शबरी

Nov 26, 2017

रविवार सत्संग सारांश

परम पूज्यश्री जॉ विश्वामित्र जी महाराजश्री के मुखारविंद से

शबरी

नीचे कुल की , कुरूप, नीची जाति की, पर वह पा गई । शबरी की उपासना भी हमारी जैसी है । उसने पा लिया । कितने वर्षों में पाया पता नहीं पर पा लिया, पर हमने तो कुछ नहीं पाया । हम भी वही कर रहे हैं जो उसने किया । पर उसमें क्यों पाया और हमने क्यों नहीं .. यह देखते हैं ।

शबरी को बचपन से तीन चीज़ों की बहुत गहरी तलब थी – संत, सत्संग और सबसे ज्यादा संत सेवा । बहुत शुभ संस्कार रहे होंगे कि बचपन से ही ऐसे विचार थे । हमारे भी बहुत शुभ संस्कार हैं कि हमें स्वामीजी का उच्च कुल मिला। परमेश्वर कृपा तो अवश्य है । हमें तो संत मिल गए हुए हैं ।

शबरी पिछले जन्म में राज घराने की थी । और कर्मों के कारण भीलराज के जन्म हुआ । संस्कार कितने प्रबल रहे होंगे कि विवाह के मण्डप से भाग गई । बुरे संस्कार व अच्छे संस्कार दोनों बहुत प्रबल होते हैं । कार्य करवाके ही लेते हैं। शबरी के भी शुभ संस्कार बहुत प्रबल रहे होंगे कि आती होगी भीतर से आवाज- चल भाग जा ! तू इसके लिए नहीं बनी ! तूने बहुत बडा कार्य करना है, भाग जा । भाग गई !

संत की शरण में जाना था । मिला आश्रम । किन्तु वहाँ महिलाएँ नहीं जा सकती थी । यह सच है। आज भी कई आश्रम हैं जहां महिलाएँ नहीं जा सकती । मैं कुछ वर्ष पहले उत्तरकाशी गया था । वहाँ एक आश्रम में रहा था । वहाँ महिलाओं का आना मना है ।

अब कैसे जाए भीतर ? पढी लिखि तो थी नहीं । अनपढ़ थी । सोचा रात में ही प्रवेश करूँगी । मतंग ऋषि का आश्रम था ।

आप पढे लिखे और तरह की तरकीब सोच सकते हैं। यह बुद्धि ही सारा काम खराब कर देती है । जो बुद्धि भीतर उससे संयुक्त न करे वह बुद्धि किस काम की !!!!!

शबरी तो भीतर संयुक्त थी । परमेश्वर उसका भीतर से मार्गदर्शन कर रहे थे ।

क्या था शबरी के पास जो वह सब पा गई ? गुरू आज्ञा ।

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