मैं व सब प्रेमस्वरूप हैं

Aug 28, 2018

आज का आत्मिक चिन्तन

मेरी आत्मा या मैं भी प्रेम स्वरूप व दूसरे भी प्रेम स्वरूप ।

जीवन की भाग दौड़ में, संसार के कार्यों में बहुत आसान है मन के विचारों में घूमते रहना और हर पल अपनी देह व दूसरों की देह पर केंद्रित रहना ! या अपनी देह व दूसरों के व्यवहार पर केंद्रित रहना । और जब अपने साथ थोड़ा समय मिलता हो तो व्यर्थ समय गँवा दिया या अपने विचारों पर मनन कर मन का उदास होना अवश्यंभावी है ।

इसी बीच यदि हम देह व मन से पार निकल जाएं और अपने असली स्वरूप को निहारें तो हम पाँतें हैं कि वह तो प्रेममय है ! वहाँ का प्रेम तो कभी कम नहीं होता । सतत वैसा ही बना रहता है ! हम उसे छू नहीं पाते बहुत बार वह अलग बात है पर वह तो प्रेम हर एक के लिए छलकता रहता है । और अपने से हट कर दूसरे पर नज़र डालें तो वहाँ भी प्रेम ही है भीतर छलक रहा किन्तु सम्भव है कि अछूता है ।

आज कार्य में एक मीटिंग के दौरान कार्यकर्ता बोली कि जब भी दूसरे से मिले यह विश्वास रखें कि कि दूसरे की नियत सकारात्मक है । सांसारिक तौर पर यह सही बैठता है कि नहीं इसका मुझे समझ नहीं किन्तु आध्यात्मिक नज़र से यह कितना सही है ! दूसरे में प्रेम ही यदि दिखे तो मानो हम में भी प्रेम ही दृष्टिगोचर हो रहा है । क्योंकि संतगण कहते हैं जैसा मन वैसा संसार ! जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि !

सो आज हम स्वयं को प्रेममय पाएँ व दूसरों को भी ! जब तार टूट जाए तो वापिस डुबकी मारें और अपने प्रेममय आत्मस्वरूप मे ही रहें !

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