मिटा दीजिए

April 27, 2018

आज का समर्पण

गुरू जैसे रखें , वैसे ही हम रहें । गुरू दिन को रात यदि कहें, तो हम प्रमाण न लेकर आएं कि देखिए आपने तो यह कहा था । या देखिए बाहर तो दिन है।

नहीं कभी नहीं ।

यदि गुरू कुछ भी कहें , हाथ जोड़कर स्वीकृति ही सही रहती है। बहस, झगड़ा , ग़ुस्सा यह सब बहुत गड़बड़ कर देते हैं ।

गुरू अपने ही रूप में बहुत रूप धरते हैं भीतर का मल साफ करने के लिए। गुरू से कुछ नहीं छिपा होता । वासनाएँ, काम, नकारात्मक भावनाएं , लालच, लोभ, कुछ नहीं।

हम तो अपने के देख नहीं सकते। हमारी न बुद्धि साफ है न मन न हृदय। सो चुपकरके, जो गुरू कहें स्वीकार कर लेना चाहिए।

कईयों के लिए अपने प्रारब्धों के अनुसार साफ होना कठिन नहीं पर मेरे जैसे कइयों के लिए बहुत कठिन है। वह केवल गुरूकृपा से ही सम्भव हो सकता है। किन्तु मेरे जैसों का अहम् गुरू के आगे भी फुँकारें मारता है , निर्लज्ज के भाँति । ऐसा बिल्कुल सही नहीं है।

सो नत्मस्तक होना है। जहां रखा है जैसे रखा है एक नौकर से भी नीचे होकर रहना है। गुरू के लाड में बहकना नहीं ! न ही दुलार में। चरणों के नीचे ऐसी धूल जोबार बार उन्हीं से रौंधी जाए , ऐसी धूल बनना है ! जिनको अहम् की बीमारी होती है वहाँ आसान नहीं ! किन्तु जो केवल तू पर आ सके वही सही है ।

जैसे रखें जहां रखें जो दें जो न दें .. इससे हमें कोई सरोकार नहीं। अपना नाम दिया – जीवन में सब कुछ दिया ।

मिटादें वे स्वयं ही । अपने आप से तो केवल बिगड़ना आता है! दया करें हे दीनानाथ ! क्षमा करें ।

Leave a comment