सकाम व निष्काम कर्म 

Jan 28, 2017


प्रशन : फल को ध्यान में रख कर किया गया कर्म क्या सही है?आम जीवन में ज्यादातर कर्म फल को ध्यान में रख कर होता है। चाहे हम कितनी भी कोशिश करें फल की चाह के बिना के कर्म की कहीं गहरे में फल की इच्छा दबी होती है। 

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गुरूजन कहते हैं फल पर नज़र का मतलब “चाह” है जीवन में । महाराजश्री कहते हैं खाना बना रहे हैं पति को पसंद आए .. चाह है कि पति पसंद करे । काम पर जाते हैं … अवार्ड या काम सराहे जाने की चाह ! सेवा कर रहे हैं कि शायद इससे कुछ मिले …. लोगों से मिल रहे हैं , बना कर रखते हैं .. कि मुसीबत के समय काम आएं !! कोई अच्छे से बात नहीं कर रहा चाहे अपनी संतान ही क्यों न हो, यह चाहना कि वह कहना माने… भी इच्छा !!

ऐसा ही होता होगा सकाम कर्म !
तो इन सब के पीछे चाह है । इच्छाएं हैं । जब कर्म केवल करने हेतु हो , केवल कर्तव्य की दृष्टि से हो, सहज से हों , बिना किसी चाह के वे निस्वार्थ कर्म ।
इसमें एक और बात भी निहित है – मैं कर रहा / रही हूँ । कर्तापन ! इसके कारण जो जो कर रहे हैं व जो जो इच्छाएं कर रहे हैं सो कर्म फल तो कर्ता का ही होता है ! सो जन्म व मृत्यु के चक्कर जारी ।
पूज्य महाराजश्री कहते हैं कि निष्काम कर्म में कर्ता परमेश्वर हैं । वे करने व करवाने वाले। और सत्य भी यही है। यहाँ फिर जो कर्मों के बीज सूख जाते हैं , अंकुरित नहीं होते ! साधना का लक्ष्य ही यही है कि यह जान सकें कि करन करावन हार परमात्मा है ।
गुरूजन कहते हैं कि परमेश्वर की चाह , उनका तारक मंत्र नाम, हर तरह की इच्छाएं समाप्त कर देती है । उसकी चाह के आगे सब इच्छाएं मिट जाती हैं .. फिर हर कार्य वह ही करवा रहा होता है … चाहे बर्तन माँजना , या दफ़्तर जाना … फिर नीजी हित नहीं रहता !
गुरूजन कहते हैं समर्पण – जब समर्पण हो जाता है तो निजी इच्छा नहीं रहती । जैसे तू राखे । जो तू दे दे । सब स्वीकार । संसार से कुछ मिले न मिले , कुछ माएने नहीं रहता ! सो समर्पण में भी इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं । पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि कर्तव्य नहीं निभते ! कर्तव्य कर्म तो अति आवयशक हैं निभाने पर वे निभाए जाते हैं मात्र कर्तव्य के रूप में ।
सो गुरूजनों ने सकाम कर्म से ऊपर निष्काम कर्म को ही माना है और उसे ही प्रार्थमिकता दी है ।

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