धरती माँ

28 July , 2018

चलते चलते आज ध्यान धरती माँ पर प्रभु ले गए । उनका ध्यान आते ही हृदय से न जाने कैसी टीस निकली कि अंदर से माँ निकल पड़ा । उनकी सहनशीलता के आगे तो बड़े बड़े अवश्य नत मस्तक होंगे ।

मैंने माँ को प्रणाम किया और गद् गद् होकर कहा – माँ !

माँ मुस्कुराई !

मैंने कहा माँ , कैसा हृदय है आपका!!! इतना विशाल !! समस्त संसार का पोषण करती हो आप । सदियों से जीवन मृत्यु का चक्र देखती हो आप । सृजन व क्षय का पावन क्षेत्र हो आप ! कितने ही युद्ध देखे हैं आपने ! मानव के कर्मों के भागीदार भी बनती हो जब बाढ़ भूकम्प आदि आते हैं। मानवी युद्ध भी सहन करती हो !! माँ कैसे सम्भव है इतनी सहनशक्ति ! हम तो कोई कुछ कह दे या न भी कहे, तो भी सहन नहीं करते पर आप कैसे कर लेती हैं सब !

माँ मुस्कुराईं । बोलीं – मैं उस सहनशीलता के स्रोत से जुड़ी जो हुई हूँ । इसलिए मैं है ही नहीं ! कुछ मेरा है ही नहीं इसलिए महसूस यदि होता भी है तो वे देवाधिदेव सोक लेते हैं ! उनकी लीला है न सारी सो लीला निहारती रहती हूँ ।

माँ हम तो आप पर चलते हैं, खेती इत्यादि करते हैं, और कभी कृतज्ञता भी नहीं व्यक्त की !! पर आप फिर भी कभी रुष्ट नहीं हुई पर देती ही देती गई, अपने प्रेम में लिप्त सभी को स्थान देती जाती हैं !

माँ बोली – यह तो मेरे स्वामी का गुण है ! उन्हें तो केवल देना आता है । प्रेम करना आता है। अपना प्रेम छिपाते हैं और हम जैसों से व्यक्त करवा देते हैं ! इसलिए कभी नज़र ही नहीं जाती, अपेक्षा ही नहीं होती कि कोई कुछ दे !

मेरे अश्रु टप टप बहते जा रहे थे । शाष्टांग प्रणाम किया । हृदय अद्भुत सा शान्त हुआ । बारम्बार प्रणाम कोटि कोटि प्रणाम । मेरा मन किया मैं भी ऐसी बन जाऊँ ।

मेरी आज की सीख 😇

प्रभु से एक्य होने पर उसके गुण स्वयमेव आते जाते हैं, जैसा गुरूजनों ने सिखाया है। सहनशीलता, उसकी लीला को देखना व सराहना, केवल उससे पूर्ण रूप से जुड़े रहने पर ही सम्भव है।

श्री श्री चरणों में 🙏

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