Aug 29, 2018
आज का आत्मिक चिन्तन
मेरी आत्मा पवित्र है और दूसरी की आत्मा भी पवित्र है
कहां है मलिनता ? हमारे मन में ! केवल मन में ! गुरूदेव कहते हैं कि मन तो है ही नहीं ! तो कहां है मलिनता ? हमारे विचारों में ! विचार जब मलिन होते हैं तो व्यवहार भी दूषित हो जाता है ! पसंद न पसंद , सब विचारों में है ! राग द्वेष सब विचारों में हैं । उसने ऐसा कहा ! तो विचार टेढ़े बन गए ! उसने ऐसा क्यों नहीं कहा ! तो भी विचार टेढ़े बन गए ! विचारों में ही है मलिनता !
किन्तु विचार कर्म बना देते हैं और संस्कार बन जाते हैं ! चाहतें , इच्छाएं, भोग, लालसाएँ सब संस्कार बना देते हैं ! और बन जाते हैं आवरण ! करोडों आवरण जो ढक देते हैं उसे जो पाक है ! ढक देते हैं उसे जो आदि काल से अलग अलग देह धारण कर रही है !
गुरूजन कहते हैं कि आपकी आत्मा त्रेतायुग में भी थी, द्वापर में भी थी व हज़ारों युगों में भी थी ! भेद केवल देह का ही है ! विचारों के व कर्मों के संस्कार तभी से उसे लिप्त करते आए है ! वह तो पूर्ण पवित्र है ! परमेश्वर का अपना ही अंश जो ठहरी !
आपकी आत्मा मेरी आत्मा पाक ! भेद तो केवल उस पर पड़े आवरणों का है ! बस केवल उनका !
बहु का आत्मा स्वरूप भी पवित्र और सासु माँ का भी !
राजनेता का भी व संत का भी !
कैकयी की भी व भरत जी की भी !
भेद केवल विचारों व आत्मस्वरूप पर पड़े कर्म संस्कारों का है !
सो हम देह व मन के पार जाकर अपने आत्म स्वरूप को जब निहारें तो वह तो पूर्ण पवित्र ! पवित्र से भी पवित्र ! लेश मात्र भी दाग नहीं ।
उस पवित्रता को मन तक लाना है विचारों तक लाना ! इतना बढ़ाना है अपने पवित्र आत्म स्वरूप को कि वह हमारे रोम रोम में प्रकाशित हो जाए ! आज सम्भव हो तो ध्यान में और, और सम्भव हो तो चलते फिरते भीतर अपने पावन स्वरूप में हम डुबकी मारें !
तेरे विमल सुरूप में , नहीं दोष की लाग ।
तेरे अपने आप में , नहीं पाप की आग ।।
( श्री भक्ति प्रकाश जी )