Monthly Archives: November 2017

स्वपन देखिए और उन्हें विकसित कीजिए

Dec 1, 2017

आज का सुविचार

स्वपन देखिए और उन्हें विकसित कीजिए और यदि हम उन सपनों के लिए जीते हैं तो कोई विफलता हमें भयभीत नहीं कर सकती और यदि विफलता बार बार आए तब भी वह हमें हिला नहीं सकती ।

यह पंक्ति मुझे बहुत भा गई ! इसमें इतनी ऊर्जा महसूस होती है कि आज का सुविचार इसे बनाना पड़ा । यह आदरणीय डॉ चैटर्जी ” चिन्तन एक सकारात्मक सृजन” से ली है । ऐसा ही कुछ स्वामी विवेकानन्द जी का भी कुछ मिलता जुलता कभी पढा था ।

विभिन्न तरह के सपने देखते हैं लोग ! कुछ अपने लिए, कुछ दूसरों के लिए ! संतगण भी अपने शिष्यों के लिए सपने देखते हैं । या अपने शिष्यों के गुणों के विश्व भर में विस्तार हो, ऐसे सपने देखते हैं। और कई शिष्य अपने गुरू के सपने को साकार करने हेतु बहुत बहुत कुछ करते हैं। चाहे सफलता एक दम न भी दिखे पर वे हर मौक़े की तालाश में रहते हैं कि अपने गुरू के वचनों को साकार कर सकें । उनमें न भय होता है न भय निकट आकर छू सकता है ! वे केवल उस उद्देश्य के पूर्ण करने हेतु और और सपने देखते हैं!

जो सपना देखें , उसे विकसित व साकार करने के लिए तन मन एक कर दें क्योंकि हमारी सोच में ही भविष्य की नियति लिखी जा रही होती है !

अपने सत्य स्वरूप को पाना है, निच्छल अकारण प्रेम भाव में रहना है

Nov 30, 2017

आज का सुविचार

अपने सत्य स्वरूप को पाना है, निच्छल अकारण प्रेम भाव में रहना है ।

जीवन के किस अवस्था से जानें कि हमारा सत्य स्वरूप क्या है ?

बुढ़ापा ? मध्य आयु, युवा अवस्था , बाल अवस्था, शिशु ?

कौन सी अवस्था दिव्यता के गुण छलकती है ? किस अवस्था को देख कर मन में स्वयमेव प्रेम व मुस्कुराहट उमड़ती है ?

शिशु ! जहां भेद भाव आरम्भ नहीं हुआ ! जहां केवल प्रेम है और गले लगाने का मन करता है चाहे किसी भी रंग रूप का हो किसी भी देश का हो ! जहां बिन वजह मुस्कुराहट रहती है ! जहां नाराज़गी नहीं रहती ! केवल निच्छल प्रेम !

यह ऐसी अवस्था है जहां दूसरे में प्रेममय भाव स्वयमेव उमड़ते हैं ! दूसरे में मुस्कुराहट आती है !

यह है हम ! यदि ऐसे हो जाएँ हम हर अवस्था में , तो जीवन कैसा हो जाए ? जहां जाएँ प्रेम छलकें, जिससे मिलें मुस्कुराहट दूसरों में आ जाए ! जीवन जैसा है उसे वैसे स्वीकार करते हुए हृदय सदा प्रेम से प्रफुल्लित रहे !

कैसे बने ऐसे? क्या रोकता है हमें ऐसा बनने में ? हमारी बुद्धि जो अहम् से युक्त है ! अहम् से युक्त बुद्धि भय लाती है, चिन्ता लाती है, द्वेष लाती है, मेरा पन लाती है, तू भिन्न मैं भिन्न का भेद भाव लाती है !!

सो कैसे बनें अपने सत्य स्वरूप जैसे ? राम नाम को प्रत्यक्ष रूप व्यवहारिक रूप में ला कर ! कैसे लाए राम नाम को व्यवहारिक रूप में ? स्वयं को अपना कर! जैसे हैं वैसा स्वयं से प्रेम करके! स्वयं को क्षमा करके! अपनी सोच को स्वीकृति के भाव में ढाल कर ! तभी स्वयं में व सब में राम को पा पाएँगे ! तभी जो स्वयं से अकारण प्रेम करते हैं वही दूसरे से कर पाएँगे ! तभी रंग रूप के भेद भाव मिटा कर प्रेम विस्तृत कर पाएँगे !

सो , रहें हम प्रेम भाव में, प्रसन्नता के भाव में, यदि कालिमा आए तो उसे स्वीकार करके, भीतर जो हम असली में हैं वह बाहर ले आएं !

इसका अभ्यास ध्यान में करें, चलते फिरते करें , तो इन्हीं भावों हर पल अंगीकार कर पाएँगे !

स्व प्रेम व आरोग्यता

Nov 29, 2017

आज का सुविचार

स्वयं से अकारण प्यार करके हम आरोग्यता प्राप्त कर सकते हैं

आज कृपा स्वरूप यह विचार आया कि क्या हम अकारण प्रेम से किसी को नीरोग कर सकते हैं । इस विचार की प्रतिक्रिया सकारात्मक मिली !!! प्रेम में ही प्रार्थना होती हैं। और किसी के साथ बहुत आत्मीय संबंध हो तो प्रार्थना और भी प्रेम व भाव पूर्ण निकलती है ।

पर क्या स्वयं से अकारण प्रेम करके हम आरोग्यता प्राप्त कर सकते हैं ? कर सकते हैं !

विदेश में एक आध्यात्मिक आरोग्य साधक हुई । काफ़ी वर्ष पूर्व वे आध्यात्म का जब प्रचार करती थी तो उन्हें कैंसर हो गया । उन्होंने अपने डॉक्टरों से कहा कि मुझे केवल ६ महायीने दे दो । मैं कुछ प्रयोग करना चाहती हूँ । छ महीने में उन्होंने अपने विचारों पर बहुत झ्यान दिया और भोजन पर। वे स्वयं को कैंसर से मुक्त कर पाई । केवल शारीरिक रोग ही नहीं मानसिक वेदनाओं से भी वे स्वयं को मुक्त कर पाई । वे नब्बे वर्ष की आयु में गईं !

इसी तरह पूज्य स्वामीजी महाराजश्री भी हमें मानसिक रोगों की आध्यात्मिक चिकित्सा के बारे में सिखाते हैं । मानसिक क्यों ? क्योकि मानसिक सोच से ही शारीरिक रोग आते हैं , ऐसा पूज्यश्री महाराजश्री ने भी अपने श्रीमुख से कहा है !

जब यह जानेंगे कि हम भीतर से क्या हैं , जब स्वयं से अकारण प्रेम करना आरम्भ होंगे तो न केवल स्वयं आरोग्य होंगे बल्कि दूसरों को भी आरोग्य करने में सहायक होंगे !

करते हैं हम अपने से प्रेम करना । अपने प्रति कोमल स्वभाव रखना !

यही सोच कि गुरूजन हमसे नाराज हैं कितना खा जाती है । क्यों हम सोचते हैं कि वे नाराज हैं ? वे प्रेम के सिवाय क्या करते हैं ! हर पल कितने दर्द के साथ ध्यान रखते हैं ! पर देखिए हम केवल ऐसा सोचने से स्वयं की नसों पर कितना भार डाल देते हैं कि शरीर पर असर तो होकर ही रहेगा ! साधना में भी हम बहुत तनाव ले लेते हैं !

सो अपने से प्यार करना है हमें । हम उनके अंश हैं व उन जैसे हैं ! ऐसी यात्रा आरम्भ करनी है !

जैसे भी हैं, अपने से अकारण प्यार करें

Nov 28, 2017

आज का सुविचार

जैसे भी हैं , अच्छे या बुरे अपने से प्यार करें

जिन्हें अपने कुकर्म दिखते हैं या मन के नकारात्मक भाव हर पल दिखते हैं वहाँ यह सम्भव होना कितना मुश्किल है !

देखिए, अपने से प्यार करना ही हमारे लिए कितना कठिन है, तो दूसरों के लिए अकारण प्यार कैसे निकले?

हमारा हृदय कुछ चाहता है पर हमारा मन जग भोगों में ग्रस्त है, कितनी खीचातानी होती होगी ! आत्मा कुछ माँगती है पर मन बस में नहीं, क्या करे साधक ! समर्पित हो जाता है कि सब आँधी तुफान से गुरूजन स्वयं ही निकालेंगे ! इंतजार करता है !

इस इंतजार में भी , इन मन की भोगों की आँधी में भी स्वयं से अकारण प्रेम करना है । क्यों ? क्यों हम यह सब नहीं है ।

हम वे विचार नहीं हैं जो हमें परेशान करते हैं। हम वे भाव नहीं हैं जिन्हें जो भीतर उपजते हैं, हम वे संस्कार भी नहीं हैं जो कई जन्मोँ से पीछा नहीं छोड़ रहे ! हम यह सब नहीं हैं ।

हम तो कुछ और ही हैं ! हम तो निच्छल प्रेम हैं जो भीतर दहाड़े मार रहा है निकलने के लिए। हम तो दिव्यता का अंश हैं जो पूर्ण पवित्र है !

गलत जगह नहीं हृदय लगाना ! सही जगह , सही चीज से अकारण प्रेम करना है ! इस कारण जैसे भी हैं, अच्छे या बुरे अपने से अकारण प्रेम करना है । अच्छा बुरा सब अहम् के खेल हैं ! अहम् होगा तो अच्छा बुरा रहेगा !

जब अकारण प्रेम करेंगे , तभी तो इसे क्षमा कर पाएँगे, नहीं तो हम स्वयं को क्षमा ही नहीं कर पाते ! जब अकारण प्रेम करेंगे तभी तो स्वयं की हर चीज, को बिन कारण अपना पाएँगे । व स्वयं के साथ सुकून के साथ जी पाएँगे !

जैसा सोचेंगे वैसा बनेंगे ! सोचेंगे हम प्रेम हैं तो एक दिन प्रेम ही बन जाएंगे ! सोचेंगे कूडा हैं तो कूडा ही महसूस करते रह जाएंगे !

सोचें ? कि क्या बनना है हमें .. वैसे ही अपने साथ व्यवहार करें ! यह सब साधना के व्यवहारिक पक्ष हैं !

शुभ व मंगल कामनाएं

बिन कारण अपने आप से प्रेम करें

Nov 26, 2017

आज का सुविचार

अपने आप से अकारण प्यार करें

आज सुबह से यह विचार मन में चल रहा है । क्या है अकारण प्यार और अपने आप से कैसे करें और इससे क्या होगा ?

बिन कारण प्यार ! हम तो संसारी हैं और हम तो हर चीज किसी कारण से करते हैं । हमें कोई पसंद है क्योंकि वह हमारा ध्यान रखता है। हम प्रभु की पूजा करते हैं कि वे हमारी रक्षा करें या जीवन अच्छे से चलता रहे ! पर बिन कारण प्रेम ! सोचना कठिन हो जाता है !

संतगण कहते हैं कि हम जिससे आए हैं वह प्रेम है । जिस तरह एक संतरे की फड़ी संतरा उसी तरह प्रेम का अंशी प्रेम ! यूँ ही । बस प्रेम !

कल एक संगीत समारोह में जाने का अवसर मिला । आर डी बर्मन के गीत चल रहे थे तो कभी कोई ताली मारे , कोई साथ साथ साथ झूमे कोई नाचे भी पर अधिकतम लोग सीधे बैठे । न हिले न मुस्कुराइए । बस सीधे बैठे ! हो सकता है भीतर हिल रहे हों !!! संगीत , जो की बहुत आसानी से प्रेममयी तरंगें पैदा कर देता है वह कई जगह छू भी न सका !

सो कैसे करें अपने से अकारण प्यार ? अपने आपको जैसे हैं वैसे स्वीकार कर बिना पसंद व न पसंद किए ! बिना अपने आप पर अनुमान लगाए स्वयं से प्रेम करना ! पर हम ऐसा बहुत करते हैं ! मुझे यह पसंद है तो खुश यह न पसंद है तो न खुश । यह मिला तो खुश यह न मिला तो न खुश । यह किया तो खुश यह न किया तो न खुश !

अपने से बिन कारण प्रेम !

जैसे हैं बहुत प्यारे हैं । जो है वह बहुत प्यारा है !

क्या होगा इससे ? हम दूसरों से अकारण प्रेम कर सकेंगे ! मेरी बुद्धि ऐसी है मेरे संगीकी बुद्धि ऐसी नहीं सो प्रेम नहीं जागृत होता ! क्या हुआ ? बुद्धि आ गई बीच में ! और पसंद न पसंद ले आई ! दूसरा जैसा है उसे स्वीकारा नहीं !

सो दूसरों के साथ अकारण प्रेम कर सकें , साधक हैं, यही सिखाया जाता है , उसके लिए स्वयं से प्रेम करना आवश्यक है !

गुरूजन कृपा करें कि आगे हमें नुसके सिखाएँ कि हम अपने आप से कैसे प्यार कर सकते हैं !

आज हम सब अपने आप से बिन कारण प्यार करें !सब पर कृपा बरसे !

Everybody has something to share….

Nov 26, 2016

हर के पास कुछ न कुछ बाँटने के लिए होता है, और उनके अनुभव हमें प्रबुद्धता प्रदान कर सकते हैं, उत्साहित कर सकते हैं और चेतावनी भी दे सकते हैं ! ~ डॉ गौतम चैटर्जी, Positive Mantra

गुरूजन सिखाते हैं कि हम दो तरह से सीख सकते हैं – एक , दूसरों के अनुभव से और दूसरा, अपने अनुभव से ! माँ कहती है कि बेटा आग को हाथ नहीं लगाना हाथ जल जाता है ! कई मान जाते हैं पर कई हाथ जला कर ही मानते हैं कि आग जला देती है !

आध्यात्म जब कि भीतर की यात्रा है और इसमें स्वयं ही अनुभव हमें प्राप्त करने होते हैं ! बिना अनुभव के ज्ञान से भीतर की पिपासा नहीं मिटती ! पर क्योंकि यह अज्ञात मार्ग है, विरले ही इस पर चल कर सफल हुए हैं सो जो मार्गदर्शक है, जो इस राह पर चल कर सफल हुए हैं, उनके अनुभव , उनके कथन अक्षारक्षर ही मानने में भलाई है !

गुरूजन अपने अनुभव से कहते हैं कि मन व चित की शुचिता से व सतत नाम सिमरन से व सम्पूर्ण समर्पण ही परमेश्वर मिलन सम्भव है, तो मानो कि वे अपने अनुभव से कह रहे हैं कि यह सम्भव है !

एक बार लगभग ११-१२ युवा परम पूज्य महाराजश्री के दर्शन हेतु गए। वे दीक्षित नहीं थे । पूज्य महाराजश्री ने अलग से समय दे रखा था उन्हें ! उन में से एक ने प्रश्न किया । प्रश्न का उत्तर देते समय पूज्य गुरूदेव ने कहा कि मैं भी आप जैसा ही था ! एक वैज्ञानिक । मैंने हर चीज परख कर ही अपने गुरूदेव से दीक्षा ली ! हर चीज का अनुभव करके ही आप सब के सामने बोलता हूँ ! सब परीक्षण कर लिए हुए हैं मैंने ! आपको परीक्षण की आवश्यकता नहीं अब !!

सो गुरूजनों व संतों महात्माओं के कथन तो अक्षारक्षर मानने से ही जीवन का उत्थान सम्भव है ! नहीं तो आवागमन के चक्कर में ही घूमते रह जाएँगे !

यदि संत महात्मा व गुरूजन कहते हैं कि आत्मा ही हमारा सच्चा स्वरूप है , देह नहीं मन नहीं व बुद्धि नहीं ! तो यह मानने में ही हमारी भलाई है । अन्यथा , बिमारी में हम दुखी, परिवारिक समस्याओं में हम दुखी, प्रियजन की मृत्यु में हम दुखी ! जब कि हर दुख का लेना देना मन से ही है या देह से ! आत्मा तो सदा प्रेममय व आनन्दित रहता है ! वहाँ न दुख न सुख !

इसलिए रे मन सुनने की आदत डाल व सीखने का स्वभाव बना!

श्री श्री चरणों में 🙏

शबरी

Nov 26, 2017

रविवार सत्संग सारांश

परम पूज्यश्री जॉ विश्वामित्र जी महाराजश्री के मुखारविंद से

शबरी

नीचे कुल की , कुरूप, नीची जाति की, पर वह पा गई । शबरी की उपासना भी हमारी जैसी है । उसने पा लिया । कितने वर्षों में पाया पता नहीं पर पा लिया, पर हमने तो कुछ नहीं पाया । हम भी वही कर रहे हैं जो उसने किया । पर उसमें क्यों पाया और हमने क्यों नहीं .. यह देखते हैं ।

शबरी को बचपन से तीन चीज़ों की बहुत गहरी तलब थी – संत, सत्संग और सबसे ज्यादा संत सेवा । बहुत शुभ संस्कार रहे होंगे कि बचपन से ही ऐसे विचार थे । हमारे भी बहुत शुभ संस्कार हैं कि हमें स्वामीजी का उच्च कुल मिला। परमेश्वर कृपा तो अवश्य है । हमें तो संत मिल गए हुए हैं ।

शबरी पिछले जन्म में राज घराने की थी । और कर्मों के कारण भीलराज के जन्म हुआ । संस्कार कितने प्रबल रहे होंगे कि विवाह के मण्डप से भाग गई । बुरे संस्कार व अच्छे संस्कार दोनों बहुत प्रबल होते हैं । कार्य करवाके ही लेते हैं। शबरी के भी शुभ संस्कार बहुत प्रबल रहे होंगे कि आती होगी भीतर से आवाज- चल भाग जा ! तू इसके लिए नहीं बनी ! तूने बहुत बडा कार्य करना है, भाग जा । भाग गई !

संत की शरण में जाना था । मिला आश्रम । किन्तु वहाँ महिलाएँ नहीं जा सकती थी । यह सच है। आज भी कई आश्रम हैं जहां महिलाएँ नहीं जा सकती । मैं कुछ वर्ष पहले उत्तरकाशी गया था । वहाँ एक आश्रम में रहा था । वहाँ महिलाओं का आना मना है ।

अब कैसे जाए भीतर ? पढी लिखि तो थी नहीं । अनपढ़ थी । सोचा रात में ही प्रवेश करूँगी । मतंग ऋषि का आश्रम था ।

आप पढे लिखे और तरह की तरकीब सोच सकते हैं। यह बुद्धि ही सारा काम खराब कर देती है । जो बुद्धि भीतर उससे संयुक्त न करे वह बुद्धि किस काम की !!!!!

शबरी तो भीतर संयुक्त थी । परमेश्वर उसका भीतर से मार्गदर्शन कर रहे थे ।

क्या था शबरी के पास जो वह सब पा गई ? गुरू आज्ञा ।

जो हो रहा है उसे साक्षी बनकर देखना है

Nov 26, 2017

आज का सुविचार

जो हो रहा है , उसको साक्षी बनकर देखें

संतगण कहते हैं कि हर चीज परमेश्वर की कृपा से होती है । परमेश्वर कभी बुरा नहीं चाहते । वे सदा कृपा ही करते हैं ।

एक शरणागत साधक जो होता है वह इसकी गाँठ बाँध लेता है । फिर उसको कुछ फ़र्क़ नहीं पडता कि जीवन में कैसी भी घटनाएँ क्यों न आएं । वह साक्षी बनकर हर घटना देखता है ।वह अपने भीतर अपने राम पर दृढता पूर्वक स्थित हो जाता है और फिर चाहे जो कुछ भी उसकी देह को करना पड़े वह अपने परमेश्वर की शक्ति लेकर करता है । फिर जब करन करावन हार स्वयं को न मानकर अपने सांई को माना सो कर्म बंधन में न पड़ा ।

प्रश्न उठ सकता है कि क्या एक कसाई भी कर्म बंधन से मुक्त हो सकता है ? वह तो किसी के प्राण ले रहा है । संतगण कहते हैं, हो सकता है, यदि वह अपनी आत्मा में स्थित होकर अपने परमेश्वर को करनकरावन हार मानता है !

तो क्या एक वैश्या भी कर्म बंधन से मुक्त हो सकती है ? हो सकती है ! यदि वह स्वयं को आत्मा माने । और परमेश्वर द्वारा दी हुई देह को परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करने दे । उसने माना ही नहीं उसने कार्य किया क्योंकि वह तो देह नहीं न ही वह मन है । वह तो आत्मा है। देह से जो कार्य करवाए जा रहे हैं वह वह कर रही है व जीवन यापन कर रही है ।

जहां स्वार्थ न हो, चाह न हो, आसक्ति न हो, स्वयं को आत्मा माना जाए , तो जीवन की हर परिस्थिति को साक्षी बनकर देखकर , जो हो रहा है वह होने दें, ऐसा मान कर कार्य करने से कर्म बंधन नहीं बनता !

Knowledge is cultivated through life experiences

Nov 25, 2016

हमारे जीवन के अनुभवों से ज्ञान विकसित होता है ~ डॉ गौतम चैटर्जी , Positive Mantra

परम पूज्य गुरूदेव कहते हैं कि साधना अनुभव में आनी चाहिए ! नहीं तो वह ऐसे जैसे कि बैंक में पैसा है पर रह रहे हैं ग़रीबों की भाँति ।

अनुभवों के संग यदि गुरूजनों की कृपा हो , तो ज्ञान बहुत सकारात्मक ढंग से विकसित होता है । उदाहरणतया, परिवार में यदि पत्नि पति या ससुराल व बहु का आपस में ताल मेल नहीं तो सम्पूर्ण जीवन बहुत बार विषाद में निकल जाता है । पर यदि गुरूजनों का संग हो, उनका ज्ञान हमारे साथ जुड़ जाए, तो वह विषाद प्रसाद बन जाता है ! क्योंकि उनके श्री चरणों में बैठ कर पता चलता है कि हम तो ऋण चुकाने आए हैं, असली संबंध तो हमारा केवल परमात्मा से है, बाकि संबंध तो केवल पल भर के हैं, केवल कर्तव्य निभाने हेतु ! सच्चा प्रेम, दिव्य प्रेम संसार के पास नहीं वह तो परमात्मा व गुरूजनों के पास है !

यह सकारात्मक सोच आम मानव को नहीं आ सकती ! वह यहाँ तक तो अवश्य पहुँच सकता है अपने जीवन के अनुभवों से कि कोई अपना नहीं , पर यह जानना कि कौन सबसे ज्यादा अपना सुहृद है , यह तो केवल गुरूजनों से ही पता चल सकता है !!

सबके जीवन में उतार चढ़ाव आते हैं, सुख दुख आते हैं, और पूज्य गुरूदेव कहते हैं कि दुख ज्यादा प्रतीत होते हैं , पर उनका सामना कैसे करें, कैसे अंधकारमय रात्रियाँ में सकारात्मक रहें, यह तो परमेश्वर कृपा से ही सम्भव है !

प्रभु व गुरूजनों का स्पर्श एक ऐसा अनुभव है जो कि साधारण मानव समझ नहीं सकता ! दिव्य प्रेम की सोच व समझ ऐसी विलक्ष्ण कृपा है जो गुरूजनों के बिना मिलनी सम्भव ही नहीं हो सकती! क्यों ? क्योंकि बिन कारण , बिना स्वार्थ, बिना किसी प्रयोजन कौन किसी से प्रेम करता है, कौन किसी का ध्यान रखता है ! यह केवल गुरूजन की कृपा से ही उपलब्ध हो सकती है ! मेरे रााााााााओऽऽऽऽऽऽऽऽम !!

सो जो अनुभव जीवन हमें देता है, गुरूजनों की शिक्षा से उसी अनुभव से ज्ञान विकसित हो जाता है, जो कि सम्पूर्ण रूप से सकारात्मक होना सम्भव है !

श्री श्री चरणों में 🙏

Generate knowledge spinning in your peer group

Nov 24, 2016

अपने मित्रगण में ज्ञान का प्रवाह करिए ताकि आप उन्हें राह दिखा सकें ~ डॉ गौतम चैटर्जी, Positive Mantra

परम पूज्यश्री स्वामीजी महाराजश्री ने कहा है कि जिसको कुछ पता है वह दूसरों को बता कर उन्हें आगे लाए ! यहाँ कोई छोटा बड़ा नहीं है !

यह आवश्यक नहीं कि उम्र से साधक की साधकाई मापी जाए या कितना गुरूजनों ने अपने निकट रखा उससे ! गुरूजन की कृपा तो कहीं भी किसी पर भी किसी समय भी बरस सकती है !

पूज्य महाराजश्री कहते हैं कि एक मामूली सा इंसान , छोटा साधक बड़ी बड़ी बातें करने लग जाए तो मानो वहाँ दिव्यता का प्रवाह चल रहा है !

पर यहां एक बात देखने की है कि स्वयं अपनी ध्यानवस्था बता कर, स्वयं अपनी सिद्धियाँ बता कर, स्वयं यह कह कर कि मुझे गुरूदेव ने यह कहा वह कहा, यह दिव्यता का प्रवाह नहीं ! राम को अपनी महक फैलाने के लिए विज्ञापन की आवश्यकता नहीं ! वह महक तो स्वयमेव फैलती है !

पूज्यमहाराजश्री जब मनाली तपस्या कर रहे थे , उनकी महक स्वयमेव फैल रही थी ! साधकों को स्वप्नों में गुरूजन के संदेश व संकेत मिल रहे थे ! और फिर उन्हें आमंत्रित कर श्रीरामशरणम दिल्ली लाया गया ! उन्होंने तो कभी आजतक अपनी जीवनी के अलावा, अपनी बात नहीं की ! यहाँ तक की एक आध्यात्मिक संस्था के सरताज होते हुए भी, अन्य संत गणों की सेवा की ! पूज्यश्री स्वामी रामदास जी की पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद किया। पर बाहर भनक न पड़ने दी । अपनी आध्यात्मिक उन्नति उन्होंने गद्दी पर भी गुप्त राखी । सदा सदा सेवक ही माना व बने रहे ! उनकी सादगी व विनम्रता के कारण साधक उनके असली स्वरूप तक को न जान पाए! इतना बाहरी जगत में होते हुए भी स्वयं को सिकोड़े रेखा ! पर उनकी छवि को जो एक बार देख लेता भूलता नहीं ! क्या स्वयं के विज्ञापन दिए उन्होंने ? नहीं ! राम के प्रवाह को विज्ञापन की आवश्यकता नहीं होती ! पूज्य महाराजश्री तो गद्दी पर आने से पहले भी जगह जगह जाकर सत्संग लगाते , व ज्ञान का प्रवाह बाँटते !

गुरूजन हमारे ,साधक, शिष्य भी रहे हैं और फिर आध्यात्मिक जगत के सरताज! उनका जीवन ही सर्वोच्य अनुकर्णिय है !

पर हम ऐसे नहीं है ! हम नेतागीरी करते हैं । गुठ बनाते हैं और भेद भाव करते हैं । नीचे गिराने की या पीछे हटाने की चेष्टा करते हैं ।कितनी भिन्नता है हमारी सोच में व गुरूजनों के जीवन में !

उन जैसा स्वयं बनना तो असम्भव है ! पर हाथ जोड़ श्रीचरणों में फिर भी विनती कर सकते हैं कि अपना जैसा बना दीजिए! यह हिम्मत भी तभी करते हैं क्योंकि आपजी ने स्वयं ही कहा है प्रभु ऐसा करने के लिए !!

सर्व करनकरावनहार मेरे मालिक !

श्री श्री चरणों में 🙏