मैं की आहुति 

Nov 1, 2017

आज का सुविचार 
गुरूजनों के आशीर्वाद से आज से हम स्वयं को धूलि के कण से भी छोटा बनें, ऐसी प्रार्थना से यह सीख आरम्भ करते हैं । 
साधना के कुण्ड में ” मैं” की आहुति । मैं पुरूष हूँ , मैं स्त्री हूँ , मैं साधक हूँ , मैं सेवक हूँ, मैं मां हूँ , मैं पिता हूँ , मैं बेटा हूँ , मैं बेटी हूँ , मैं पत्नि हूँ , मैं पति हूँ, मैं नाना दादा हूँ , मेरा कारोबार है, मेरा कारोबार नहीं है, मैं प्रबंधक हुँ , मैं गुरू का प्यारा हूँ , मैं ग़रीब हूँ, मैं अमीर हूँ ….. 
मैं देह नहीं हूँ , मैं मन नहीं हूँ , मैं बुद्धि नहीं हूँ ! इन मैं की आहुति । 
अब बिना मैं के कैसे संसार में व्यवहार करें? इस बिना मैं के हम क्या बन गए ? 
बिना मैं के हम प्रेम बन गए !!!
अब हम संसार में जहां भी जाएंगे जहां खड़े होंगे वहाँ प्रेम होगा ! जहां देखेंगे वहाँ प्रेम बहेगा । जिसे देखेंगे वहाँ प्रेम जाएगा । जहां प्रेम से मुस्कुरा देंगे वहाँ भी मुस्कुराहट आ जाएगी ! 
आज हम धूलि के कण से भी छोटा बनने के लिए, अपनी मैं की आहुति परमेश्वर व गुरू चरणों में देते हैं ! ताकि हम प्रेम बन जाएँ । प्रेम तो देना जानता है। प्रेम तो सब न्योछावर कर देता है ! प्रेम ही तो फैलाना है उदास चेहरों पर , प्रेम ही तो देना है अशान्त हृदयों को, प्रेम ही तो देना है उन आँसुओं के बदले ! प्रेम के विभिन्न नाम हैं – रााााओऽऽऽऽऽ, गुरूतत्व, परमेश्वर, शक्ति, मांंंंंंंंंंंं
जो छोटा हो गया उसे राम मिल गए ! 
तू झुक के चलेया कर कि झुकेया नूं राम मिलदे ! 

  

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