छिप कर साधना

Jan 30, 2018

आज का चिन्तन

छिप कर साधना करनी है , क्या क्या तात्पर्य हैं इसके …

जब हम कहते हैं कि छिप कर साधना करनी है , साधारणतया अभिप्राय यही होता है कि हम दूसरों के आगे प्रदर्शन न करें । दूसरों को हमारा न पता चले । इत्यादि इत्यादि ।

साधना तो बहुत ही व्यक्तिगत चीज है । इसमें तो परिवार वाले जो देह के संग रह रहे होते हैं वे भी संग नहीं होते । यह तो केवल हमारा व परमात्मा का आपस में संबंध होता है ।

यदि हम कोई प्रदर्शन नहीं कर रहे । यदि संसार को नहीं पता चल रहा कि हम कैसे कैसे व कब कब साधना करते हैं, तो उसके पश्चात हमें किससे छिपने की आवश्यकता है ?

पूज्य महाराजश्री ने एक बार विभिन्न तरह के मन बताए । एक मन ऐसा जिस पर यदि लकीर डालो जैसे पत्थर, तो वर्षों पडी रहती है। एक मन मिट्टी जैसे जिसपर लकीर डालो तो कुछ समय के लिए रहती है ! और एक मन पानी जैसा । जिस पर लकीर डालो तो पल भर मे मिट जाती है ।

तो हमें अपने मन से बचना है ! यदि वह पत्थर जैसा है वह सदा स्मरण रखेगा मैं कितनी साधना करता हूँ गुप्त ! यदि वह मिट्टी जैसा है तो कुछ देर रहता है अरे ! कितनी साधना की गुप्त ! और यदि पानी जैसा हो जाए – तो स्मरण ही नहीं रहता कि साधना की भी या नहीं !

यदि हम संसार से छिप भी जाते हैं, जो बहुत साधक करते भी हैं पर मेरे जैसे अपने मन से छिप नहीं पाते ! और वहाँ मन ही तो अहम् जागृत रखता है ! मेरी साधना , मेरा जाप ! मेरा ध्यान ! मेरी सेवा ! मेरे पोस्ट ! चाहे बाहर हम दिखें भी न पर वह मन का मैं सब जागृत रखता है !

किन्तु यदि वह मन घुलने लग जाए तो सारी दुनिया के आगे भी रह कर लगता है कुछ किया ही नहीं जैसे हमारेगुरूदेव परम पूज्यश्री महाराजश्री ! न वे कभी महसूस करते कि वे कुछ कर रहे हैं न ही वे कभी जताते कि क्या क्या किया तुम्हारी आत्मा की मैल धोने के लिए । जबकि वे रात रात भर रुदन करते हमारे पापों को धोने हेतु !

सो मन से ही बचना है ! मन में यदि संसार है तो संसार है ! ऐसा संत गण कहते हैं । मन को नहीं पता चलना चाहिए कि हम कुछ कर रहे हैं । मन में कर्ता पन का भाव जब मिट जाए तो फ़र्क़ नहीं पड़ेगा यदि आपने सड़क के किनारे ध्यान लगा लिया अपने ध्यान के समय !

शुभ व मंगल कामनाएं

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