April 5, 2010 ( 2)
परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महाराजश्री के मुखारविंद से
अन्न खाकर कहा है करूं कर्म हितकार । आज इसपर चर्चा शुरू करते हैं।
एक संत है गृहस्थ है दर्ज़ी का काम करता है। एक व्यक्ति हमेशा उसी से कपड़े सिलवाता है । ऐसा क्यों ? क्या और दर्ज़ी नगर में नहीं है ? फ़ैशन बदलते है। लोग दर्ज़ी बदलते हैं। पर यह उसी संत दर्ज़ी के पास जाता है । स्वार्थ । स्वार्थ है। क्या स्वार्थ है ? जब भी उससे कपड़े सिलवाता है संत उफ़्फ़ नहीं करता । करूं कर्म हितकार । मात्र इतना ही नहीं । दूसरों के लिए । अपने लिए नहीं। अपना हित तो देवियों अपने आप हो जाता है । परोपकार करने वाले का, पर उपकार करने वाले का पहले है अपना उपकार हो जाता है। यह परमात्मा के बडे strong पक्के नियम हैं । आपने किसी को छोटा सा सुख दिया आप घर जाकर देखेंगे कि आपके लिए अपार सुख इंतजार कर रहा है। परमात्मा किसी का भी ऋण अपने सिर नहीं रखता । झट से उतार देता है । मात्र उतना नहीं बल्कि ज्यादा देकर उतारता है। यह स्वभाव है उसका। यह मेहरबानी है उसकी, कृपा है उसकी।
आज किसी कारण वश दर्ज़ी को बाहर जाना पड गया । पीछे नौकर था, उसने खोटे सिक्के लेने से इन्कार कर दिया । मैं नहीं लूँगा । संत वापिस आए हैं। नौकर ने सारी बातें सुनाई हैं । संत कहते हैं – बेटा ! यह आज पहले बारी नहीं । हर बार ऐसा होता है। मैं उन्हें लेकर तो धरती में दब देता हूँ । ताकि यह किसी के हाथ न लगे। संत की संताई देखो। करूं कर्म हितकार ।
संत महात्मा कहते हैं बेटा – बुराइयों का कूडा कर्कट यदि सिर पर पड़े , तो आपकी दृष्टि मात्र स्वयं बचने की नहीं होनी चाहिए बल्कि दूसरे इस कूडा कर्कट से बचें ऐसी सोच होनी चाहिए । इस लिए सिक्के धरती में दबा देता हूँ ताकि दूसरे के हाथ न लगें। करूं कर्म हितकार ।
कैसे हितकर कर्म करूं ? आप जितना दूसरों का ध्यान रखोगे, उतना परमात्मा आपका ध्यान रखेगा । परमात्मा की हर बात बहुत simple है बहुत सरल । दूसरों का ध्यान रखोंगे उतना अधिक परमात्मा आपका ध्यान रखेंगे । हमारा ध्यान रखने में और परमात्मा के ध्यान रखने में ज़मीन आसमान कि अंतर है। उसी के ध्यान रखने से कुछ बनेगा । हमारे ध्यान रखने से हमारा तो कुछ नहीं बनेगा ।