जीवन को स्वीकारे

Nov 8, 2016

जीवन को जैसा है स्वीकार कीजिए ~ डॉ गौतम चैटर्जी Positive Mantra

हे करुणामई माँ कृपा कीजिए । जो आप लिखवाएँ वह थोथा शब्द न हों माँ , जीवन में यथार्थ रूप में उतरे ।

बहुत गहरा है यह छोटा सा वाक्य । कई लोग स्वाभाविक रूप से ऐसे होते हैं। मस्त ! जो आ गया ले लिया, जो मिला स्वीकार कर लिया ! बस जीवन जैसा है जीते चले गए ! पर सब ऐसे नहीं होते ! ऋतुओं की भाँति जब परिस्थितियाँ बदलती हैं तब एक जैसा नहीं रहा जाता ! साधारण मनुष्य पिस जाता है, विषाद/ depression में चला जाता है ।

पर साधक को अलग ढंग से सिखाया जाता है। साधक को जीवन जीना सिखाया जाता है ! समर्पण के साथ । यह विश्वास सिखाया जाता है कि जो हो रहा है वह परमात्मा की इच्छा से हो रहा है ! और परमात्मा की करनी में कोई दोष नहीं । जो राम नाम जपते हुए, संतोष में रहते हुए, जो मिले उसे स्वीकार करना सिखाया जाता है !

गुरूजन तो यहाँ तक सिखाते कि यदि सत्संग में आए हैं तो अपने दर्शन करवाने नहीं, बल्कि गुरू के दर्शन करने ! पर हमें होता कि हम पर नज़र पड़ जाए। या हम और क़रीब चले जाएँ कि नज़र पड़ जाए ! पर ऐसा नहीं ! गुरू के संग संबंध में तक यह स्वीकारना सिखाया जाता कि जैसे गुरू रखे, जहाँ गुरू बिठाए बस वहीं गुरू है , और इस तथ्य को स्वीकार करना सिखाया जाता ।

हम गृहस्थ साधक हैं। हमारी अधिकतम समस्याएँ घरेलु होती हैं ! पति पत्नि के संबंध, सास बहु, माता पिता के साथ बच्चों के संबंध ! और कई बार जीवन यहीं उलझ जाता है। क्यो? क्योंकि हमारे अंदर काल्पनिक व छिपी हुई इच्छा होती है कि पति/ पत्नि का प्यार मिले, सास ससुर सुन लें , बच्चे कहना मान जाएँ, प्रमोशन होती रहे, इत्यादि इत्यादि! यदि यह नहीं होता तो दुखी व चिन्तित रहते हैं !

पर क्योंकि साधक हैं, और महामंत्र राम नाम लेते हैं सो हमारी सोच व शक्ति व ऊर्जा भिन्न है । यदि हम समर्पित हैं तो हम ऐसी समस्याओं में गुरूकृपा से ऐसे चलते हैं जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं ! हर कोई राम दिखे , हर पल राममय रहें, यहाँ तक पहुँचने के लिए असंख्य राम नाम , गुरूकृपा व समर्पित भाव गुरूजन सिखाते हैं कि अति आवश्यक है । बहुत से भिन्न रास्ते हैं, पर मुझे तो यही समझ आया ! आप सब तो और बेहतर जानते होंगे ! पर जैसे लिखवाया वही श्री श्री चरणों में !

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