गुरू मंत्र व प्रभु का रूप

Sept 26, 2018

प्रश्न आया कि मुझे भगवान कृष्ण से रोम रोम से प्रेम है। दीक्षा परम पूज्य़श्री स्वामीजी महापाजश्री से ली है किन्तु मेरा मन गुरू मंत्र की बजाए कृष्ण नाम जपने को करता है ।

जब दीक्षा मिलती है तो उसे नव जन्म कहते हैं।

जब असली में जन्म होता है तो केवल देह नया होता है किन्तु संस्कार पुराने होते हैं।

इसी तरह जब गुरू अकारण कृपा कर जीवन में आते हैं और झोली में नाम दान देते हैं तो उसका मतलब कि वे पुराने संस्कारों को बदलने के लिए आ गए हैं। जहां पहले थे वहाँ से आगे बढ़ने का समय आ गया है।

मूर्ति पूजा यदि स्वाभाविक लगती थी तो मानो वह पुराने संस्कारों के कारण । उपवास रखने, व अन्य विधि करनी सब पुराने संस्कार । किन्तु गौण !

मूर्ति पूजा से जब हम मानसिक पूजा की ओर बढ़ते हैं तो वह भीतर की यात्रा का आग़ाज़ होता है। जो करना हमारे लिए स्वभाविक है किन्तु गौण और गुरू की शिक्षाएँ बहुत भिन्न हैं जैसे आत्मचिन्तन तो मानो गुरू बहुत ही उच्च उत्थान के लिए मिले हैं।

उत्थान किन्तु गुरू आज्ञा में सम्भव है । गुरू मंत्र से सम्भव है।

मन वहीं खींचता है जहां उसे आदत है। किन्तु उसका रुख़ गुरू आज्ञा के कारण बदलना बहुत बड़ा त्याग है ।

मंत्र राम लेना अनिवार्य है। किन्तु मन में रूप कोई भी ले सरते हैं व किसी भी रूप से प्रेम कर सकते हैं। जैसे भगवान कृष्ण, धनुषधारी प्रभु राम, भगवती मइय, गुरूजन , ज्योति , सूर्य , राम शब्द या शून्य। ऐसा पूज्य गुरूदेव कहते हैं।

नाम से प्रीति हो जाए ! ऐसी प्रार्थना करते रहनी है। नाम ही भीतर की गहराइओं में स्वयं लेकर जाएंगे।

परमेश्वर रूप व नाम से पार है ! वे अथाह मौन में पाए जाते हैं जहां सब रूप नाम विलीन हो जाते हैं।

Leave a comment