Monthly Archives: June 2018

April 5, 2010 ( 2)

April 5, 2010 ( 2)

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महाराजश्री के मुखारविंद से

अन्न खाकर कहा है करूं कर्म हितकार । आज इसपर चर्चा शुरू करते हैं।

एक संत है गृहस्थ है दर्ज़ी का काम करता है। एक व्यक्ति हमेशा उसी से कपड़े सिलवाता है । ऐसा क्यों ? क्या और दर्ज़ी नगर में नहीं है ? फ़ैशन बदलते है। लोग दर्ज़ी बदलते हैं। पर यह उसी संत दर्ज़ी के पास जाता है । स्वार्थ । स्वार्थ है। क्या स्वार्थ है ? जब भी उससे कपड़े सिलवाता है संत उफ़्फ़ नहीं करता । करूं कर्म हितकार । मात्र इतना ही नहीं । दूसरों के लिए । अपने लिए नहीं। अपना हित तो देवियों अपने आप हो जाता है । परोपकार करने वाले का, पर उपकार करने वाले का पहले है अपना उपकार हो जाता है। यह परमात्मा के बडे strong पक्के नियम हैं । आपने किसी को छोटा सा सुख दिया आप घर जाकर देखेंगे कि आपके लिए अपार सुख इंतजार कर रहा है। परमात्मा किसी का भी ऋण अपने सिर नहीं रखता । झट से उतार देता है । मात्र उतना नहीं बल्कि ज्यादा देकर उतारता है। यह स्वभाव है उसका। यह मेहरबानी है उसकी, कृपा है उसकी।

आज किसी कारण वश दर्ज़ी को बाहर जाना पड गया । पीछे नौकर था, उसने खोटे सिक्के लेने से इन्कार कर दिया । मैं नहीं लूँगा । संत वापिस आए हैं। नौकर ने सारी बातें सुनाई हैं । संत कहते हैं – बेटा ! यह आज पहले बारी नहीं । हर बार ऐसा होता है। मैं उन्हें लेकर तो धरती में दब देता हूँ । ताकि यह किसी के हाथ न लगे। संत की संताई देखो। करूं कर्म हितकार ।

संत महात्मा कहते हैं बेटा – बुराइयों का कूडा कर्कट यदि सिर पर पड़े , तो आपकी दृष्टि मात्र स्वयं बचने की नहीं होनी चाहिए बल्कि दूसरे इस कूडा कर्कट से बचें ऐसी सोच होनी चाहिए । इस लिए सिक्के धरती में दबा देता हूँ ताकि दूसरे के हाथ न लगें। करूं कर्म हितकार ।

कैसे हितकर कर्म करूं ? आप जितना दूसरों का ध्यान रखोगे, उतना परमात्मा आपका ध्यान रखेगा । परमात्मा की हर बात बहुत simple है बहुत सरल । दूसरों का ध्यान रखोंगे उतना अधिक परमात्मा आपका ध्यान रखेंगे । हमारा ध्यान रखने में और परमात्मा के ध्यान रखने में ज़मीन आसमान कि अंतर है। उसी के ध्यान रखने से कुछ बनेगा । हमारे ध्यान रखने से हमारा तो कुछ नहीं बनेगा ।

April 5, 2010(1)

April 5, 2010

भाग १

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्रजी महाराजश्री के मुखारविंद से

घर से निकलो तो अकेले नहीं निकलना । परमात्मा को साथ लेकर निकलना । जब परमात्मा साथ है को उसके आशीर्वाद साथ हैं उसकी कृपा भी साथ है । मालिकों का मालिक साथ है, देने वाला साथ है, दाता शिरोमणी साथ है, तो और माँगना क्या। कुछ माँगने की जरूरत फिर नहीं रहती ।

बीच में दो प्रसंग आए हैं-

अन्नपते यह अन्न है, तेरा दान महान ।

करता हूँ उपभोग मैं, परम अनुग्रह मान।।…

भोजन सं पहले । अन्नपते को याद कीजिएगा जिसने यह अन्न दिया है । बडी सुंदर भावना है। इसमें बोध रहता है –

अन्नपते यह अन्न है, तेरा दान महान

दान देने वाला दाता, लेने वाला भिखारी । मैं एक भिखारी की हैसियत से दाता, तेरा दिया हुआ दान खा रहा हूँ । सेवन कर रहा हूँ । यह खाने से पहले भावना होनी चाहिए ।

खा लिया तो दाता का ध्नयवाद करें-

धन्यवाद तेरा प्रभु तू दाता सुखभोग

वास्तव में देखा जाए साधक जनों तो धन्यवाद के पात्र , एक ग्रास आप मुख में डालते हो, तो अनेक सारे धन्यवाद के पात्र हैं। पृथ्वी से शुरु कीजिए । सबसे पहले पात्र , माँ पृथवी , धरती, जिसने अन्न उपजाया है । किसान , वरुण देवता जिसने जल दिया । सूर्य देवता जिसने तेज़ दिया, प्रकाश दिया । अंकुरित हुआ है । अन्न दुकानदार के पास गया है, दुकानदार का धन्यवाद । ख़रीदने के बाद अन्न घर आया है तो जिन्होंने अन्न बनाया है उनका धन्यवाद । किस किस का धन्यवाद करोगे । अतैव स्वामीजी महाराज ने कहा कि परमात्मा का धन्यवाद करो सब आ जाते हैं । न आपको किसान का पता है, न खेत का पता है, न दुकानदार का, प्रत्येक ग्रास के साथ उस परमात्मा का धन्यवाद कीजिएगा । अपनी कृतज्ञता व्यक्त कीजिएगा । शुक्र है तेरा परमात्मा , शुक्र है तेरा परमात्मा । एक ग्रास भीतर गया । उसके बाद भी कुछ नहीं करना आपको। भीतर परमात्मा ही बैठा है सब कुछ करने वाला । आपने बस मुख में डालके उसे निगलना है। बस । इतना सा ही काम है। उसके बाद अन्न को क्या होता है, हमें कोई बोध नहीं है। अगले दिन विश्ठा विसर्जित की जाती है। बीच में क्या हुआ है, we do not know about it. Protein का हिस्सा निकाल कर कहां भेजी है fat कहां भेजी है। carbohydrates कहां भेजी है, जल कहां भेजा है, इत्यादि इत्यादि ।

हर बात के लिए साधक जनों परमात्मा धन्यवाद का पात्र है , धन्यवाद का अधिकारी है। मांग नहीं है उसकी ।

हर बात के लिए साधक जनों परमात्मा धन्यवाद का पात्र है , धन्यवाद का अधिकारी है। मांग नहीं है उसकी । हम तोचाहते हैं न । देखो मैंने इतना कुछ किया, धन्यवाद तक नहीं किया उसने। बाहर इस प्रकार का रिवाज है। कि आप जो कुछ भी करो वे thank you card भेजते हैं। यह हमारे यहां भी सिलसिला चल पड़ा है । तो फिर माँगें भी इसी तरह की चल पडी हैं । जहां मांग होगी वहां भिखारी बन गया। परमात्मा आपसे धन्यवाद की मांग नहीं रखता । लेकिन जो परमात्मा के प्रति अपनी कृतज्ञता हर कर्म के लिए हर काम के लिए हर घटना के लिए , जो भी उसके आस पास घटित होता है, परमात्मा साधक जनों कहते हैं बहुत प्रसन्न होता है। ऐसे व्यक्ति पर जो कृतज्ञ है। कृतघ्न पर नहीं । जिसने कभी धन्यवाद ही नहीं किया परमात्मा का, सब कुछ देने वाले का,कभी नहीं किया , ऐसों का शरीर गलि बाज़ार रुलता है। एक अपराध जो अक्षम्नीय माना जाता है । जिसकी क्षमा नहीं । लेकिन जो grateful है परमात्मा के प्रति तेरा लाख लाख शुक्र है परमात्मा, तेरा असंख्य धन्यवाद परमात्मा। उस पर परमात्मा बहुत खुश होते हैं ।

बिन प्रीति सब जग सूना

June 16, 2018

नजर सदा तत्पर होती है कुछ पढने के लिए ! गुरूजन जब नकारात्मकताओं व दुर्बलताओं की धुलाई करने में संलग्न हों और हर ओर से केवल नकारात्मकताओं के लेख ही पढ़वा रहे हों कि सुधरो ! तो मन कहता है कि प्रभु क्या इस मन को नहीं पता इसकी दुर्बलताएँ ! हर समय तो पता हैं! तो फिर आप भी बार बार वही दिखाते रहते हैं ! सर्व तो आपके श्री चरणों में है। सो जब तक आप न चाहें तो धुलाई कैसे सम्भव हो ! हम भी तो इंतजार में ही हैं !

सो शायद देवाधिदेव को दया आ गई ! यूही बाज़ार गई तो वहां पढने को मिला – इतना सोचे न ! महसूस कीजिए ! जहां लगे कि यह मेरा घर है वह मार्ग अपना लीजिए !

बहुत ही सुकून मिला ! मार्ग का चयन करना सुलभ ! जिस मार्ग पर तनाव आए, अन्यथा विचार उपजें तो मानो नहीं वह मार्ग नहीं ! जहां शान्ति मिले वहीं अपना मार्ग है ।

तो घर आकर निश्चय पर श्री भक्ति प्रकाश जी में खोज कर रही थी तो लगन पर रुकी ! वहां पूज्यश्रा स्वामीजी महाराजश्री ने कृपा की और बोले –

रहे मग्न मन लगन में , भूले सर्व विकार ।

प्रिया पति में ज्यों रता, बिसरे अन्य विचार ।।

बस ! और क्या चाहिए ! जो प्रेमी रसिक हैं उन्हें तो अपने प्यारे का चिन्तन की भूख है ! अपने प्राण प्यारे का चिन्तन सब विकार भुला देता है !

स्वामीजी महाराज बोले

प्रेमी को प्रेमी मिले, अन्तर को कर दूर ।

सिन्धु से ज्यों आ मिले, पर्वत का जल पूर ।

संतों का भी तो इसी कारण आकर्षण रहा कि राम से प्रेम हो जाए । जैसा उनको प्रेम हुआ वैसा हमें भी हो जाए ! एक ही तो चाह रही । कि राम से प्रगाढ प्रेम हो जाए ! इसी से देह अभिमान सब समाप्त हो जाएगा ! सब विकार नष्ट हो जाएंगे ! हम कहां स्वयं कुछ दूर करने में सक्षम हैं !

सो हम विनती करते हैं कि

हे राम मुझे दीजिए , अपनी लगन अपार ।

अपना निश्चय अटल दे, अपना अतुल्य प्यार ।।

आपके प्रेम की चर्चा में डूबने के लिए तरस गए थे ! आपका प्रेम ही तो जीवन है । इसके बिना तो सब रूखा है भगवन ! सब फीका व रूखा !

श्री श्री चरणों में

विचारों की ओर सजग

June 13, 2018

आप रसोई में काम कर रहे हैं पर मन रसोई में नहीं । मन कुछ तनाव भरी कटु वाक्य सोच रहा है ।बच्चा आता है आप मुस्कुराते हैं । भोजन परोसते हैं । पर मन ! वह तो आपका है। किसी को भनक नहीं पडती कि वहां क्या चल रहा है !

आप ध्यान कर रहे हैं । और पिक्चर का वह सीन बार बार सामने आ रहा है ! आज समय से अधिक बैठ गए ध्यान पर ! किसे पता क्या हुआ !

आप साधक हैं । सह साधक का नाम लिया गया । मन में क्या विचार उमड़ें क्या नहीं कोई नहीं जानता ! हम राम राम करके चल दिए !

आज काम पर दिन अच्छा न गया । मन विषाद में जा रहा है । न दफ्तर में किसी को पता कि आप पीड़ित हैं न घर पर ! चुप । भीतर ही भीतर धंसते गए ।

आप अपने साथी की देहिक सेवा कर रहे हैं । पर आपका मन श्रीअधिष्ठान जी पर केंद्रित है ! कौन जान सकता है यह ?

हमारे मन में क्या चल रहा होता है । न कोई जानता है न ही किसी को इच्छा होती है जानने कि तब तक जब तक संसारी कार्य सुचारू रूप से चल रहे होते हैं।जब वे न चलें तो प्रश्न उठती है कि भई क्या हुआ ?

पर दो जन वह सब जानते हैं जो भीतर चल रहा होता है । एक भीतर विराजमान परमात्मा और दूसरे हमारे कर्म ।

परमात्मा केवल साक्षी । और कर्म notes taker. लिखते जाते हैं कैसे विचार चल रहे हैं । तो उन विचारों के अनुसार भाग्य नियति लिखते जाते हैं ।

सो कैसे विचार चल रहे हैं वह हर समय निगरानी में होते हैं । तभी परम पूज्यश्री महाराजश्री बार बार सोच बदलने की बात करते हैं । सतत सिमरन की बात करते हैं ताकि कोई विचार भीतर घुस ही न सके !

विचारों की संख्या इच्छाओं से भी जुड़ी होती है । कामनाओं से सीधी जुड़ी होती है । किन्तु सतत सिमरन गहन सिमरन हर चीज की औषधि है ।

पूज्य महाराजश्री कहते हैं साधक वह जो सजग हो !

अपने विचारों के प्रति सजग! विचारों के बीज पेड बनते हैं । यदि विचार भय,नकारात्मकता से भरे तो वैसे पेड मन में बन जाएंगे और फिर फल भी वैसे ! पर हमें नकारात्मक फल नहीं पसंद !

सो जो फल पसंद हैं वैसे विचारों के बीज डालने हैं । राम नाम पसंद है तो राम नाम का बीज । शान्ति पसंद है तो शान्ति का बीज ! ख़ुशहाली पसंद है तो कृतज्ञता का बीज ! आरोग्यता पसंद है तो प्रार्थना का बीज !

विचारों का चयन हमारे हाथ में है । विचार बदले जा सकते हैं ! यदि विचार बदल सकते हैं तो नियति भाग्य भी बदल सकते हैं।

विचार बदल सकें इसकी शक्ति परम प्यारे राम नाम से मिलती है वह प्रार्थनाओं से मिलती है ! सो आइए अपने विचारों को राम नाम से लिप्त करके सुंदर बनाए और गुरूजनों से विनती करें कि हमारे मन को चित्त को सुंदर बना दें ।

दे दो राम दे दो राम दिव्य सोच दे दो राम

दे दो राम दे दो राम चित्त की शुद्धि दे दो राम

सही नब्ज़

June 12, 2018

शान्ति के लिए सही जगह केंद्रित होना अति आवश्यक है।

मेरे सह कर्मचारी को पीठ का दर्द बहुत परेशान कर रहा है। बहुत डॉक्टरों के पास चक्कर लगा चुके पर कोई आराम नहीं मिला । वे बोले – ऐसे डॉक्टर कि तालाश में हुँ जो एकदम सही जाँच करके मर्ज़ बता दे !

सासु माँ जी को व पति जी का सब कुछ बच्चे व बहु ने लेकर घर से अलग कर दिया । जीवन में तनाव आ गया ।

नई नवेली दुल्हन के ससुराल वाले केवल घर की माई बना कर रखते हैं। बाकि कुछ से कोई सरोकार नहीं ! मन अशान्त हो गया !

हम सब ऐसी परिस्थितियों से जूझ रहे होते हैं । हम साधक होते हैं तो जाप पाठ प्रार्थना करते हैं ! पर कई बार कोई हल नहीं मिल रहा होता ! मानो कि बिमारी की नब्ज़ नहीं मिल रही होती !

इन परिस्थितियों में अकसर दूसरे लोग शामिल होते हैं । किन्तु पीड़ित हम हो रहे होते हैं ! दूसरे को पीडा का पता भी न हो !

जिसे पीडा मानो उसे उपचार की आवश्यकता है ! दूसरे को नहीं । जिसे अशान्ति वह रोगी है , उसे आरोग्य होना है !

नब्ज़ क्यों नहीं पकड़ में आ रही ? क्योंकि हम दूसरों को अपनी पीडा के लिए दोषी मान रहे हैं ! हमारे विचार ऐसे हैं कि हम दूसरों के व्यवहार से दूसरों के शब्दों से आहत हो रहे है । हम दूसरे को ठीक करना चाहते हैं ! पर पीड़ित तो हम हैं वे नहीं !

जब यह पता लग जाए कि हमें उपचार की आवश्यकता है क्योंकि हम अशान्त हैं तो मानो आधी बाज़ी मार ली !

सो अब क्या करें ? राम , जो शान्ति के स्रोत हैं उनके श्रीचरणों में जाएं और कहें – हे सर्वस्व ! कमि मुझमें हैं ! कृपया अपने नाम द्वारा हम में सुधार कर दीजिए । कृपया मेरा मन मेरी दृष्टि मेरी सोच सुंदर कर दीजिए ।

सदा सदा यही नब्ज़ पकड़नी है । हर परिस्थिति में । जब अपनी सोच अपने विचारों को हम दोषी स्वीकार करेंगे तो वे परम गुरू परम वैद्य अवश्य हमारा उपचार करेंगे ! सतत राम नाम सिमरन औषधि है !

आइए हम चलें श्री चरणों में अपने कुटिल अपवित्र मन व चित्त का शुद्धिकरण करवाने मुख में राम नाम औषधि लिए !

राम ही हैं केवल

June 9, 2018

एक छोटा सा शिशु जब गिरता है तो कई बार स्वयं ही गिर कर उठ कर चल पढता है । पर कई बार गिर कर रोता है और वहीं बैठ कर रोने लग जाता है । माँ को आना पडता है उठाने । या फिर स्वयं माँ के पास बाँहें पसारे चला जाता है रोते रोते ।

हमारे जीवन में राम के सिवाय कोई नहीं । राम ही हैं केवल जो गुरूजनों ने हमें कहा है कि वे ही हमारे अपने हैं। तो कहां जाएं अपने राम के सिवाय !

सो चलिएगा उनके पास … लग जाइएगा गले उनके ! वे कभी न अपनेसे दूर करेगे ! सब दूर कर देंगे । सब दूर चले जाएंगे । पर वे न दूर करेंगे ! वे सब प्रबंध करते हैं कि हम कभी उनसे दूर न हो सकें । जीवन की हर परिस्थिति वे इसीलिए रचते हैं कि हम कभी उनसे अलग न हो सकें ।

सो आइए करें हम अपने प्यारे राम को अंगीकार ! समा लें उन्हें अपने भीतर और उनमें समा जाएं !

मिलूँ तुझे अति वेग से लाँघ सकल ब्रह्माण्ड

धुल जाऊं तव प्रेम में ज्यों पानी में खाण्ड

जीवन का उद्देश्य सदा स्मरण रहे

June 9, 2018

जीवन का उद्देश्य सदा स्मरण रहे ।

सोचिए आज कि जीवन का उद्देश्य क्या है ? क्या चाहेंगे जीवन से जब अंतिम क्षणों में जीवन पहुँचा हुआ होगा ? किस तरह का मन चाहेंगे उस समय ? किस तरह के भाव उमड़ें उस समय ! यह है लक्ष्य और इस लक्ष्य के लिए जी तोड़ मेहनत में जुट जाना चाहिए ।

काम ठीक नहीं चल रहा। क्या अंतिम समय यह सोचना चाहेंगे ? किसी ने अपमान कर दिया ? क्या अंतिम समय यह सोचना चाहेंगे ? मान सम्मान नहीं मिला ! क्या यह सोचना चाहेंगे अंत समय? कुछ न कर पाया, क्या ऐसे जाना चाहेंगे ?

नहीं ! बिल्कुल नहीं !

उन अंतिम क्षणों में राम की मस्ती छाई हो ! उन अंतिम क्षणों में राम का प्रकाश भीतर फैला हो, उन अंतिम क्षणों में राम की धुन रोम रोम से निसर रही हो ! ऐसे जाना चाहेंगे !

तो ऐसे बनने के लिए भरसक प्रयत्न करना है ! मन की हर गाँठ खोल देनी है ! कोई भी नकारात्मक भाव को जगह नहीं देनी ! हर छिद्र केवल राम के लिए ! हर कार्य राम की शक्ति से हो सो राम के श्री चरणों में ! हर कार्य राम के लिए सो राम की ऊर्जा से । सो सब राम के श्री चरणों में !

समय नहीं है कि पिछली बातों में बैठे रहें। समय नहीं है कि अतीत की ग्लानि में उल्झे रहें । समय नहीं है कि कैसी परिस्थिति आ रही है कैसी नहीं ! बात तो भीतर की है ! भीतर यदि राम में राम की ऊर्जा से संयुक्त नहीं तो करना है संयुक्त !

यदि ध्यान बिखरता है तो प्रार्थना करनी है कि यह जन्म व्यर्थन जाए ! गुरूदेव ! आपके लायक नहीं तो कोई बात नहीं ! आपको और बहुत मिल जाएंगे ! पर यह जीवन वृथा न जाए ! कर दीजिए कृपा ! बार बार करनी है प्रार्थना !

दूसरों के लिए करनी है गुप्त प्रार्थना ताकि मन की मैल धुलती रहे ।

बार बार कहते जाना है सब आपका ! आपका और केवल आपका !

लक्ष्य सदा सदा स्मरण रहे । कभी गलती से भी न भूलें । गुरूचरणों के लाएक नहीं हैं । कोई बात नहीं । पर उन्ही चरणों में अरदास करते जाना है कि जन्म वृथा न जाए !

पति पत्नि संबंध

June 7, 2018

क्या पति पत्नि के मध्य देहिक प्रेम आवश्यक है ?

गृहस्थ जीवन देहिक संबंधों का जीवन है । संतों के अनुसार ऋण चुकाने का जीवन है । क्योकि देहिक संबंध हैं सो देहिक प्रेम भी ।

पर यदि साधक दम्पति साधनारत हैं और संतान का ऋण चुका चुके हैं , तो देहिक संबंध उनके आपस के ताल मेल पर निर्भर करता है।

यदि दोनों को आवश्यकता नहीं तो बहुत सुंदर साधनामय जीवन चल सकता है और बहुत साधक दम्पत्तियों का चलता भी है ।

पर यदि किसी एक को भी आवश्यकता है तो एक साधक अपना कर्तव्य निभाता है । कर्तव्य न निभाना मानो ऋण चुकता नहीं हुआ । बहुत बार पति पत्नि के संबंधों में तनाव इस कारण भी आता है । दोनों में से कोई चिढ़ चिढ़ करता है । यदि आप साधक हैं और फिर भी आपकी देह को आवश्यकता है किन्तु आपका साथी तैयार नहीं है तो राम नाम की अथाह औषधि का सेवन कीजिएगा ।

किन्तु यदि साथी क्रूर व अपमानित करता है, तो कृपया आत्मसम्मान रखने की आवश्यकता है । साधना के लिए अपनी भावनाओं की रक्षा करने की आवश्यकता है ।

सो जैसी परिस्थिति प्रभु राम के श्रीचरणों में नतमस्तक होकर राम नाम से ओतप्रोत होकर सेवा या भोग कीजिए । जब तक देह है तो वह पंचभूत में है उसकी अपनी ज़रूरतें भी है । न अतिश्य दबाना सही है न अतिश्य भोग । यदि एक साधनारत है और इच्छुक नहीं किन्तु दूसरा अभी वैसे भावों का नहीं तो ज्योतिर्मय राम को भीतर धारण कर देहिक सेवा की जा सकती है ।

साधना त्याग है , व समर्पण । स्वार्थ से पार ।

सर्व श्री श्री चरणों में

साधक व आत्मसम्मान

June 7, 2018

साधक व आत्म सम्मान

साधक जब साधना करता है अपने गुरू के वचनों के अनुसार चलना आरम्भ करता है तो वह झुकना सीखता है । जब वह झुकना सीखता है तो न केवल वह परमेश्वर के आगे बल्कि संसार के आगे भी झुकना आरम्भ कर देता है । पर कहीं न कहीं इस झुकने को संसार उसकी कमज़ोरी मान लेता है । परम पूज्यश्री महाराजश्री कहते हैं कि जो झुकना सीख गया, उसको कमजोर न समझिएगा। उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता । पूज्य महाराजश्री कहते हैं कि बिना ज़हर के फुंकारना आवश्यक है या मौन हो जाना बिना पीडा के ।

पत्नि हसती है। प्यार करती है। आपके गाली गलोच के बाद फिर रात में मान कर सेवा करती है । उसके प्रेम व समर्पण को कमज़ोरी नहीं मानना । फिर एक दिन क्योंकि आप तो सुधरे नहीं होते , आप कुछ ऐसा घिनौना कर देते हैं कि मर्यादा ही लाँघ जाते हैं। पत्नि सह लेती है पर भीतर कुछ टूट जाता है । अब आपके फुसलाने पर प्यार दिखाने पर भी वह नहीं जुड़ता ! यह परमेश्वर की कृपा होती है। पत्नी को वह आत्म सम्मान सिखाते हैं। बताते हैं कि तू जो हँसती खेलती रहती है तू इंसान है ! तुझे पीडा हुई मुझे भी पीडा हुई ! अब आदर से जाना है ।

आप ग़रीब है। पर रिश्तेदार अमीर । आप बधाई देने दूसरे के उत्सव में सम्मिलित होने गए हैं। और जिनके लिए गए हैं वे ही आपका तिरस्कार कर देते हैं ! आप बार बार नजरअंदाज करते हैं अपमान सहते है और दूसरा बार बार आपको अपमानित करता है । आप सब भूल कर फिर प्रेम रखते हैं क्योंकि आप साधक हैं । पर अपने मन की बात बहुत ही अदब से प्यार से धीमि गति से किन्तु शक्ति भरे शब्दों से कहना आवश्यक है ।

सब परमेश्वर से ही आता है किन्तु अपने मन में क्या लेकर जाना है यह हमारे हाथ में है !

एक नव विवाहित साधक । पत्नि पढी लिखी स्वतंत्र व धार्मिक विचारों की किन्तु पत्नि धर्म निभाने से साफ मना करती है । पति साधक है । दूसरे की भावनाओं का मान रखता है । किन्तु इंसान भी है। प्रेम का इजहार करता है तो पत्नि गलत व्यवहार का मिथ्या आरोप लगाती है । कहती है हो जाओ अलग मुझे फ़र्क़ नहीं पडता, मेरे पास नौकरी है , घर है । पति साधक होकर झुक कर हर जगह कोशिश कर रहा है पर पत्नि में संग रहने के भाव ही नहीं है । पत्नि ने पढने के लिए भी सहमति दी कि बाहर जा कर पढिए ! किन्तु पत्नि में संग निभाने के भाव नहीं ! पति पीड़ित हो रहा है ! यह भी एक तरह से उसके झुकने का प्रेम का शोषण है !

झुकिए किन्तु आत्म सम्मान को इतना आहत न होने दें कि पीडा घाव बन जाए !

राम नाम जहां एक ओर झुकना सिखाता है वहां दूसरी ओर आत्म सम्मान रखने की शक्ति भी प्रदान करता है और घावों को भरने की औषधि भी देता है ।

राम से प्रेम ही जीवन का लक्ष्य बनाना है । इतना प्रेम कि संसार की माया टीवी के चैनल बदलने की तरह बन जाए ! और हम आराम से स्वयं वह बंद कर सकें व उठ कर जा सकें ।

श्री श्री चरणों में

राम हैं दाता

June 6, 2018

जो राम से नहीं मिल सकता वह कहीं से नहीं मिल सकता ~ परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्रजी महाराजश्री

” राम ” परम प्यारे सुहृद सब कुछ दे सकते हैं । वे ही दाता शिरोमणि हैं । उनसे ही सब आता है व उनमें ही सब समा जाता है। जो भी जीवन का उद्देश्य है हमारा वे सब जानते हैं। वे सर्व जाननहार हैं । यदि हम उन्हें चाहते हैं, तो वे सभी प्रबंध करते हैं कि हमारा हर संबंध हर ओर से टूटे ताकि हम अपने प्यारे तक की यात्रा पूर्ण कर सकें ।

एक साधक हर तरह की परिस्थिति स्वीकार करता है ताकि वह एक क़दम और अपने प्यारे के निकट हो सके । उसे अपने प्यारे की राह पर बहुत कुछ झेलना पडता है ! उसे समझ न भी होते हुए वह अपने गुरू द्वारा बताए गए मार्ग पर चलता जाता है। पर जहां गुरू की नहीं सुनता, वहां पिटता है ! गुरू बार बार कहते हैं कि यह संसार तेरा नहीं ! यहां तेरा कोई नहीं ! तू क्यों बाहर जाता है ! तो जब साधक यह सब नहीं मानता तो वह पिटता है ! गुरू कहते हैं भीतर जा , नाम जप । जब साधक नहीं करता तो गुरू क्या करे? गुरू कहते हैं देह तू नहीं है, मन तू नहीं है , बच्चे के समान, एक शिशु के समान बन जा, साधक नहीं बनता, उसे बडा बनना है, अपनी चलानी है, तो गुरू कहते हैं चला लो फिर ! यहां साधक बिल्कुल अकेला रह जाता है । जब होश आता है तो राम की शरण जाता है ! कि भगवन अब क्या होगा मेरा ?

प्रभु कहते हैं कि सब द्वार बंद करदे और बस मेरा हो जा ! मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा ! अब साधक को कुछ फ़र्क़ नहीं पडता । लोग बदल जाएं, परिस्थितियाँ बदल जाएं, मान अपमान, तुलना, पक्षपात, पीडा चुभन , सब राम द्वारा भेजी गई होती है ताकि बस राम की धुन लग जाए ! गहन राम से प्रीति।

हे राम मुझे दीजिए अपनी लगन अपार

अपना निश्चय अटल दे अपना अतुल्य प्यार