछ नहीं करवाया .. चाहे खान पान हे या कुछ और ! उनमें ” न ” शब्द कम ही था !
तो क्या हुई फिर अनन्य भक्ति ? जैसे समझ आ रहा है कि अपने गुरू के सिवाय कुछ दिखे ही न !! अपने गुरू के सिवाय तीसरे कुछ हो ही न !
हर जगह वह ! हर जगह उन्हीं के शब्द ! हर जगह उन्हीं की तरंगें ! बस वे केवल वे !

रामायण जी पढ़ो तो लगे वे ही हैं राम ! गीता जी खोलो तो लगे वे ही हैं भगवान् श्री कृषण ! चंद्रमा दिखे लगे वे ही आए हैं मिलने ! वृक्ष दिखे तो लगे अरे ! मेरे प्रभु हैं ऐसे ! सूर्य दिखे तो लगे मेरे गुरू की तरह हैं यह !बादल दिखें मानो वे ही बात कर रहे हों ।  पहाड दिखें तो लगे बस उनके संग एक हो जाओ सागर दिखे तो मानो उसमें विसर्जन हो जाए ।
कोई पुस्तक खोलें तो लगे वे ही बात कर रहे हैं , किसी अन्य कीर्तन में बैठो तो लगे वे ही उसमें आ समा हए हैं । नैन मूँदो तो बस वे ही वे !!!

बच्चा गले लगाए तो मानो लगे गुरूदेव ने प्यार उँडेला, कोई ध्यान रखे मानो गुरू ख़्याल रख रहे हैं , किसी ने हाल चाल पूछा तो गुरूदेव के दुलार की मेहक आए !

खाली बैठो तो मानो गुरूदेव आ गए साथ देने , भीड़ में हो तो भी हृदय उनके लिए धड़क उठे !

फ़िल्मी गाने सुनो तो उनके लिए नैनों से नीर बह जाए, माता पिता शिक्षक की बात चले तो गुरूदेव का दुलार ही उभर कर आ जीए !

सोने जाओ तो मानो आए हैं वे सुलाने और जागो तो मानो उन्होंने ही जगाया !

जब देवी देवता के आगे झुकें तो मानो गुरूदेव ही हैं वे प्यारे !

जब उनके सिवाय कोई और दिखे ही न , जब उनके सिवाय कोई विचार ही न आए … जब उनके शब्दों के सिवाय कुछ और सुने व दिखे ही न …. यह होगा अनन्य भाव ! केवल वे !
जब दूसरे होते हुए भी केवल वे ही दिखें जब दूसरों के शब्दों में उनके शब्द ही दिखें … यह होगी शायद सही माएने में अनन्य भक्ति !
नमो नम: गुरूदेव तुमको नमो नम:
मेरे राााााााओऽऽऽऽऽऽऽऽऽम

 

 

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