स्वामीजी महाराजश्री और आदर्श भक्त 

स्वामीजी महाराजश्री और आदर्श भक्त 

भक्त के चिन्हों का मनन करना चाहिये । भक्त में तो निरालापन होना चाहिए । जो मायावी संसार में ही रहा , वह तो भक्त नहीं रहा । गीता में सब बातें वे कहीं गई हैं जो व्यवहारिक हैं अर्थात् वास्तविक जीवन में जिन्हें कार्यान्वित किया जा सके। यदि इन्हें याद किया जावे , तो यह संसार में बहुत काम आती हैं । 
भगवान कहते हैं कि जो जन सब प्राणियों के प्रति द्वेष रहित है, सब का मित्र है, दयावान है, ममता रहित है, अहंकार वर्जित है, सुख दुख में सम है , क्षमावान है, जो भी स्थिति हो उसमें सुखी रहता है, जिसने जो निश्चय किया उस पर दृढ़ और डावाँडोल नहीं होता , सदा संतुष्ट रहता है , तथा अपने आत्मा को वश में करने वाला है – ऐसा भक्त मुझे प्यारा है। 
जिससे लोग अशान्त नहीं होते, और जो स्वयं भी किसी से व्याकुल नहीं होता , जिसे वस्तुओं की प्राप्ति से हर्ष न हो,जो किसी की बढती देखकर कुडे न , जिसे अभाव का भय न हो , वह भक्त मुझे प्यारा है। 
भगवान को वीर धीर प्यारे होते हैं, न कि मोही छला। भक्त स्वयं के लिए किसी अन्य से सहायता की अपेक्षा न रखे । केवल राम के सहारे पर रहे । 
भक्ति पवित्र रहने वाला हो । मेल – जोल का , मन का पवित्र हो । जितनी पवित्रता मन व धन की है, उतनी मल कर नहाने की नहीं । 
जो दल- बंदी में नहीं आता, शत्रु और मित्र से भी अलग है, जिसको मन की पीड़ा नहीं । जिसको मन की पीड़ा नहीं । 
यह सत्संग साधारण सत्संगों के समान नहीं । आये, उपदेश सुने और चल दिये । यहाँ आकर जीवन बनाना चाहिए । 
प्रवचन पीयूष 

218- 219

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