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परमेश्वर की कृपा पर  आश्रित 

Jan 10, 2017


परम पूज्य परम श्रेध्य महर्षि डॉ विश्वामित्र जी महाराजश्री ने कहा कि परमात्मा पर विश्वास होना ही भक्ति मार्ग में हर साधक का पुरुषार्थ है । 

पूज्य गुरूदेव ने एक कथा सुनाई – 

एक आध्यात्मिक संस्था का अनाथालय है । वहाँ के संचालक को परमेश्वर की कृपा के सिवाय कुछ दिखाई ही नहीं देता। यह परमेश्वर की कृपा का साक्षात प्रमाण है , परमात्मा की कृपा का साक्षात्कार है । अध्यक्ष किसी से माँगता नहीं है। पर परमेश्वर उसकी हर ज़रूरत पूरी करते । यह माँगना परमेश्वर के प्रति अविश्वास है । जो परमात्मा के आश्रित हो जाता है , उसके लिए परमात्मा क्या करता है , यह वही जानता है, जो परमात्मा पर निर्भर होता है। आज मैनेजर आकर कहते हैं कि भण्डार में अन्न का एक दाना नहीं है। भोजन की घण्टी बजने वाली है । अध्यक्ष ने कहा राम इच्छा । मैनेजर साहब को यह सुन कर बहुत अजीब लगा। यह सत्य घटित घटना है । उसी समय बाहर ट्रक रुका है । ड्राइवर के हाथ में चिट्ठी है । वहाँ अध्यक्ष महोदय परमात्मा परमात्मा से कृपा के लिए गिड़गिड़ा रहे थे । चिट्ठी दी गई । चिट्ठी में लिखा था कि मित्र आज घर पर पार्टी का आयोजन था । पर जिसके लिए आयोजन था वे आए नहीं । तो सारा पार्टी कैंसर करनी पडी । कृपया यह भोजन स्वीकार करो। बच्चे तो वहाँ सौ थे पर भोजन २००-२५० लोगों के लिए था । आज जितना बच्चों ने भरपेट भोजन खाया है उतना आज तक नहीं खाया । अध्यक्ष महोदय केवल यही कह पा रहे कि वाह परमात्मा वाह ! तेरी कृपा अथाह है! 

बस तेरे आश्रित होने की आवश्यकता है । आश्रित होना ही कठिन है । 

हम भी ऐसा क्यों नहीं करते । संस्था चलाना आसान नहीं ,किन्तु चलाने वाले तो वे पगड़ी वाले बाबा हैं न । यदि हमें कोई संकट है, धन की कमि है तो उस पगड़ी वाले कुबेर से क्यों नहीं कहते ।  संस्था में आने वाले हर साधक की परिस्थिति एक जैसी नहीं होती। यदि हम साधकों पर संस्था की परेशानियाँ डालेगें तो वे बेचारे तो और धँस जाएंगे ।कइयों की आमदनी इतनी नहीं होती कि कुछ निकल कर आ सके, यह कहना कि दे सकते हैं तो दीजिए.. और बार बार कहते रहना कितनी वेदना पहुँचाता होगा । साधक चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता । 

संस्था में आने वाले साधक को स्वयं राम लाते हैं, स्वयं गुरूजन लाते हैं, उन पर संसारिकता का बोझ बिन समझे डालना, बहुत कष्ट व पीड़ादायक बन जाता है । 

गुरूजनों के पास ही हमें जाना है । संस्था की हर समस्या के लिए। धन हो, साधकों की गिनती हो, या कुछ और। संसार के पास नहीं ! जब कुबेर के पास जाएंगे तो कुबेर जैसी धन राशि मिलेगी, जब संसार के पास जाएंगे तो बार बार कटोरा आगे करना पड़ेगा । 

वे तो जाननहार हैं। हमारे जाने ले पहले उन्हें सब पता होता है। पर यदि उन्हें कह दें कि यह सब आपका है, कृपया आप राह दिखाइए, आप स्वयं इसे चलाइए तो वे संसार के पास कटोरा लेकर जाने से बचा देते हैं । 

जो हर कार्य गुरूजनों के आश्रित होकर करता है, वह संस्था, दफ्तर, दुकान, घर, परिवार, हर कार्य गुरूजनों के आश्रित होकर ही करता है । 

हे राम ! मेरे प्यारे ! हम सब पर कृपा कीजिए। आपश्री की कृपा के बिना, हम आप पर आश्रित नहीं हो सकते ! 

श्री श्री चरणों में 

साधकों के प्रश्न 

Jan 9, 2017


साधकों के प्रश्न
क्या श्रीरामशरणम् में चंदा देना बाध्य है ? यदि न दें तो श्रीरामशरणम् बंद करने को कह देते हैं। नकारात्मक भाव से व्यवहार होता है जिसके कारण जन साधारण लोग नहीं आते । 


परम पूज्य श्री महाराजश्री ने बहुत स्पष्ट कहा हुआ है कि जब श्रीरामशरणम बन जाए तो किसी भी प्रकार की धन राशी साधकों से ले नी वर्जित है। और यदि साधक देने चाहें वह भी बहुत ही मामूली से हर माह के हिसाब से अपनी अच्छा अनुसार दे सकते हैं।

सो यदि इसके विपरीत कहीं भी कुछ और होता है, वह सब परमेश्वर जाने । यदि धन राशी के दान के कारण भेद भाव होता है , तो वह गुरूजनों का द्वार है, उनकी नज़र से कुछ भी छिपना सम्भव नहीं । प्रबंधको के कटु व्यवहार के कारण व भेद भाव के कारण साधकों को श्रीरामशरणम जाना बंद नहीं करना , कभी भी । यदि ऐसा व्यवहार है तो सत्संग शुरू होने पर जाइए, ताकि किसी से मिल न सकें और सत्संग समाप्त होते ही निकल आइए, ताकि किसी से सामाजिक व्यवहार न करना पड़े।

कृपया सदा स्मरण रखें कि परम पूज्यश्री स्वामीजी महाराजश्री व गुरूजन हर सत्संग,हर श्रीरामशरणम् ,  हर साधना चला रहे हैं।

सो कृपया सत्संग जाना न बंद करें।अपने गुरूजनों के लिए जाएँ । जितना घर परिवार के हिसाब से यदि दिया जाता है दीजिए, यदि नहीं तो भी बढिया है। परम पूज्य श्री स्वामीजी महाराजश्री ने तो बादाम वाला हलवा तक बनना पसंद नहीं किया था प्रसाद रूप में , कि हर साधक कैसे इतने पैसे दे पाएगा । तभी साधना में प्रसाद कम से कम घी व सादा बनता है । कितना वे इन चीज़ों का ध्यान रखते हैं ।
परम पूज्य श्री महाराजश्री कहते हैं कि हमारे यहाँ किसी भी नाम पर कुछ भी चढ़ावा नहीं चढ़ता ! हमारा सत्संग में आना चढ़ावा है और सत्संग से जो राम नाम का परमानन्द मिलता है वह प्रसाद ।
सर्व श्री श्री चरणों में 🙏

साधकों के प्रश्न 

Jan 8, 2017


प्रश्न – हमने अपने शहर से बाहर खुले सत्संग में नाम भेजने थे- केवल दो ही गए। हम गुरूजनों के लिए कोई काम नहीं कर रहे। गुरूजनों की कृपा तो हर जगह बरस रही है,हम लोग ही पवित्र व निष्ठावान ही नहीं होंगे तभी यह हाल है !
एक माँ घर में अपने परिवार को अच्छे संस्कार देती है , दीक्षा दिलवाती है, सत्संग लगवाती है।

एक कर्मचारी अपने सह कर्मचारियों को अपने गुरूजनों के बारे में बताते हैं और दीक्षा के लिए प्रोत्साहन करते हैं।

एक शिक्षक अपी कक्षा में छात्रों को अपने गुरूजनों के अच्छी शिक्षाएँ सिखाता है व सह कर्मचारियों को सत्संग व दीक्षा के लिए प्रोत्साहन करता है।

एक साधक अनन्त वर्षों से विदेश में हर रविवार सत्संग करता है, चाहे कोई आए न आए।

मनाली लहौल लोट जैसी बर्फ़ीली क्षेत्रों में साधक मार्ग साफ करते होंगे, और न जाने कैसी परिस्थितियों से जूझ कर सत्संग जाते होंगे, जब सब यातायात के सभी रास्ते बंद हो जाते हैं व आस पडोस में अपने गुरूजनों का प्रचार करने कितनी वादियों से जाते होंगे कई अकेले सत्संग करने कई कुछ साथियों के साथ ।

विभिन्न संस्थाओं में प्रबंधक व साधक मोहल्ले मोहल्ले सत्संग करके दीक्षा व गुरूजनों का प्रचार करते हैं।

आप online हैं। किसी अनजान व्यक्ति से सत्संग व गुरूजनों की बात चीत होती है और आपकी सत्संगति से वह दीक्षा ले लेता है । किस ने भेजा उसे आपके पास? किसने दीक्षा का मन बनवाया? किसने दीक्षा दिलवाई ?

इन सब जगह गुरूजनों के कार्य हो रहे हैं। पर प्रकाशित नहीं हो रहे । न ही बताया जा रहा है कि कैसे सब सेवा हो रही है ! इसका तात्पर्य यह नहीं कोई किसी से छोटा या कम श्रद्धालु व सेवादार है !
यदि एक को भी आपके कारण शान्ति मिलती है और आप उसका श्रेय स्वयं न लेकर गुरूजनों को देते हैं, तो आप गुरूजनों के यंत्र बनने में सफल हो गए ! यदि सब अपनी मेहनत पर लेते हैं तो सर्वसाधारण !
प्रयास देखा जाता है ! जब धर्मराज कर्मों का लेखा लिखते हैं तो निस्वार्थ प्रयास, स्वार्थ पूर्ण प्रयास, इत्यादि देखते हैं। फल नहीं । फल तो वे देवाधिदेव के हाथ में होता है सदा ! और जिनको समझ है वे जानते हैं कि प्रयास केवल गुरूजन ही करवा सकते हैं । पूज्य महाराजश्री ने स्पष्ट कहा है कि साधना का लक्ष्य ही यही है कि उस स्तर पर जा सकें जहाँ यह स्पष्ट होता है कि करनकरावनहार कौन है । कहना और अनुभव करने में बहुत अंतर है ।
सो कृपया अपने प्रयासों को गौण न समझें । आपसे व आपमें भी राम ही कार्य कर रहे हैं जैसे झाबुआ में । सीखना हमें आजीवन है  । हमें अपना हर प्रयास का श्रेय पर गुरूजनों को देना है,यही यथार्थ में कर्मयोग होगा ।यकीन मानिए कि जो प्रयास वे किसी भी साधक से करवाते हैं वह अनन्त कृपा ही है ।
हर उस साधक को बधाई जो एक भी आत्मा को श्री गुरूजनों के श्री चरणों तक लेकर जाए , उनके दर्शन करवाए , उनकी बात सुनाए व उनके ग्रंथ भेंट करवाए या पढ़वाए ।
हर प्रयास मेरे राममय गुरूजनों का व हर सफलता मेरे राममय गुरूजनों की।
सर्व श्री श्री चरणों में

इक तेरा सहारा 

Jan 7, 2017


परम पूज्यश्री महाराजश्री कहते हैं कि जो यह मान लेता है कि मेरे सिर पर मेरा सांई बैठा है, वह तुरन्त शान्ति लाभ कर लेता है ! 

बहुत ज़बरदस्त निभाते हैं गुरूजन !! मौन रह कर अपने बच्चों की कैसी रक्षा करते हैं या समय पर कैसे बोलते हैं , उनकी लीलाएँ , उनका प्रेम अवर्णनीय है। साधक को तो कई बार पता भी नहीं चलता कि उसके बाहर तो तूफ़ान उमड़ रहा है ! उसे तो अपने प्रेम के खिलौने देकर मस्त रखते हैं। जब तूफ़ान थम जाता है वे कृपालु देवाधिदेव दिखाते हैं कि अरे ! मेरे बुद्धु राम देख ! क्या हो रहा है !! और साधक गद् गद् हो जाता है अपने प्यारे के प्रेम को देख कर ! 

गुरूजन अपने जीवन से ही बहुत कुछ सिखाते हैं । उन्होंने आम साधक से भी ज्यादा संसार के कटाक्ष झेले होते हैं। वे तो किसी के साथ बांट भी नहीं सकते। पर उन परिस्थितियों में वे मौन रखना सिखाते हैं और कुन्दन की भाँति बाहर उभर कर आते हैं । पूज्य गुरूदेव कहते हैं कि परमेश्वर पर पूर्ण रूप से आश्रित परमात्मा की गोद में बैठा होता है। उसको सम्भालने वाली तो जगत्जननी होती है । संतों को संसार की माया लिप्त नहीं कर सकती । न ही उनके बच्चों को । हमारे गुरूजनों ने जिस प्रकार अपनी देह त्यागी , वह कोई मामूली घटना क्रम नहीं !! 

संत गण इसीलिए सिखाते हैं कि केवल उस प्यारे का सहारा पर्याप्त भी है और सर्वोच्तम भी !! पर उस सहारे के कारण साधक और झुक जाए तो सोने पर सुहागा । हर कृपा पर झुकता चला जाए तो और कृपा । जितनी छोटी साधक की मैं उतना बड़ा उसका स्तर !

हे रााााााओऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽम 

FAQs for the week of Jan 6, 2017

Jan 6, 2017

साधकों के प्रश्न व गुरूजनों के प्रवचनों से उनके समाधान 

मैं एक अच्छा साधक था शायद । मेरे भाव सब अच्छे थे । पर मेरे अंदर हीन भावना की बहुत है और थी । खासकर गुरूजनों के संदर्भ मे । पहले इतनी न थी । पर अब बहुत बढ गई थी । और उसके कारण मेरे अंदर ईर्ष्या बहुत बढ गई । ईर्ष्या व हीन भावना से मैं अपने गुरूजी पर संशय कर दिया और भेद भाव का आरोप भी लगाया। उनकी बहुत कृपाएँ रही है। मुझसे जबकि वे बहुत अद्भुत कार्य भी करवाते थे ! पर मैं इतना तूल नहीं देता था । मेरी बुद्धि अब चल नहीं रही । मुझे लग रहा है कि मैं बहुत अकेला हूँ और मुझे अपने से घिन्न आ रही है। । मैं क्षमा माँगने के योग्य नहीं हूँ । मैं कैसे उन्हें अपना चेहरा दिखाऊँ ? 

पूज्य महाराजश्री ने कहा है कि शास्त्र ने कई अपराध अक्षम्य कहे हैं। और शायद इनके फल स्वरूप गुरूजनों पर अविश्वास , समर्पण की कमि यह सब भीतर आ जाते हैं चाहे यह सब हममें पहले न भी हों । 
अज्ञानता ही पूज्यपाद श्री स्वामीजी महाराजश्री ने पाप का मूल कारण कहा है । गुरूजनों का जो माध्यम बनते हैं वे इसी कारण बनते हैं कि उनमें सब गुण एक माध्यम बनने के होते हैं। सो संसारिक हीन भावना मिथ्या थी । और ईर्ष्या भी । जब उन्होंने अपना लिया था और अपने कार्य करवा रहे थे तो मानो सब देखकर ही किया था। 
यह सही है कि बुद्धि फिर ठीक से सोच नहीं सकती । क्योंकि उस अज्ञानता के आवरण में सब लुप्त हो जाता है। पर यह बहुत बहुत कृपा है कि इतना सब इस स्थिति में चिन्तन कर पाए । और कृपा तो गुरूमहाराज के अथाह प्रेम का प्रतीक है । सो इसका मतलब वे अभी भी इतना प्रेम कर रहे हैं कि यह सब सोचने की क्षमता बक्शी । 
यदि लग रहा है कि यह अपराध क्षमा योग्य नहीं है तो अपराध के फल सह लीजिए । चुप करके राम नाम लेकर ।।गुरूजन तो सब जानते हैं । और वे तो उस माँ के समान हैं जिसे कितना भी अपमान अपने बच्चे से सहना पड़े फिर भी उसके भले की सोचती है। 
I think I was a good sadhak. My thoughts were good. But I have and had lots of complexes. It was not there before but now it escalated. And because of that I because jealous. Because of inferiority complex and jealousy I even doubted my Master and accused Him of being partial. I have really been blessed. They made me do strange things. But I never laid importance on them. My intellect is not working now. I feel I am all alone. I am hating myself . I am not worthy of forgiveness. How can I show my face to Them? 

Pujya Maharajshri says that scriptures have said that there are certain negative acts that cannot be pardoned. Because of it the lack of faith , lack of surrender come up in, even if these were not there before. 
Ignorance , Param Pujya Shri Swamiji Maharajshri has said is the main cause of sin. Those who become the medium of their Masters they become so because they already have the required qualities. So low complexes and jealousy are al false. When They have already accepted and making one do Their work that means they have already seen and then given . 
This is very true that intellect gets clouded. As because of ignorance everything gets lost. But this is immense Grace that in spite of everything you were able to contemplate. And Grace is a sign of Master’s immense love. Do that means He is still loving you that you could think.,
If You feel that this sin should not be pardoned and you are not worthy then suffer its consequences in humility. Be quiet with Ram Naam. Masters know everything. And They are like that Mother who even though suffers great humiliation in the hands of her children but still thinks well of them. 
All at Their Lotus feet. 

संत व गुरू का महत्व 

Jan 5, 2016 

परम पूज्य परम सुहृद श्री महाराजश्री के मुखारविंद से 
संत व गुरू का महात्म्य 
गुरू या संत संसारिक सुख का मार्गदर्शक नहीं होता । यदि अभी तक साधक को यह स्पष्ट नहीं हो पाया तो इसका अर्थ यह है कि उसने गुरू को वास्तविक रूप से नहीं जाना । गुरु या संत मार्गदर्शक है कल्याण के मार्ग का , उद्धार के मार्ग का , श्रेयस मार्ग जिसे कहा जाता है । 
कोई सच्चा गुरू किसी भी साधक के लिए संसारिक सुख की प्रार्थना नहीं करता । 

उड़िया बाबा, बडे मशहूर संत हुए हैं । उनके पास एक नेता जी आया करते , नौमिनेशन से पहले भी आशीर्वाद लिए, बाद भी , जब प्रचार होता, तब भी आशीर्वाद लेने के लिए आते, इलेक्शन शुरू हो गया है , तब भी आते । इलेक्शन हार गए। जो शिष्य लोग थे उन्होंने प्रश्न किया बाबा से, शुरू से लेकर अंत तक आशीर्वाद लिए आपसे पर फिर भी यह नेता जी हार गए। तो आपके आशीर्वादों पर प्रश्न चिह्न ! 
हम सब भी तो ऐसे ही करते हैं । विवाह के लिए कार्ड भेजते हैं , बधाई पत्र वापिस जाता है, एक वर्ष के अंदर अंदर शादी टूट जाती है तो उलाहना देते हो ! आशीर्वाद लिए थे, इत्यादि इत्यादि । 
शिष्यों ने उड़िया बाबा से प्रश्न किया, आपके आशीर्वादों पर प्रश्न चिह्न । 
बाबा कहते हैं – बंधुओं ! मैंने हार या जीत के लिए आशीर्वाद दिया ही नहीं । मैं संत हूँ । संत किस बात के लिए आशीर्वाद देता है ? परमात्मा जिसमें इसका हित हो इसे वह दो । जिसमें इसका कल्याण हो वह हो । यह संताई है । 

यह गुरूत्व है । 

आज इस बात को पल्ले बाँधो कि गुरू के प्रति गुरू भाव बनते ही आपको कुछ उससे माँगने की आवश्यकता नहीं पड़ती । आपकी श्रद्धा के कारण वह लेने वाली चैनल अपने आप खुल जाती है । आपको गुरू के द्वार से आशीर्वाद खोलने की आवश्यकता नहीं होती , आपको केवल अपने द्वार खोलने होते हैं । 
पानी पाइप में चल रहा है । आप अपनी टूटी खोलोगे तो पानी बाहर आएगा । पाइप में तो पानी आ ही रहा है । 

संत के सामने संसारी माँगे रखना , यह उसकी संताई का दुरुपयोग है । संसारी सुख में निवृत्ति तो लोभ हुआ । 

महादुख संसार से दूर नहीं होते । इसके लिए संत या गुरू की आवश्यकता होती है ।इसके लिए गुरू या संत को प्रयोग करना चाहिए । अखण्ड सुख, शाश्वत सुख जिसे कहा जाता है, वह परमात्मा के पास ही मिलता है । पर मिलेगा गुरू या संत के माध्यम से । 

शास्त्र कहते हैं । परमात्मा है हर एक चीज का दाता, पर मिलेगा संत व गुरू के माध्यम से । यह उसका विधान है । 

जिस काम के लिए गुरू या संत है, समझदार शिष्य वही होता है जो उसे जिस काम के लिए है, उस काम के लिए प्रयोग करता है। संसारिक सुख के लिए संत या गुरू नहीं है ।

संत कहता है कुछ पाना है संसार के पास जाओ। सब कुछ त्यागना है तो मेरे पास आओ । यह संसार नहीं कर सकेगा । जो संत करता है , गुरू करता है, उसके बिना ,कल्याण हो जाए , यह सम्भव नहीं है। 
शास्त्र कहता है जब तक संसारिक सुख की चाह बनी रहेगी , आपको संसार तो मिल जाएगा लेकिन परम शान्ति नहीं मिलेगी । गुरू या संत इस चाह को मिटाता है । जो युक्तियाँ गुरू या संत बताता है वह न देशी विदेशी न मार्केट से मिलती है। यह असंसारी बातें हैं । इस लिए संत या गुरू संसारी सुख के लिए नहीं अविनाशी शाश्वत सीख के लिए है।

The real Satsang 

Jan 3, 2017


Most revered Salutations to You O my Gurujans. Param Pujya Shri Swamiji Maharajshri teaches that Lord says, Arjuna, in this state of attachment you are merely talking about logic that comes from the mere intellect! Jnani do not mourn for the living of the dead. 

Gurujans teach that when we think from the mind, our thinking and vision is very narrow. We talk of mere bookish language and we think too according to limited past experiences or actions. 

They say, if we look from the eyes of the Soul, if we raise ourselves up and then look, that outlook, that vision is way different as compared to the one that is limited to the intellect. 

The vision of the Soul is limitless, it is as vast as the whole cosmos, so say the saints. The attachments from that angle make no sense as from that level there is nobody other than Ram. And from that level, experienced realized Souls say that one sees all the happenings of day to day life as mere Divine play. But because we do not have that limitless vision, as our mind is not always one with our Soul, we see differentiation, we see attachments, and because Ego has a major role to play, if we are not in soul content, then all attributes of Ego come up! 

Saints say, that we need to turn our mind repeatedly back to our Soul. That’s the real Satsang! Pujya Gurudev once said to a sadhak ” always be in Satsang ” . The sadhak contemplated for so many years that how can one be in Satsang always. One cannot do the outside Satsang always and always have closed eyes!! Over the years Maharajshri made the sadhak understand the Satsang is within! Always remain in the Divine connect. That’s the real Satsang. And that’s real sadhna too!! Taking our mind repeatedly back to its Source. Making it connect back to the Soul is the real sadhna! 

May we all be blessed with our attachment with the real Satsang ! May our attachments with the transitory world reduce and we dive more inwards even during our chores, responsibilities etc. 

All at Your Lotus feet. 

भय व सतत स्मरण 

Jan 3, 2017


परम पूज्य परम श्रेध्य गुरूजनों के श्री चरणों में नत् शिर वंदना । 

भय एक ऐसी सार्वभौमिक चीज है कि हर जीव का इससे सामना अवश्य होता है। हम मानवों को भी अनेक प्रकार के भय हर रोज सताते हैं। किसी को रोगी होने मृत्यु का भय , किसी को अकेले रह जाने का भय, किसी को प्रियजनों के विछोह का भय, इत्यादि, इत्यादि । यह संसारी व साधकों में एक समान पाए जाते हैं। साधकों में एक और श्रेणी का भी भय होता है, बुरे कर्म न हो जाएँ, साधना से गिर न जाएँ , अहम् न आ जाए, जन्म विफल न हो जाए, इत्यादि, इत्यादि । 

एक साधक को भी ऐसे ही एक भय ने जकड़ लिया ।कुछ दिन पहले यूँही पूज्य महाराजश्री का उन्होंने प्रवचन सुनना आरम्भ किया और वे अहम् व मद पर समझा रहे थे। क्योंकि साधक जी का भय अहम् से था तो उनके मन ने प्रतिक्रिया की और सब सुन्न हो गया । मन ही मन चिन्तन करने लगे कि अहम् आ गया क्या ? 

अपने रोज़मर्रा के पाठ में जब वे बैठे तो उन्हें लगा कि वे दो हैं । एक शान्त बैठा है अचल और एक जिसमें उथल पुथल मची है वह अपने से भिन्न दिखाई दिया। उन्हें अपने गुरूजनों के वचन स्मरण हो आए कि आत्मा अहम् से लिप्त नहीं है !! पर मन में आया कि अहम् की परछाई तक न पड़े इसके लिए क्या हो ? तो उन्हें अपने गुरू के शब्द सुनाई पड़े कि गुरूमुखी रहो !! 

यदि हर समय हम अपने मन को गुरूमुखी रखें , राममुखी रखें तो यह भय व उनकी परछाई छँट जाती हैं। हर पल गुरूमुखी होना ही तो सतत सिमरन है । सतत सिमरन में तो कोई नकारात्मक विचार आ ही नहीं सकता ! पर यदि किसी पल पूर्व संस्कारों या कमज़ोर मन के कारण मन में आ भी जाए तो गुरूमुखी होने से साधक  चिन्तन चिन्तन करता है और चिन्ता करने वाला समक्ष खड़ा हो जाता है ! भय मुक्त हो जाता है यह देखकर कि मेरा सांई मेरे पास ही है ! 

रााााााााओऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽम 

श्री श्री चरणों में 

परमेश्वर जानते हैं कब किसे क्या देना है 

Jan 2, 2017


परम पूज्य परम श्रेध्य डॉ विश्वामित्र जी महाराजश्री कह रहे हैं कि परमेश्वर जानता है उसे कब किसे क्या देना है। पर क्योंकि वह हमें उसी समय नहीं मिलता तो हम उदास, निराश हो जाते हैं। 

पूज्य महाराजश्री हमें परमेश्वर पर सम्पूर्ण रूप से विश्वास करने को बार बार कह रहे हैं। जीवन सुंदर व आलौकिक बन जाता है जब हम उन पर विश्वास करते हैं और उनके हस्ताक्षर हर जगह दिखने लगते हैं। तो जादुई राम रोज मर्रा की कहानी बन जाते हैं। किसी एक विशेष पल की नहीं या किसी विशेष दिन की नहीं , ऐसा गुरूजन कहते हैं। 

एक साधक ने बताया कि उनकी आखिरी में भजन गाने की बारी लगाई हुई थी । वे गुरूजन से ही पूछते कि वे क्या गाएँगे व क्या गँवाएँगे । तो श्रीरामशरणम जाते हुए मन ही मन पूछ रहे थे कि क्या गँवाएँगे प्रभु। नए साल का सत्संग था। तो वे राम रस बरसे ओ री गुन गुनाना आरम्भ कर दिया । गुन गिनाते .. साथ ही धुन निकली ” राम रस बरसे प्रेम रस बरसे” जो उन्होंने पहले सुनी न थी । सत्संग में जब बारी आई तो समय देखा तो वह भजन का समय था धुन तो छोटी। तो वे बोले प्रभु अब आप गाइए!! जब उन्होंने गाना आरम्भ किया तो नए शब्दों के साथ नए स्वर निकलने आरम्भ हो गए । भजन ही मानो बन गया ! बहुत रौनक़ लगी। मानो गुरूजन ने शब्द व स्वरों में आकर के आपना दिव्य साक्षात्कार दिया !! आलौकिक !!! 

वे कब क्या झोली में डाल दें हम नहीं जानते ! पर वे हर पल कृपा ही करते हैं । हर पल। चाहे हमें समझ आए या न आए। वे हर पल हर परिस्थिति में कृपा करते हैं। गड़बड़ तब होती है जब हम उनकी कृपाओं को नकारात्मक मानते हैं, या अपनी बुद्धि लगानी आरम्भ कर देते हैं, जो कि ज्यादातर हम नालायक करते रहते हैं।

 जब हमें कुछ समझ नहीं आ रहा होता तो गुरूजन कहते हैं कि तब भी कृपा ही बरस रही होती है। इसमें कृपा का क्या दोष कि हमारी सीमित दृष्टि उसे ठीक ढंग से देख नहीं पा रही !!

चाहे तीव्र गति से प्रेम का उमडाव है,चाहे अविरल प्रेमाश्रु बहते जा रहे हैं, चाहे जीवन अंधकारमय है पर राम नाम बंद नही हुआ, चाहे बाहर कितनी वेदनाएँ हैं पर राम नाम का जाप चल रहा है,यह सब अनन्त कृपाएँ हैं। हमें इन्हें रोकने, कम करने, शान्त करने की प्रार्थना नहीं करनी, बल्कि अपनी दृष्टि की नज़र उसकी कृपा पर करनी है! पूज्य गुरूदेव ने सिखाया है कि कुछ छोड़ने की बुहार नहीं लगानी अपितु अपनाने का दृष्टिकोण करना है । विपत्तियाँ बंद हो जाएँ नहीं बल्कि वे पल राम नाम से पूर्ण रूप से भर जाएँ ! नाम न बिसरे , नाम न बिसरे !

तू संग में था नित मेरे, ये नैना देख न पाए, चंचल माया के रंग में , यह नयन रहे उलझाए, हे नाथ मेरे सिर ऊपर तूने अमृत रस बरसाया

श्री श्री चरणों में 

Gurujans teach us how not to ” give up” 

Jan 2, 2017


Param Pujya Shri Shri Swamiji Maharajshri today talks about the feeble mental state of Arjuna, who refuses to carry out his responsibilities as he is under the huge influence of attachment for his loved ones. 

Refusing to carry out righteous behavior when the outside world is against you, refusing to carry out the responsibilities when on the inside something is pushing hard, are all the same signs what Arjuna is going through.

Arjuna was cured in one session of Gita ji but Gurujans have to do laborious work with sadhaks who are already of weak temperament to make them stand bold and work fearlessly. It takes a lot of perseverance on part of the Guru to keep the sadhak going normal amidst the turmoil that rages inside to pull the sadhak low. 

But Gurujans never let go of the neck they once hold. The sadhak faces those conditions that make him “run away” again and again, or want to ” give up”  till he accepts Him as the doer and face it!! If he is fighting for something righteous, Gurujans keep him strong, but teach him a variety of methods to deal with the situations!! Sometimes saying, sometimes pleading, sometimes quietly modeling the conduct and sometimes to go silent!! But in order to do all this, the disciple fails so many times and wants to give up seeing the shame of failures again and again. But They do not know what give up is !! They know only to embrace!! They make the sadhak get up again, provide him with Their own energy to move on with Their assigned work!! And that’s what the disciple does! Gets up again and again, after repeated falls to keep moving! 

It’s the mind that pulls us down. If the mind is one with the Soul then no doubts, no failures ,no giving up ever comes up! As the Soul is Love. Soul has the power of the Divine!It has immense energy!  It can never fail or go weak!! It’s the mind thatcreates  all the trouble and Gurujans work hard such that the disciple learns to break the barriers of the mind or dissolve it! 

We are blessed to have been gifted with RAM Naam, the Mahamantra, the Tarak Mantra, which has the capacity to merge our mind in our Soul. That’s complete surrender. And that’s the real Salutation to our Master, so say the saints. 

All at Your Lotus feet.