Monthly Archives: October 2017

मैं की आहुति 

Nov 1, 2017

आज का सुविचार 
गुरूजनों के आशीर्वाद से आज से हम स्वयं को धूलि के कण से भी छोटा बनें, ऐसी प्रार्थना से यह सीख आरम्भ करते हैं । 
साधना के कुण्ड में ” मैं” की आहुति । मैं पुरूष हूँ , मैं स्त्री हूँ , मैं साधक हूँ , मैं सेवक हूँ, मैं मां हूँ , मैं पिता हूँ , मैं बेटा हूँ , मैं बेटी हूँ , मैं पत्नि हूँ , मैं पति हूँ, मैं नाना दादा हूँ , मेरा कारोबार है, मेरा कारोबार नहीं है, मैं प्रबंधक हुँ , मैं गुरू का प्यारा हूँ , मैं ग़रीब हूँ, मैं अमीर हूँ ….. 
मैं देह नहीं हूँ , मैं मन नहीं हूँ , मैं बुद्धि नहीं हूँ ! इन मैं की आहुति । 
अब बिना मैं के कैसे संसार में व्यवहार करें? इस बिना मैं के हम क्या बन गए ? 
बिना मैं के हम प्रेम बन गए !!!
अब हम संसार में जहां भी जाएंगे जहां खड़े होंगे वहाँ प्रेम होगा ! जहां देखेंगे वहाँ प्रेम बहेगा । जिसे देखेंगे वहाँ प्रेम जाएगा । जहां प्रेम से मुस्कुरा देंगे वहाँ भी मुस्कुराहट आ जाएगी ! 
आज हम धूलि के कण से भी छोटा बनने के लिए, अपनी मैं की आहुति परमेश्वर व गुरू चरणों में देते हैं ! ताकि हम प्रेम बन जाएँ । प्रेम तो देना जानता है। प्रेम तो सब न्योछावर कर देता है ! प्रेम ही तो फैलाना है उदास चेहरों पर , प्रेम ही तो देना है अशान्त हृदयों को, प्रेम ही तो देना है उन आँसुओं के बदले ! प्रेम के विभिन्न नाम हैं – रााााओऽऽऽऽऽ, गुरूतत्व, परमेश्वर, शक्ति, मांंंंंंंंंंंं
जो छोटा हो गया उसे राम मिल गए ! 
तू झुक के चलेया कर कि झुकेया नूं राम मिलदे ! 

  

FAQ- आकर्षण व प्रेम 

Oct 31, 2017


प्रश्न : आकर्षण और प्रेम में क्या अंतर है ? 
आकर्षण इंद्रिय संबंधी होता है । एक मानव का दूसरे मानव के साथ , देह का ही आकर्षण प्रमुख होता है । मन मिलने का भी आकर्षण होता है । एक तरह की सोच यदि मिल जाए तब भी आकर्षण हो जाता है । 
किन्तु प्रेम संतगण कहते हैं कि प्रेम जब भी होगा परमेश्वर से ही होगा । पूज्यश्री महाराजश्री कहते हैं कि प्रेम की जब भी बात होगी वह दिव्य प्रेम की ही बात होगी । बाकि सब काम वासना जिसे lust कहते हैं । चाहे वह पति पत्नी के बीच है , प्रेमी प्रेमिका के बीच । और यहाँ स्वार्थ आ जाता है । 
प्रेम जहां निस्वार्थ हो , बिना किसी कारण के हो, जहां केवल देना ही देना हो , कोई अपेक्षा न हो वह प्रेम दिव्य हो जाता है। और यह संतों के पास ही केवल पाया जाता है । 
एक साधक को यदि अपने सुघड़ गुरू के प्रति आकर्षण हो जाए । हो जाता है.. सुना है ऐसा ….परमेश्वर ने इतना लपा लप दिया होता है तो वहाँ कृपा बरस जाती है । क्यों ? क्योंकि वह संत देह संबंधित मन के बीज को भून डालता है । वहाँ कामना से उपासना तक ले जाया जाता है । गुरू अपने साधक की हर इच्छा पूरी करने के लिए बहुत बहुत अद्भुत लीलाएँ भी खेलते हैं जिससे शिष्य को देह से स्वयं ही वैराग्य आ जाए और वह उसके पार जा सके ! 
सो देह के आकर्षण में स्वार्थ है, भय है, अपेक्षा है व पीडा है व किसी विशेष के प्रति है। किन्तु दिव्य प्रेम ठण्डक लेकर आता है ।सब के प्रति होता है,मानव , प्रकृति , सब के लिए एक जैसा, यहाँ किसी के लिए भी आदमी कुछ भी दे सकता है । यहाँ मैं की प्रधानता नहीं होती । मैं होता ही नहीं । बस देना केवल देना ! यह व्यक्ति विशेष के लिए नहीं होता ! दिव्य प्रेम में दूसरे व्यक्ति की आवश्यकता भी नहीं होती । 
शुभ व मंगल कामनाएं 
 

FAQ- देह की आकर्षण की प्रार्थना क्या उचित है? 

Oct 31, 2017


प्रश्न : क्या इस तरह की सांसारिक कामना, वो भी शारीरिक आकर्षण, वाली प्रार्थनाये इस अति पावन ग्रुप पर डालना ये उचित है क्या जी।मैं सोचने का प्रयास कर रहा हूँ कि आज अगर महाराज श्री जा भौतिक शरीर रुप में हमारे सामने होते तो क्या हम ये प्रार्थना लेकर उनके सामने जा सकते थे।

और अगर जाने की हिम्मत कर भी लेते तो महाराज श्री जी क्या जवाब देते।
कामना चाहे शरीर के रोग ठीक करने की हो या मानसिक, बहुत पीड़ा देती है । और यदि यह आकर्षण की है तो और भी ज्यादा । युवा बच्चे क्या करें ! कभी आत्महत्या का मन करता है, रात भर रोते रहते हैं, पढने को मन नहीं करता, माता पिता समझेंगे नहीं, तो गुरूजनों के पास अपना दर्द न कहें तो क्या करें। नहीं पता चलता कि क्या करें । मन पर अंकुश नहीं लगता। यह आँधी बहुत तेज़ व गहन होती है । और कई बार शारीरिक कष्ट से भी गहन । और इसका उपचार तिरस्कार नहीं प्रेम है, उन्हें सुनना है । 
पावन ग्रुप में लाई गई । क्योंकि पीडा है वहाँ । साधक पीडा महसूस करता है तभी प्रार्थना करता है । कैंसर आदी की भी वेदना है पर इन आकर्षणों की भी बहुत तीव्र वेदना होती है जो अंदर खाती जाती है। 
पूज्यश्री महाराजश्री ने अपने प्रवचनों में सब कहा है । उनके श्रीमुख से – बच्चे उन्हें सब लिख कर बताते हैं कि जब वे घर पर अकेले होते हैं तो कितने नरक में चले जाते हैं । 

कई बार लोग साक्षात भी ऐसी बातें कर देते तो वे जरूर कहते कि लोग लाज भी नहीं करते कि संत से कैसी बातें करनी है शायद उनकी दाड़ी होती साधुओं की तरह तो शायद लोग न ऐसी बातें करते । 
पर हम तो साधकगण गृहस्थ हैं। और समझते हैं कि बच्चों पर क्या बीत रही होगी ! समय बदल रहा है और आगे भी बदलेगा । हमें खुले विचारों का होना है और हर तरह की समस्या से जूझ रही आत्माओ को अपनाना है ! जैसे गुरूजन हमें अपनाते हैं । 
कल किसी पुरूष को पुरूष से व महिला को महिला से आकर्षण की प्रार्थना आ सकती है ! क्या हम नहीं अपनाएँगे ? क्या हम प्रार्थना नहीं करेंगे कि हम सब देह के पार देख सकें ? हम सब को अपनाएँगे ! मैं तो करूँगी .. मैं तो अपनाऊँगी सब को ! और अपने गुरूजनों के श्रीचरणों आगे सब की पीडा अर्पित करूँगी । 
और एक साधक तो पीडा महसूस करता है ! कहां से उठ रही है कैसे आरोग्यता पहुँचानी है यह गुरूजनों के कार्य है। 
सर्व श्री श्री चरणों में

FAQ – गिनती का जाप व अजपा जाप

Oct 31, 2017


प्रश्न : जब हमने संकल्प लिया होता है तो हम नियमित गिनती का जप करते हैं , २०,०००/ ३०,००० तो अपने आप जाप आरम्भ हो जाता है । उसे तो हम गिनती में नहीं करते न कि महाराज स्वयं गिन लेंगे । 
परम पूज्य श्री महाराजश्री कहते हैं कि जाप का प्रसाद और जाप । जाप इतना कि वह ध्यान में परिवर्तित हो जाए । ध्यान इतना कि हम सारा दिन खुली आँख से ध्यानस्थ रह सकें । 
पर महाराजश्री कहते हैं कि जो नियत गिनती का करना है वह करके , एक अलग छोटी माला पर प्रेम से जैसे हो सके .. भीतर से जैसे निकले वैसे राम को याद करिए । चलने दीजिए जैसे चलता है । उसमें खो जाइए ! जितना खो सकते है । 

PM- Ignore none …

Oct 31, 2016


किसी को अनदेखा न कीजिए जो भी आपके जीवन में आए हैं, क्योंकि सम्मान से प्यार मिलता है और प्यार भीतर की ख़ुशियों का आश्वासन देता है । 
चलिए परिवार से आरम्भ करते हैं अपनी यात्रा । माता पिता , भाई बहन, पति पत्नी व बच्चे ! हर के लिए समय निकालना व हर को सम्मान देना हमारी संस्कृति है। यहाँ हम केवल यह देख रहे हैं कि हमने क्या करना है। दूसरा क्या करता है, यदि हम यह सब करते हैं वह नहीं !! 
दूसरों की अपेक्षाओं की पूर्ति हम कभी नहीं कर पाएगें । यह हमें सदा स्मरण रखना चाहिए ! यदि माता पिता की अपेक्षाओं पर नहीं खरे उतर रहे, यदि सास ससुर की अपेक्षाओं पर नहीं उतर पा रहे यदि पति सा पत्नी की अपेक्षाओं को चाह कर भी पूर्ण नहीं कर पा रहे तो दुखी नहीं होना । वह उनकी अपेक्षाएं हैं। और अपेक्षाएं हमेशा दुख ही लाती हैं ! हमें अपने व्यवहार पर ही नज़र रखनी है । 
सो स्वयं को देखना है कि हम प्यार व सम्मान दे रहे हैं न ! 
फिर आते हैं अन्य बुजुरग , पड़ोसी, मित्रगण, सहकर्मचारी, अन्य कर्मचारी जैसे सफाई, चौकीदार, गार्ड, घर व दुकान में काम करने वाले कर्मचारी । वहाँ भी स्वयं को ही देखना है कि हम ठीक व्यवहार मन वचन व कर्म से दूसरे को सम्मान दे रहे हैं न । 
चलिए अब सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति की ओर बढ़ते हैं जिनकी बातें जिनकी शिक्षाएँ कभी नज़रअंदाज़ नहीं करनी चाहिए । हमारे गुरूजन ! हर पल कृतज्ञ ! हर पल नतशिरवंदन ! जो यह सब सिखाते हैं !! अब इनके जीवन में आने से जो भी जीवन में आता है , इन्हीं की अनुमति से आता है ! सो हर उस प्राणी , व्यक्ति का हृदय से धन्यवाद ! चाहे पीड़ा मिले चाहे प्यार, चाहे तिरस्कार मिला चाहे आदर , सब गुरूजन की आज्ञा से ! सब प्रसाद ! 😇🙏🙏💕
गुरूजन के जीवन में आने के पश्चात, सीखना बंद नहीं होता। उनकी शिक्षा चलती जाती है चाहे वे देह में हों या न , वे सिखाते जाते हैं। सो उन सब दिव्य आत्माओं का धन्यवाद , जो जीवन में आए और प्रेम व शिक्षाओं से आत्मा का उत्थान करते जाते हैं। 🙏😇💕
जीवन में कई बार ऐसे लोग भी आते हैं जिनको ज्ञान , प्यार व सहारे की पिपासा हो। उन सब का भी हृदय से धन्यवाद, जो ज्ञान प्रेम की वृद्धि करवाने के सुअवसर प्रदान करते हैं। ज्ञान व प्रेम बाँटने से बढता है। 🙏😊
और यदि किसी को पेड़ पौधों, पक्षियों व जानवरों से प्रेम है तो उनका भी धन्यवाद, क्योंकि वे तो केवल प्रेम देना ही जानते हैं !!! 😇
आज की सीख 😇
जो जो इस लेख को आज व अन्य लेखों को पढते हैं, उन सब का हृदय से धन्यवाद। आप सभी के श्री चरणों में शत शत नमन । आप सभी को मेरे गुरूदेव ही भेजते हैं यहाँ व अन्य जगह । उनके प्यारों को ढेर सारा प्यार व वंदना । 

हम एक दूसरे को जानते भी नहीं पर फिर भी गुरूजन ने शब्दों द्वारा जोड रखा है । उनकी लीला शिरोधार्य !सब पर कृपा बरसे खूब बरसे ! 
श्री श्री चरणों में 🙏

आदर्श साधक क्षमावान होता है 

Oct 31, 2017

आज का सुविचार 
एक आदर्श साधक क्षमावान होता है । वह मन में मन मुटाव नहीं रखता । 
साधक का परम लक्ष्य उसके प्यारे परमेश्वर ही होते हैं । उनके लिए वह जीवन मे आए उन आत्मों को भी क्षमा कर देता है जिन्होंने उसके साथ सही व्यवहार या बुरा किया होता है । या करते जाते हैं । 
वह अपने मानस में केवल अपने परमेश्वर को ही बसाना चाहता है । उसके मानस में उसके गुरू के इलावा किसी को स्थान नहीं वह देना चाहता । अपने रोम रोम को वह अपने गुरु से ही वह भर देना चाहता है । इसलिए हर को क्षमा कर देता है वह । किसी और की स्मृति वह अपने अंतकर्ण में नहीं रखना चाहता! वह अपने प्रभु के आगमन के लिए सब जगह खाली कर देना चाहता है । 
दूसरों को क्षमा कर ,दूसरों के प्रति राग द्वेष निकाल कर वह स्वयं को आरोग्य करता है । उसे पता होता है कि ऐसे लोग जीवन में आते रहेंगे किन्तु जिस तरह राम व गुरूजन सब को अपनाते हैं वैसे ही वह अपनाता है । उसे यह सब कार्य करने की शक्ति उसके गुरूजन देते हैं। उसकी ऐसी सोच बनाने के ज़िम्मेदार उसके गुरूजन ही होते हैं । सब में दिव्यता देखना ऐसी नज़र उसे गुरू कृपा से ही मिलती है । 
अपनी मैं को पीछे रखकर अपने गुरू की आज्ञा मान कर सब को क्षमा करते जाने का बल अपने गुरू के श्री चरणों से वह प्राप्त करता है । एक साधक का सब कुछ , उसका तन, मन व आत्मा अपने गुरू के अर्पण कर वह जीवन व्यतीत करता है। 
गुरू महिमा गुरू महिमा अपार महिमा गुरू महिमा 

PM- life is a long journey…

Oct 30, 2017


जीवन एक लम्बी यात्रा है और उसके विभिन्न रंग हैं। खुश रहने के लिए हर रंग को सहराहिये ।
एक साधारण मनुष्य के लिए यह कठिन होता है। कई विरले होते हैं जिनकी सोच अलग होती है पर ज्यादातर या तो पश्ता रहे होते हैं या उन पलों की याद में उदास होते हैं ! 
पर साधक का नज़रिया अलग होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि उसके जीवन में संतों का आगमन हो गया होता है और उनके आगमन से जीवन के रंगों की चमक भी अलग हो गई होती है ।

 जीवन के ” कष्ट ” गुरूजनों व संतों के चरणों के बहुत निकट हमें कर देते हैं ! कितने वर्ष सास ससुर या पति या बच्चों या कई बार माता पिता की भी विपरीत सोच के कारण असंख्य कष्ट पीड़ाएँ उठानी पड़ती हैं ! पर संतों के आगमन से उन पीड़ाओं का रूप ही बदल जाता है ! किसी ने गलत कहा , यदि न कहा होता, यदि उसकी पीड़ा न हुई होती तो क्या हम वे होते जो आज हैं ? 
यदि आध्यात्मिक नज़र से हम अपने जीवन को देखें तो हर पहलु का हर घटना का कारण रहा होता है। यदि वे घटनाएँ न घटित हुई होतीं तो शायद आज हम जहाँ हैं वहाँ न होते । 
किसी के घर दिवाली के एक दिन पूर्व विपदा आ खड़ी हुई । देखने में लगता है दुख । पर यदि देखें तो कहाँ पार्टियों में , हो सकता है जूए व शराब में दिन गुज़रता । पर कहाँ जाप व प्रार्थनाओं में परिवार वालों के दिन गुज़रे ! नज़रिया है देखने का ! 
घर में प्रियजन बिमार हो गया है । कहाँ चिन्ताओं में दिन गुज़रते , कहाँ परमेश्वर के सतत सिमरन, अनुष्ठानों में दिन गुज़र रहे हैं ! राम नाम के सिवाय कुछ सूझता ही नहीं है !
वर्षों से वकीलों के चक्कर कट रहे हैं , अब भी कट कहे हैं पर राम नाम के संग, गुरूजनों के वचनों के संग ! 
लड़ाई , मार पीट , जान लेना ही जीवन था । पर कहाँ गुरूजनों के सूक्ष्म रूप से नज़र ही नहीं हटती !! 
घर में पति या सास ससुर की सुननी पड़ती पर अब कार्यों से निवृत होते ही राम नाम , जाप व पाठ के लिए मन इंतज़ार करता ! 
आज की सीख 😇
जीवन के कितने विभिन्न रंगों से हम गुज़रते हैं । हर का कारण है ! पर जहाँ राम नाम का आगमन हो गया, जहाँ संतों का स्पर्श मिल गया, उसका हर पल जीने योग्य हो जाता है और हर पल सराहने योग्य हो जाता है , हर पल मिश्री की गोली के स्वाद ही बक्शता है । जीवन जैसे गुज़रता जाता है तो बाकि सब भूल जाता है बस उनकी ही मधुर स्मृतियाँ स्मरण रह जाती हैं। और यह खुश रहने के लिए बहुत है शायद …. यह कृतज्ञ जीवन जीने के लिए तो यक़ीनन पर्याप्त है !
श्री श्री चरणों में

एक आदर्श साधक निस्साधन होता है

Oct 30, 2017

आज का सुविचार 

एक आदर्श साधक निस्साधन होता है । 
परम पूज्यश्री महाराजश्री कहते हैं कि जो साधक जो भक्त निस्साधन होगा वहाँ परमेश्वर स्वयं चल कर आते हैं । 
जिसके पास अपना कुछ नहीं ! न देह उसकी, न मन उसका, न बल उसका उसके पास परमेश्वर स्वयं जाते हैं ! 
पूज्य गुरूदेव कहते हैं कि जो समर्पित होता है उसका मतलब यह नहीं कि वह कुछ नहीं करता । जब बूंद सागर मे समा जाती है तो जैसे सागर हिलौरे लेता है बूँद अब वैसे ही चलती है । जैसे सागर नाचता है बूंद उसी में होकर वैसे ही नाचती है ! 

जो यह भ्रम है कि समर्पित साधक कार्यशील नहीं होता ! बल्कि वह अधिक कार्यशील होता है ! उसे समय का आभास नहीं रहता न ही थकान उसके निकट आती है ! जैसे उसके गुरूजन उसकी देह से कार्य लेते हैं वह सब देता जाता है । उसका अपना मन नहीं होता ! न ही वह प्रश्न करता है। 
वह विकट परिस्थिति में हताश नहीं होता । उसके पास अपना कुछ नहीं रहता ! केवल परमेश्वर के ! परमेश्वर को उसकी हर जरूरत की चिन्ता होती है । उसकी ज़रूरतें पूर्ण करने हेतु वह सब साधन बना देता है ! उसकी चिन्ताएँ नहीं रहती ! यदि होती हैं तो परमेश्वर की वे सब बन जाती है ! कब क्या कहां क्या देना है उसके गुरू बहुत सजग रहते हैं उसके प्रति ! 
पूज्य गुरूदेव कहते हैं कि जो अनन्त साधना से प्राप्त होता है वह एक साधक समर्पण भाव से प्राप्त कर लेता है । पर निस्साधन निस्सहाय होना इतना आसान नहीं । पर यदि एक बार साधक सर्व समर्पण करता है तो उसे परमात्मा साक्षात्कार होता है ! 
एक आदर्श साधक केवल और केवल परमेश्वर के आश्रित होता है ! उसका प्रेम परमात्मा उसका ध्यान परमात्मा उसका खाना पीना सोना मोद मनाना सब अपने प्यारे के साथ । एक पल भी अपने प्यारे से अलग नहीं रह सकता वह ! न ही रहा जाता है उससे ! पूज्य महाराजश्री यहाँ कहते हैं कि यदि साधक ऐसा होता है तो उस प्यारे का भी यही हाल होता है । पर वह बताता नहीं ! और यही उसकी गरिमा है । पर एक साधक को प्रेमी अपना बनाकर वह सब कहते है, अपने राज उसके लिए खोलता है ! 
मैं तेरी तू मेरा राम, मैं तेरी तू मेरा राम 

रविवार सत्संग सारांश – जटायु

Oct 28, 2017


रविवार सत्संग सारांश परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्रजी महाराजश्री के मुखारविंद से 
जटायु व प्रभु श्री राम 
निस्साधन के पास स्वयं चलकर आते हैं प्रभु राम । जटायु ने अपना सब कुछ लुटा दिया माँ सीता की रक्षा के लिए । अब घायल स्थिति में पड़ा है । निस्साधन ! 
माँ सीता ने जो कहा लक्ष्मण जी को मानो प्रभु कह रहे हो, कहो अभी और कहो ! सोचा भी नहीं जा सकता कि वे ऐसी कह सकती है ! सब प्रभु की लीला चल रही है, प्रभु करवा रहे हैं। 
हम सब यहाँ actors हैं । अपना अपना role play कर रहे हैं । जिसने रोल बहुत अच्छा play किया वह प्रभु कृपा का पात्र बन पाएगा । role निभाने हैं ।
जटायु का सर प्रभु ने अपनी गोद में ले लिया है । प्रभु ने प्यार से उसके सिर पर अपना हाथ रखा है । जैसे गुरू शिष्य के रखते हैं, पिता पुत्र के रखते हैं। प्रभु बोले – जो चाहिए जटायु मांग लो । 

जटायु बोला – क्या दे सकते हैं आप प्रभु ? 

यह सुन कर लक्ष्मण जी आग बबूला हो गए! रहा न पक्षी की पक्षी ! जगत के स्वामी है! क्या नहीं दे सकते ! क्या कहा तुमने!!! 

प्रभु ने लक्ष्मण जी को शान्त करवाया और बोले-लक्ष्मण उसका भाव तो समझ जाओ ! लक्ष्मण जी एक दम शान्त । यह है आध्यात्मिकता के चिह्न । एक दम वापिस आ जाना । आप सब यहाँ सत्संग सुन रहे हैं यह धार्मिक होना है। धार्मिक होना भी आवश्यक है । किन्तु धार्मिक के साथ आध्यात्मिक होना भी आवश्यक है। कितनी जल्दी हम वापिस केंद्रित हो जाते है। 

लक्ष्मण बोले – जटायु ! यह तुम्हें कुछ भी दे सकते हैं ! मांग कर तो देखो । 
जटायु बोले – लक्ष्मण लाल जी , जब घर में पुत्र होता है उसके जन्म पर पिता सबको उपहार देते हैं।किन्तु उसको कुछ नहीं मिलता । वह गोद में होता है । किन्तु पिता का सब कुछ बाद में पुत्र को मिलना होता है । सो मैं देखो किसकी गोद मे हूँ । सो जो इनका वह सब मेरा ! 

जो अपना सब कुछ दे दे वह राम ! जो अपने आपको देदे वह राम !

प्रभु राम ने उन्हें वही धाम दिया जो अपने पिता को दिया । पर इन्हें अपने पिता से भी ज्यादा दिया । अपने हाथों से जटायु की अंतेष्ठी की । 
अब थोड़ा पीछे चलते हैं। वहाँ जिसके श्रवण मात्र से कृपा बरसती है । भरत जी । प्रभु राम कहते है भरत ! जो तेरा नाम लेगा उसको इस लोक मे यश व दूसरे लोक में सुख मिलेगा । वह इस लोक में यशस्वी होगा । यशस्वी वह होता है जो आत्मा में स्थित हो जाता है !  

बूटी व गुरूजन 

Oct 29, 2017
बूटी इस बार बहुत बढ चुकी थी । सोचा इस शनिवार अवश्य करूँगी ! उन्हें देखकर अपने गुरूजनों का धन्यवाद किया कि वे निरन्तर कैसे लगे रहतें हैं सफाई करने ! 
सफाई में कभी टहनियों की कटाई की कभी मोटी बूटी जड़ से निकाली और छोटी बूटी हाथ से ! मैं देख रही थी कि मुझसे हर बूटी नहीं निकल पा रही थी ! माली होता तो शायद एक एक साफ हो जाती ! फिर गुरूजनों का धन्यवाद किया कि वे मेरी जैसी सफाई नहीं करते !!! 😀 
घास पर तो बाप रे बहुत ही उग गई थी !! कुछ कुछ की ! खुम्ब भी सूख चुके थे । इस बार उन्हें स्वयं ही जड़ से निकाला … चाहा कि मुक्ति मिल जाए उन्हें !! पर बीज तो वे फिर भी डाल गए होंगे…. पता नहीं ! 
अभी भी काम बाकि है ….. न जाने कब अब बारी आएगी … यह सोच कर फिर गुरूजनों के श्रीचरणों में नतमस्तक हूँ कि वे बेचारे हम सब के लिए सतत लगे रहते हैं …… बिन सोए …अनथक !!! ताकि हम पावन हो सकें … परमानन्द पा सकें ……
ऐसे गुरूजनों के श्रीचरणो में बारम्बार वंदन !