Monthly Archives: January 2020

ध्यान 20

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से

((486))

ध्यान

भाग-२०

परमात्मदेव को अपने अंग संग मानकर, गर्दन झुका कर, श्री चरणों में करे प्रणाम ।

बैठ जाए सीधे होकर, पीठ सीधी रखें, रीड की हड्डी गर्दन परमात्मा के आमने-सामने रहे , सभी आंख बंद करें । जहां जहां भी हो साधक जनों आप मेहरबानी करके इस वक्त बैठ जाइएगा । आंख बंद करके देखिएगा त्रिकुटी स्थान को, देखते रहिएगा ।

गीता जी फरमाती है जो व्यक्ति प्रसन्न चित्त रहता है, उसे बहुत जल्दी परम शांति भी लाभ हो जाती है, शीघ्र ध्यान अवस्था लाभ हो जाती है ।

एक light सी बात से चर्चा को जारी रखते हैं । कल एक युवक का पंजाब से पत्र आया था । लिखते हैं computer engineer हूं। अफगानिस्तान में मुझे नौकरी मिल गई है। जाने से पहले मैं मिलता जाऊंगा । दूसरा भाग था, मैंने एक लड़की भी पसंद की है। वह तेरे शहर की है, दिल्ली की । पहले रोहिणी रहती थी, अब द्वारका shift कर गई है । रंग सांवला है, इसलिए मेरे पिता श्री को बहुत पसंद नहीं । उन्होंने कहा है मेरे लिए एक बार उसकी राय ले लो । यह तो हो गई साधकजनों पत्र की बात ।

महिला है या पुरुष । मेरा एक से affair चल रहा है, घरवाले मान नहीं रहे । मेहरबानी करके हमारी सहायता करो । यदि कहूं इंतजार करो माता-पिता को मनाओ, तो यह कहने में उन्हें लज्जा नहीं आती कि हम तो बहुत आगे बढ़ चुके हुए हैं ।‌ इन दोनों बातों से भक्तजनों मुझे यह लगता है की मेरे अंदर साधुता के चिन्ह नहीं है । मैं साधको को साधु दिखाई नहीं देता । इसीलिए उन्हें कोई बात करने में, या लिखने में कोई संकोच नहीं है, लज्जा नहीं है । जहां लज्जा नहीं है, वहां गुरु भाव नहीं हो सकता ।

नारी का तो आभूषण, जिस नारी में लज्जा नहीं, शर्म नहीं, उसे नारी कैसे कहा जाए। जिस साधक में लज्जा नहीं, शर्म नहीं उसे साधक कैसे कहा जाए ?

ऐसी बातें कभी हंसाती भी है, और कभी रुलाती भी है । यह सिर्फ नए साधकों का ही हाल नहीं, पुराने साधकों को भी इससे परहेज नहीं है । प्रोत्साहन देते हैं बढ़-चढ़कर ऐसी बातें करते हैं । मुझे लगता है कि मुझे बाल बढ़ाने चाहिए, ताकि मैं भी साधुओं जैसा लगने लग जाऊं, तो शायद साधकों को कुछ सोच विचार आए इससे क्या बात करनी चाहिए, क्या बात नहीं करनी चाहिए ?

मुझे पूरा यकीन है स्वामी जी महाराज से कभी किसी ने ऐसी बात ना की होगी, ना लिखी होगी । फिर मुझ बेचारे के साथ ऐसे क्यों होता है । कोई मेरे अंदर ही कोई कमी होगी, कोई दोष होगा ।

कल ध्यान के अंतर्गत आप से चर्चा की जा रही थी मन के बारे में । मन विचारों का, संस्कारों का पुंज है । कोई हमारे शरीर में कोई organ, कोई अवयव नहीं है । कल आपसे एक शब्द आपके सामने प्रयोग किया था, मन कलपता है, क्यों कलपता है ? कलपता अर्थात दुखी है, व्यथित है । सारे संसार को दुखी करने वाला, स्वयं दुखी है, शायद इसीलिए हमें दुखी कर रहा है । उसे जो चाहिए वह अभी तक मिल नहीं पाया।

उसे राम चाहिए, उसे भक्ति चाहिए, उसे सेवा चाहिए, और हम दे रहे हैं उसे पुत्र का सुख, बड़ी गाड़ी का सुख, बड़े मकान का सुख, बड़े परिवार का सुख, प्रशंसा यश मान का सुख, बड़ी बड़ी उपलब्धियों का सुख। इससे उसका पेट नहीं भरता । इसलिए वह भटक रहा है । जहां मन होता है वही आप होते हैं । याद रखिएगा इस बात को, यह परम सत्य है ।

कक्षा में बैठा हुआ विद्यार्थी शरीर से तो कक्षा में बैठा हुआ है, कभी अध्यापक, समझदार अध्यापक, जो हर एक को देखते रहते हैं, कभी उससे पूछते हैं -बेटा, अभी मैंने क्या कहा ? तो झट से वह कह देता है sorry sir मैंने सुना नहीं । क्यों ? शरीर से तो मैं था यहां पर, लेकिन मन से मैं कहीं और था। जहां मन होता है, वही आप होते हैं । यह मन विविध प्रकार की कल्पनाएं करता है। यहीं से कल शब्द कलपता मैंने लिया था।

संकल्प विकल्प शास्त्र कहता है ।

मैं अशिक्षित इसे कल्पना कहता हूं । तरह-तरह की कल्पनाएं करता है । प्राय: संसारिक, अधिकांश सांसारिक । क्यों ? हमने जन्म जन्मांतर से इसे इन्हीं कल्पनाओं के लिए अभ्यस्त कर लिया है । मन तो वही रहा, शरीर ही बदले होंगे ना । जिस किसी के शरीर ने भी इसे यही अभ्यास दिया है, इसे यही अभ्यास करवाया है । संसार में किस प्रकार से जाना है, सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों में ही सुख है ।

लेकिन मन कहता है नहीं, जिस सुख कि मुझे प्यास है, जिस सुख कि मुझे भूख है, वह सुख मुझे जन्म जन्मांतर से किसी वस्तु, किसी सांसारिक वस्तु या व्यक्ति से नहीं मिला । इसलिए मेरी भटकना बनी हुई है। वह भटकता है, तो फिर हम भी साथ ही साथ भटकते हैं । क्यों? क्यों जहां मन होगा वहां हम होंगे । इसी को हम भटकना कहते हैं ।

कभी किसी प्रकार की कल्पना, कभी किसी प्रकार की कल्पना । कल्पनाओं को हवाई किले भी कहा जाता है ।‌ योजना बनाता रहता है, अभ्यास इस प्रकार का इसे हो चुका हुआ है ।‌ इस अभ्यास को विपरीत दिशा में करना ही ध्यान का लक्ष्य है, साधक जनों ध्यान का अभ्यास है ।‌ इसको संसार से हटाकर तो परमात्मा की और लगाना ही ध्यान का लक्ष्य है, और ध्यान की उपलब्धि।

इसीलिए संत महात्मा कहते हैं विषयों में आसक्त मन, संसार के प्रति आसक्त मन, बंधन का कारण, और परमेश्वर के प्रति आसक्त, अनुरक्त मन, मोक्ष का साधन ।

एक ही मन है । एक तरफ लग जाता है, तो हमें बंधन मानो जन्म मरण के चक्र में डाल कर रखता है । वहां से हटकर यदि किसी विरले का, किसी भाग्यवान मनुष्य का, साधक का, यदि मन परमात्मा के साथ लग जाता है, तो वही मन उसके मोक्ष का साधन बन जाता है।

एक ताला, एक ही चाबी । उसी से वह ताला बंद हो जाता है, और उसी से ताला खुल जाता है । यह मन है । क्या करना है साधक जनों हमें, यह तो वैसे ही जानकारी की बातें थी । इतना ही जानना पर्याप्त है, इससे अधिक हमें जानकारी की जरूरत नहीं । इन कल्पनाओं की दिशा कैसे बदली जाए ?

जो सांसारिक कल्पनाएं कर सकता है, भौतिक कल्पनाएं कर सकता है, यदि इसे सिधाया जाए, इसे समझाया जाए, इसे डांटा फटकारा जाए, यह सब साधन इसके साथ अपनाने पड़ते हैं, अपनाने पड़ेंगे । अन्यथा यह मन कभी मानने वाला नहीं है । क्यों ?

यह समझता है यह व्यक्ति जो मुझे इस प्रकार से सिधाने जा रहा है, यह विश्वास के योग्य नहीं है । मुझे तो चाहिए ही था परमात्मा । लेकिन यह मुझे जन्म जन्मांतर संसार देता रहा है । अब मैं इसकी बात पर विश्वास नहीं करता ।‌ आप आते हो सत्संग में, लेकिन मन आप पर विश्वासी नहीं है की आप वास्तव में सत्संग में ही बैठे हुए हो, या कहीं और ।

डांटिए, समझाइए, प्यार कीजिए, हंसी मजाक कीजिए, इन साधनों से मन संभलेगा, सधेगा, तब परमात्मा की और लगेगा ।

आज साधक जनों अधिक नहीं एक बात शुरू करते है, कल्पना की दिशा कैसे बदली जाए ।

आज जितना समय ध्यान के लिए बैठेंगे, यह कोशिश कीजिएगा, यह कल्पना कीजिएगा;

मैं बैठा नहीं, मैं चल रहा हूं । परमेश्वर मेरे साथ साथ चल रहा है । आप कह रहे हैं – परमात्मा मैं बहुत नन्हा हूं, भटका हुआ हूं, जन्म जन्मांतर भटकता रहा हूं । मेरी बांह कसकर पकड़ लो, ऐसे पकड़ लो कि यह कभी छूटे ना । मैं नालायक हूं, मैं इसे छुड़ाने की कोशिश करूंगा, लेकिन आप परमात्मा पक्के रहिएगा । आप मेरी बांह को जोर से पकड़ कर रखिएगा, कसकर पकड़ कर रखिएगा, कि मैं किसी भी हालत में इसे छुड़वा ना सकूं ।

आज इतनी ही कल्पना कीजिए;

राम जी आपके अंग संग चल रहे हैं, कहीं जा रहे हैं आप । यात्रा के लिए निकले हुए

हैं । राम जी आपके साथ साथ जा रहे हैं। आपने उन्हें अपनी बांह पकड़वा दी है, और आप यह वार्तालाप, यह प्रार्थना, परमात्मा से कर रहे हैं।

राममममम……

ध्यान 19

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से।

((485))

ध्यान

भाग-१९

परमेश्वर को अपने अंग संग मानकर, गर्दन झुका कर, करें प्रणाम, बैठ जाएं सीधे होकर, गर्दन रखें परमात्मा के आमने-सामने, रीड की हड्डी सीधी, सब आंख बंद करें, आंख बंद करो जी, देखो त्रिकुटी स्थान को ।

Steps पुन: दोहराता हूं, परमेश्वर को अपने अंग संग मानकर, झुक कर प्रणाम करके, सीधे होकर बैठ कर, आंख बंद करके, बिंदी वाली जगह, त्रिकुटी स्थान, भृकुटी स्थान, आज्ञा चक्र, आप जी का तीसरा नेत्र, आंख बंद करके इस स्थान को देखिए। मन ही मन राम राम पुकारिये, याद कीजिए, गुंजाइए ।

यह steps हर साधक को कंठस्थ होने चाहिए । रोज करने की चीज है । सुबह शाम, त्रिकाल संध्या, भी कर सकते हैं । जिन साधकों के पास समय हो, दिन में दो बार तो बैठना ही चाहिए ध्यान के लिए ।

किस लिए ध्यान की इतनी आवश्यकता कही जा रही है, क्यों बल दिया जा रहा है ? स्वामी जी महाराज तो बड़े बलाढ्य शब्दों में समझाते हैं, परमेश्वर की कृपा का पात्र बन जाना ही ध्यान का लक्ष्य है । सकल साधनओं का लक्ष्य भी यही है । ध्यान का प्रमुख लक्ष्य परमेश्वर से जुड़ना, जिसे योग कहा जाता है । दुखों से वियोग, परमेश्वर से योग, यह ध्यान का लक्ष्य है । जो कुछ भी इसके लिए किया जाता है, वह तो सब क्रियाएं हैं । लक्ष्य तो यही है, परमेश्वर के साथ युक्त होना।

स्वामी जी महाराज फरमाते हैं, ध्यान का समय हमारे लिए मात्र व्यायाम का समय नहीं। योगाभ्यास अथवा प्राणायाम का समय नहीं । हमारे लिए ध्यान का समय वह है, जिस वक्त हम भरसक प्रयास एवं अभ्यास कर रहे हैं, हमारी तार परमात्मा के साथ जुड़ जाए ।

साधारण उदाहरण देकर स्वामी जी महाराज समझाते हैं,

बिजली की तार जुड़ती है स्रोत के साथ, तो बिजली का प्रवाह । आपकी तार यदि परमात्मा से जुड़ेगी, तो परमात्मा की कृपा का प्रवाह क्यों नहीं होगा, परमात्मा की दया का प्रवाह क्यों नहीं होगा, परमात्मा के प्यार का पर वह क्यों नहीं होगा ? यदि नहीं हो रहा, तो यही समझना चाहिए की तार टूटी हुई है । पानी की नली pipe कहीं blocked है, तभी पानी आपकी टूटी में नहीं आ रहा। अन्यथा कोई कारण नहीं, क्यों ना आए ? पानी तो बह रहा है पाइप में, औरों के पास तो जा रहा है । आपके घर यदि नहीं पहुंच रहा, तो आपको किसी प्लंबर को बुलाकर तो दिखवाना होगा कि कहां blockage है, और उसे दूर करवाना होगा, ताकि पानी आपको पीने को मिल सके । कृपा रूपी जल के बिना, कृपा रूपी दूध के बिना बच्चा कैसे जिएगा ? बहुत जरूरी है।

क्या ऐसी चीज है साधक जनों, जो इस मन में परमेश्वर के साथ जुड़ती है, या परमेश्वर से वियुक्त होती है, उन्मुख होती है । क्या चीज है वह ? उसे ही देवियो सज्जनों मन कहा जाता है। यह मन ही परमात्मा से विमुख होता है, और मन ही परमात्मा के उन्मुख होता है। मन ही परमेश्वर से वियुक्त होता है, और मन ही परमेश्वर से युक्त करना है । इसे ही जोड़ना है । यह मन है क्या ?

आप सब जानते हो मन नाम का कोई अवयव, कोई organ हमारी body में नहीं है । डॉक्टरों से पूछ लीजिएगा, जिन्होंने इस शरीर का अध्ययन किया हुआ है। एक एक अंग को

खोल-खोल कर देखा हुआ है, सारे शरीर को चीर-फाड़ कर देखा हुआ है, उनसे पूछ लीजिएगा वह आपको स्पष्ट बताएंगे, confirm करेंगे मन नाम का organ कोई हमारे शरीर में नहीं है । जैसे जिगर है, हृदय है, मस्तिष्क है, आंखें हैं, गुर्दे हैं, इस प्रकार का organ जिसे मन कहा जाता है, वह हमारे शरीर में नहीं है । संत महात्मा बहुत सरल शब्दों में समझाते हैं, मन कुछ नहीं है, It is just a bundle of thoughts.

कर्म संस्कारों के पिछले जन्मों के, ना जाने कब से जीवन चला आ रहा है । उन जन्मों में जो कर्म हमने किए, उनके जो impressions जो पड़े रहते हैं, संस्कार जिन्हें कहा जाता है, दबे रहते हैं, उभरे रहते हैं, कुसंस्कार भी होते हैं, सुसंस्कार भी होते हैं, इत्यादि इत्यादि;

उन कर्म संस्कारों का, अपने ही किए कर्मों का, ध्यान दीजिएगा । अपने ही किए कर्मों के संस्कार, उनका पुंज मन कहाता है । संतों महात्माओं ने स्पष्ट करने के लिए, हमें समझाने के लिए कितने सुंदर ढंग से हमें समझाया है । तो मन क्या हुआ, it is just a bundle of thoughts.

कर्म जो impressions छोड़ता है, जो कुछ हम करते हैं, जो कर्मों का remnant रहता है, उन संस्कारों को, उन impressions के पुंज को, इकट्ठा कर लिया जाए, तो उसे मन कहा जाता है। मन नाम का कोई organ हमारे शरीर में नहीं है ।

स्वभाव है इसका कल्पना करना । यह मन क्या करता है ? जैसे बुद्धि का स्वभाव है निर्णय लेना, मन का स्वभाव है कल्पना करना । इसे संकल्प, विकल्प कहा जाता है ।‌ पंजाबी में देवियो सज्जनों शब्द मुझे बहुत अच्छा लगा, इसलिए आपकी सेवा में प्रयोग किया जा रहा है । यह मन कलप रहा है, कलपता है । क्यों कलपता है ? जो इसे चाहिए वह उसे मिल नहीं रहा, इसलिए मन कलप रहा है । कलपता है मन । पंजाबी में कहते हैं क्यों कलप रहे हो ? यह मन कलप रहा है, इसे परमात्मा चाहिए, इसे परमात्मा की कृपा चाहिए, इसे परमात्मा का प्यार चाहिए, यह परमात्मा से प्यार करना भी चाहता है, और परमात्मा से प्यार पाना भी चाहता है, लेकिन इसे दोनों नहीं मिल रहे । यह चाहता कुछ है, आप देते कुछ हो ।

यह परमसुख चाह रहा है, परमानंद चाहता है, परम शांति चाहता है, लेकिन आप उस परम शांति की इसकी चाह पूरी करने के लिए उसे पुत्र दे देते हो । उससे उसकी भूख, प्यास मिटती नहीं । बहुत स्वादु भोजन देते हो, उससे उसकी भूख प्यास मिटती नहीं है, तरह तरह का भोजन देते हो, उससे उसकी तृप्ति नहीं होती, इसलिए भटक रहा है । कभी आप बड़ी गाड़ी भी दे देते हो, कभी आप विवाह भी करके तो वह सुख देना चाहते हो । लेकिन वह सुख जिसकी वह चाह रख रहा है, जिसकी वह मांग कर रहा है, वह सुख उसे नहीं मिल रहा । इसलिए आपके सारे के सारे प्रयास बिल्कुल विफल जा रहे हैं।

आप उसे मर्सिडीज गाड़ी दे दीजिएगा, उससे उसे परमसुख नहीं मिल रहा । आप उसे पुत्र का सुख दे दीजिएगा, उससे उसे सुख नहीं मिल रहा ।

आप उसे परिवार दे दीजिए, बड़ी कोठी बनाकर दे दीजिएगा, उससे उसकी तृप्ति नहीं हो रही ।

सुख तो मिल रहा होगा, लेकिन वह सुख नहीं, जिसे वह चाहता है, जिसे परमसुख कहा जाता है । इसलिए मन कलप रहा है, कलपता है, भटकता है । तरह-तरह के संकल्प उसके अंदर उठते हैं, तरह तरह के विकल्प वह करता है । क्यों ? जो वह चाहता है, वह उसे मिल नहीं रहा । कल जारी रखेंगे साधकजनो इस चर्चा को और आगे । आज थोड़े समय के लिए मुझे भी इजाजत दीजिएगा । मैं आपके साथ सब के साथ ध्यान में थोड़े समय के लिए बैठूंगा ।

राममममममम…….

ध्यान 18

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से।

28 अप्रैल, 2012

((484))

ध्यान

भाग-१८

करें भक्तजनों झुककर प्रणाम परमेश्वर को, गर्दन झुका कर मन ही मन परमेश्वर को अंगसंग समझकर तो करें प्रणाम, बैठ जाए सीधे होकर सब, गर्दन रखें परमात्मा के आमने-सामने, गर्दन झुकी ना रहे जी, करें आंख बंद करें, बंद आंख त्रिकुटी स्थान को देखिए, देखते रहिए ।

भीतर ही भीतर राम-राम गूंजे, गूंजाइए । जैसे किसी कमरे में बंद कमरे में आप आवाज देते हैं, तो वह आवाज गूंजती है, eco, ऐसे राम गूंजाइए भीतर । स्वयं राम एक दफा बोलकर उस गूंज को सुनिए । यही गूंज भक्तजनों कालांतर में नाद बन जाती है, बहुत मीठी है। एकाग्रता के लिए इससे बढ़कर और कोई object नहीं ।

शाबाश ! आज बोलना कम, करना अधिक । आज से ध्यान का समय थोड़ा बढ़ाएंगे। सुनना इतना जरूरी नहीं, जितना यह करना । सुनना किस लिए था ? ताकि यह किया जा सके । अब करने की बारी शुरू हो रही है।

कल्पना कीजिए इस वक्त बैठे-बैठे किसी के प्रति ईर्ष्या की वृत्ति जागृत हुई है, उठी है। ईर्ष्या की वृत्ति उठने के साथ ही साथ अनिष्ट चिंतन की वृत्ति भी शुरू हो जाएगी, रोकिएगा इसे । नहीं, मुझे ऐसा नहीं करना है, यह सुने हुए का फल । जो सुना उसे अब कीजिएगा, तब ध्यान अवस्था लाभ होगी । यही वृत्तियां एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, इसी को भटकना कहा जाता है। इसी को जब यह रुक जाती हैं, रोकी जाती हैं, तो इन्हें निर्विचार होना कहा जाता है। No worldly thought. यही तो worldly thoughts है ।

किसी के प्रति ईर्ष्या, किसी के प्रति द्वेष, किसी व्यक्ति वस्तु के प्रति राग ।‌ यह सब वृत्तियां हैं, thoughts हैं। इनको रोकना ही अपने आप को निर्विचार करना है । भरसक प्रयत्न की आवश्यकता है । इसी को भगवान श्री अभ्यास कहते हैं। बहुत अभ्यास की आवश्यकता है ।

यदि यह ऐसे ना रुके तो भगवत विचार मन में लाइए। तो यह अपने आप या तो निकलने बंद हो जाएंगे, या थम जाएंगे । तो भगवत विचार बने रहेंगे । कोशिश तो यही करनी है ना भौतिक विचार ना बने रहे, भगवत विचार बने रहे, तो यह हानिकारक नहीं है । कालांतर में तो भक्तजनों जिसे समाधि कहा जाता है, उसमें तो आप नि:शब्द भी होते हैं, और निर्विचार भी होते हैं । मानो राम शब्द गूंजना या उच्चारण भी बंद हो जाता है । इसी अवस्था को निर्विकल्प समाधि कहा जाता है ।

No mind कैसी अवस्था है यह, no mind ऐसी अवस्था मन की अवस्था नहीं है । अब आप आत्मस्वरूप में स्थित हो गए हैं । ऐसी अवस्था को नि:शब्द, निर्विचार, निर्विकार ही आत्मा कहते है । ऐसी स्थिति में कुछ करना नहीं पड़ता । ऐसी स्थिति को लाभ करना ही परमात्मा का साक्षात्कार है, आत्मा का साक्षात्कार है । देखना, सुनना सब बंद हो जाता है। एक अनुभूति सी होती है। इसीलिए इसे आत्मानुभूति कहा जाता है, ईश्वर अनुभूति कहा जाता है । भक्त इसे आत्मा का दर्शन कहता है, परमात्मा का दर्शन कहता है।

स्वभाव बहुत पक्के,

यही अवस्था है ध्यान अवस्था। यदि किसी ने ईमानदारी से इस ध्यान अवस्था को लाभ किया है, या लाभ करने के लिए अभ्यास किया है, तो इसी अवस्था में स्वभाव बदला जा सकेगा, अन्यथा कभी नहीं। संत के संग से भी नहीं,

यह आपको स्वयं ही करना है। संत सिर्फ प्रेरक है, बल भी देता है, लेकिन करना आप ही को है । जन्मजात स्वभाव, जन्म जन्मांतर से इकट्ठा किया हुआ स्वभाव, इसी ध्यान अवस्था में परिवर्तित किया जा सकता है, इसका रूपांतरण किया जा सकता है, अन्यथा कोई अन्य साधन नहीं है।

बहुत मीठी मीठी बातें आप करने लग गए हैं, यह natural हैं या synthetic, आप जानो । लेकिन स्वभाव यदि कहीं ना कहीं कटुता का है, तो आप उसे रोक नहीं सकोगे, आप बीच में जहरीला बाण मारकर रहोगे, ईर्ष्या की अग्नि आप लगा कर रहोगे, जलाकर रहोगे।

मैं तो यह समझता हूं परमेश्वर ने मानव जन्म देकर जो कृपा कि, वह सिर्फ इसीलिए यह लंबा syllabus सौ साल का, पचास साल का, सत्तर साल का, अस्सी साल का, इतना लंबा syllabus किस लिए दिया ? सिर्फ अपने अपने स्वभाव बदलने के

लिए । साधना सिर्फ इसी काम के लिए है । भूल जाओ बड़ी-बड़ी बातों को । यदि यह नहीं होता तो बड़ी बातें मात्र imagination.

जुट जाओ साधक जनों ।

यह जन्म, यह जिंदगी, कहीं लुट ना जाए, वृथा ना चली जाए । इतने महान, सुघड़ गुरुजनों का मिलना, उनकी प्रेरणा, उनके आदर्श सामने, उनका बल, तपस्या का बल, साधना का बल, उनके आशीर्वाद, उनका मार्गदर्शन, यह कोई छोटे-मोटे लाभ नहीं है । परमात्मा की असीम कृपा ही समझनी चाहिए।

राममममममम………

ध्यान 17

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से।

((483))

ध्यान

भाग-१७

मन ही मन परमेश्वर को अपने अंग संग मानकर, करें झुक कर प्रणाम, बैठ जाएं सब सीधे होकर, आंख बंद करें, पीठ सीधी रखें, देखें त्रिकुटी स्थान को । आंख बंद करें जी, सब आंख बंद करें जी, आंख बंद करें जी सब । शाबाश ! आप सब इस वक्त ध्यान अवस्था में बैठे हैं । यह steps घर में भी याद रखिएगा । परमेश्वर को अपने अंग संग मानकर, झुककर प्रणाम करके, सीधे होकर बैठ के, आंख बंद करके भृकुटि स्थान को देखते हुए, बिना हिले जुले भीतर ही भीतर अपने प्रियतम परमात्मा राम के नाम को पुकारना, उन्हें याद करना, ध्यान कहाता है ।

आप सब इस वक्त ध्यान अवस्था में बैठे हुए हैं ।‌ ध्यान में प्रगति हो रही है, या नहीं, इस बात पर चर्चा चल रही थी। साधना की पराकाष्ठा है ध्यान । मत सोचिएगा की कुछ दिन बैठने से ध्यान में परिपक्वता आ जाएगी । लंबी साधना की पराकाष्ठा- ध्यान । बहुत देर के बाद, चिरकाल के बाद, साधक को ध्यान अवस्था लाभ हुआ करती है । निराश, हताश नहीं होना । आशीर्वाद का स्थान 1%, शेष स्थान अभ्यास एवं वैराग्य का । यह दोनों साथ साथ होंगे, तो ध्यान में परिपक्वता आएगी, तो आपको अपने वास्तविक स्वरूप का बोध होगा, इससे पहले नहीं ।

चर्चा चल रही थी ध्यान में बैठते हुए बहुत समय बीत गया है । कृपया देखिएगा मेरी मनोकामनाएं अभी कुछ कम हुई है, कि नहीं ।

मन के मनोरथ कम हुए हैं, कि नहीं ।

ध्यान मनोकामनाओं की पूर्ति का समर्थन नहीं करता । मनोकामनाओं की निवृत्ति का समर्थन करता है ।

यदि अभी भी सांसारिक कामनाएं बढ़ती हुई, दौड़ती हुई आपके इर्द-गिर्द परिक्रमा करती हुई दिखाई देती हैं, तो समझ लीजिएगा की आप अभी ध्यान के पास भी नहीं पहुंचे । यह ध्यान के sure short बिंदु हैं, जो आपको अपनी प्रगति का तत्काल बोध करवाएंगे । मनोकामनाएं कम हुई है कि नहीं, अभी मनोकामनाएं खत्म हुई है, नष्ट हुई है, यह तो बहुत लंबी बात है । कम हुई है कि नहीं ।

सांसारिक विचार, इनकी धूल अभी उठनी घटी है कि नहीं । इनकी धूल यदि अभी वैसे ही उठ रही है, तो यह आंखों में पड़ेगी, ध्यान में बाधा बनेगी। चित्त वृत्तियां कुछ शांत हुई है कि नहीं ।

Thoughts, चित्त वृत्तियां अर्थात thoughts, worldly thoughts, इनकी अभी आंधी धूल उठनी कुछ कम हुई है कि नहीं ।

यह मैं और मेरा, यह असाध्य रोग अभी कुछ हल्के हुए हैं कि नहीं । जीवन में तू और तेरा, जिसे आना चाहिए, जो सत्य है, उस सत्य का जीवन में प्रवेश हुआ है, कि नहीं ।

हमारे स्वभाव में गीता जी के अनुसार तमस की प्रधानता होती है, रजस की होती है, अथवा सत्व की प्रधानता होती है । मेहरबानी करके अपने स्वभाव में, अपने व्यक्तित्व में देखिएगा अभी आलस, निद्रा, प्रमाद यह घटे हैं कि नहीं, खत्म हुए हैं कि नहीं । मन अभी भी हमें प्रवृत्ति में प्रवृत्त करना बंद हुआ है कि नहीं । बहुत होशियार है मन । इसकी खोटी चालो से हर साधक को बचने की जरूरत । बहुत नाच नचाता है यह ।

आप वृद्ध अवस्था में चले गए हैं । यदि आपके अंदर अभी भी रजस की प्रधानता है, तो आपको वह प्रवृत्ति में प्रवृत्त करके रहेगा । मन आपको तरह-तरह की योजनाएं बनाकर, इस प्रकार से भरमाएगा, कि जो यह कह रहा है वही सत्य है । गौशाला खोलनी चाहिए, हस्पताल खोलना चाहिए, वहां तुम्हें सेवा करनी चाहिए, ऐसे ऐसे सुंदर शब्द प्रयोग करेगा मन । लेकिन यह मन की खोटी चाल है । समझो कितने क दिन की जिंदगी बाकी रह गई होगी । इस वक्त गौशाला की सेवा करने लग जाओगे, तो आप सोचते हो इसकी सेवा से आपको मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी, तो शास्त्र ऐसा नहीं कहता, मन कहता है । यह मन की खोटी चाल है । इससे बचने की आवश्यकता ।

तरह तरह का भोजन आता है, उसमें भरमा कर रखता है मन । आज परमात्मा को इस चीज का भोग लगाएंगे, यह मन की खोटी चाल को समझो कि आज आपका उस चीज को खाने को मन कर रहा है, भोग तो बहाना है। यह खोटी चालें मन ने अभी चलनी बंद करी है, कि नहीं करी ।‌

जिंदगी की सायं,

एक ही काम बाकी रह गया है अब, और वह है जिंदगी की अनिवार्य घटना, जिसे मृत्यु कहा जाता है ।

यह समय योजनाएं बनाने का नहीं, यह समय है अंतर्मुखी होने के लिए, यह समय है भीतर प्रवेश करने के लिए, जहां परम शांति का स्रोत विराजमान है । यह समय बाहर मुखी होने का नहीं । सब किए कराए पर पानी फिर जाएगा । जब तक श्मशान घाट नहीं पहुंच जाते, यह मन पीछा नहीं छोड़ता, अपनी खोटी चाले बंद नहीं करता ।

एक साधक को ही सचेत, सजग रहने की जरूरत । ध्यान आपको ऐसी ही योग्यता प्रदान करता है। यह स्थान भक्ति का स्थान, ध्यान में बैठने का स्थान । आप कहते हो घर में सुबह शाम बैठते हैं, ब्रह्म मुहूर्त में बैठते हैं, तो भी ध्यान नहीं लगता। ऐसा नहीं लगता जैसा श्री राम शरणम् में लग जाता है, तो इस स्थान की पवित्रता का प्रताप है, इस स्थान के वातावरण का प्रताप है, मेरे गुरुजनों के आशीर्वाद का, उनके तप त्याग का प्रताप है, उनकी साधना का प्रताप है, उनकी सात्विक vibrations मिलती है, जिससे मन झट से नियंत्रण में हो जाता है । इस स्थान की ऐसी पवित्रता बनी रहनी चाहिए और परमेश्वर कृपा करें आप सबको, हम सबको यह लाभ मिलता रहे।

यहां आकर बहुत समय ध्यान के लिए व्यतीत किया कीजिएगा । जप तो आप दिनभर भी कर लेते हो । यहां आकर जितना समय आप कुर्सी पर बैठे हो, जमीन पर बैठे हो, हाल में बैठ हो, हाल के बाहर बैठे हो, सारे का सारा समय ध्यान के लिए उपयोग किया कीजिएगा । सांसारिक विचार बंद हो, अपने खिड़कियां, द्वार, बंद करने का अभ्यास किया कीजिएगा । यह इतनी जल्दी पीछा नहीं छोड़ते । फिर आदमी इतना कुछ करने के बावजूद भी खाली हाथ जाए, तो किसका दोष ? आपने मेहनत तो करी, लेकिन दिशा ठीक नहीं थी ।

मेहनत तो सड़क पर मजदूर भी करता है, लेकिन मेहनत तो वह है जो एक athlete ग्राउंड में जाकर व्यायाम करता है, या कहीं व्यायामशाला में जाकर व्यायाम करता है, और अपने मसल्स को, अपने शरीर को हष्ट पुष्ट बनाता है । मजदूर से कहीं कम मेहनत करता है वह । लेकिन मजदूर का शरीर हष्ट पुष्ट नहीं हो रहा । मेहनत तो दोनों ही कर रहे

हैं । एक की दिशा सही है, दूसरे की दिशा गलत है । जारी रखेंगे साधक जनों इसी चर्चा को ।

राममममम……..

ध्यान 16

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से

((482))

ध्यान

भाग-१६

मन ही मन सब झुककर करें प्रणाम परमेश्वर को, और बैठ जाएं सीधे होकर, सब ध्यान मुद्रा में बैठ जाएं, आंख बंद करें सब, पीठ, रीढ़ की हड्डी बिल्कुल सीधी रखें, थोड़े समय के लिए हिलना जुलना भी नहीं, बंद आंख देखे त्रिकुटी स्थान को, बिंदी वाली जगह को, आज्ञा चक्र को, अपने अपने तीसरे नेत्र को शाबाश ! देखते रहे ।

करें निर्विचार अपने आपको। निर्विचार अर्थात शरीर की, शरीर के रोगों की, शरीर संबंधी समस्याओं की, अपनों की समस्याओं की, व्यापार की, लेनदेन की किसी प्रकार की कोई याद ना आए ।

यहां तक कि अपने आप को भूल जाइएगा कि आप डॉक्टर हैं या इंजीनियर, बहुत बड़े पुलिस के अफसर हैं या चपरासी, ब्राह्मण है या शूद्र, पंजाबी है या दिल्ली के रहने वाले, इन सब बातों को भूलने का समय ध्यान ।

कोई सांसारिक thought कोई भौतिक thought ना आए । ध्यान कब तक जारी रखना है, जब तक यह स्थिति लाभ नहीं हो जाती । यह आशीर्वाद से स्थिति नहीं मिलती, यह अभ्यास से मिलेगी और परमेश्वर से प्रार्थना से मिलेगी । निर्विचार होना शुरू हो जाएंगे, अगली सीढ़ी शुरू होगी निर्विकार होने की । चढ़ीएगा उस सीढ़ी पर । क्रोध के दौरे जब तक बंद नहीं हो जाते, खूब ध्यान में बैठते रहिएगा । राग, द्वेष रुपी लुटेरे जब तक लूटना बंद नहीं कर देते, बैठते रहिएगा ध्यान के लिए ।

कोशिश करना साधक जनों ध्यान की अवधि थोड़ी-थोड़ी बढ़ाते जाओ । बहुत लंबा काम है यह । एक ही दिन में, या कुछ ही दिनों में लाभ नहीं होने वाला । बहुत लंबी यात्रा है । निराश, हताश नहीं होना। थकने पर, हारने पर, approach the Lord.

अपना सीधा संपर्क भीतर विराजमान परमेश्वर से कीजिएगा ।

Seek his help, seek his guidance, seek his grace.

अभी तक अजपा जाप शुरू नहीं हुआ, अभी तक हर वक्त बिना याद दिलाए जाप नहीं हो रहा, ध्यान जारी रखिए। सांसारिक बातें बहुत याद आती है, अधिक याद आती है । सताती है ध्यान के समय।

Please don’t get disappointed. It’s part of the process.

जब तक ऐसी स्थिति नहीं महसूस होती । अरे ! तू कहां दौड़कर जाएगा, मन को बताओ, तू कहां दौड़कर जाएगा । जहां परमात्मा नहीं है, जब तक ऐसी स्थिति लाभ नहीं हो जाती continue meditation, तू जा जहां भी जा सकता है, वहां पर तुझे मेरा राम मिलेगा। जब तक ऐसी स्थिति लाभ नहीं हो जाती भक्तजनों continue meditating vigorously and honestly.

संसार के प्रति उसकी निस्सारता जब तक पक्की नहीं हो जाती, और पूजा परमात्मा से अनुरक्ति जब तक पक्की नहीं हो जाती, please continue meditating. सब कुछ भूल जाओ, ध्यान का नियम निभाना नहीं भूलिएगा ।

This is very very important.

थोड़ा करके बहुत की अपेक्षा ना रखिएगा । कुछ ना करके, सब कुछ की अपेक्षा ना रखिएगा । जैसे इस वक्त यहां बैठे हुए हो, बिल्कुल ऐसे ही साधक जनों अपने-अपने पूजा कक्षों में, अपने-अपने निवास स्थानों पर भी बैठा कीजिएगा ।

जब तक चलते फिरते, कामकाज करते, मन इस प्रकार का नहीं सधता, मन इस प्रकार से अभ्यस्त नहीं हो जाता की परमेश्वर की याद बनी रहे, please continue meditating. यह सब कुछ आपको ध्यान के बाद उपलब्ध होगा परमेश्वर कृपा से । इसलिए ध्यान अति आवश्यक । जारी रखेंगे साधक जनों इसी चर्चा को और आगे ।

मैं भी थोड़े समय के लिए आपके साथ ध्यान में बैठूंगा ।

राममममममम……..

ध्यान 14

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से

((481))

ध्यान

भाग-१५

करो देवियो सज्जनों झुककर प्रणाम परमेश्वर के श्री चरणों में, और बैठ जाओ सीधे होकर । आंख बंद करें, देखें त्रिकुटी स्थान को । ध्यान अवस्था में बैठिएगा । ध्यान के steps फिर याद दिलाता हूं । परमेश्वर को अपने अंग संग मानकर, झुक कर, प्रणाम करके, सीधे होकर बैठ के, आंख बंद करके त्रिकुटी स्थान को देखते हुए, भीतर ही भीतर अर्थात मन ही मन, परमेश्वर अपने प्रियतम परमात्मा को पुकारना ध्यान कहाता है । हम पुकारने से शुरू करते हैं, उच्चारण से शुरू फिर पुकारना, फिर स्मरण, याद करना इस क्रम को बनाए रखिएगा । इसी को follow कीजिएगा । परमेश्वर कृपा से लाभ होगा ।

हम सब यहां परमात्मा के पुजारी बैठे हैं । हमारी पूजा और पूजाओं से भिन्न है । जिन पूजाओं से हम परिचित हैं, उन पूजाओं से हमारी पूजा भिन्न है । स्वामी जी महाराज फरमाते हैं –

“परमात्मा को पूजिये

घट में धरकर ध्यान,

मन को मंदिर मानिए

जो है परम महान”

कभी ना भूलने वाला दोहा । इसमें स्वामी जी महाराज ने अपनी पूजा पद्धति समझाई है । घट घड़े को कहते हैं, शरीर को भी घट कहते हैं । शरीर का ऊपरी भाग देखें तो यह उल्टा घट है । घड़ा जो उल्टा रखा गया है, इसका मुख नीचे की और है, बाकी का भाग ऊपर की और । यह शरीर हमारा घट है । परमात्मा को पूजिये घट में धरकर ध्यान ।

स्वामी जी महाराज पूजा की विधि समझा रहे हैं । हमारा ध्यान घट में होना चाहिए । हमारा ध्यान बाह्य वस्तुओं पर नहीं होना चाहिए, बाहर नहीं होना चाहिए । मन को मंदिर मानिए । स्वामी जी महाराज ने और स्पष्ट किया है, किनका मंदिर, उनका,

जो है परम महान,

जो सबसे महान है,

उस मंदिर में मूर्तिमान है, विराजमान है,

उनकी पूजा कीजिए । स्पष्ट है हमारी पूजा वस्तु प्रधान नहीं है । हमारी पूजा क्रिया प्रधान भी नहीं है । सामान्यता तो हम अपने हाथों से अगरबत्ती जलाते हैं, दीप जलाते हैं, फूल चढ़ाते हैं, फल चढ़ाते हैं, मिठाई चढ़ाते हैं, चलकर मंदिर जाते हैं, वहां जाकर प्रसाद चढ़ाते हैं, प्रसाद लेते हैं, आरती उतारते हैं, आरती लेते हैं, इत्यादि इत्यादि । हम इस पूजा से परिचित हैं । इसी पूजा से हमारी जानकारी है। इसमें कोई दोष नहीं है ।

यदि यही पूजा सही ढंग से की जाए जैसे स्वामी जी महाराज फरमा रहे हैं, तो इस पूजा के अतिरिक्त फिर आपको कुछ करने की जरूरत नहीं । यह पूजा ही अपने आप में संपूर्ण साधना हो जाएगी, अन्यथा बिल्कुल अधूरी जैसे कर्मकांड ।

अभी तो इस पूजा में सिर्फ शरीर की involvement है । पांव से चलकर आप मंदिर जाते हैं, तो शरीर द्वारा, हाथों से आप पुष्प चढ़ाते हैं, दीप जलाते हैं, अगरबत्ती जलाते हैं, तो शरीर द्वारा, प्रसाद चढ़ाते हैं, तो शरीर द्वारा मानो इस पूजा की सीमा सिर्फ शरीर । यह एक शारीरिक क्रिया है। यदि इसके साथ मन को जोड़ा जाए, चित् को जोड़ा जाए, भावों को जोड़ा जाए, तो यही पूजा संपूर्ण पूजा बन सकती है, जिसे संत महात्मा मानसिक उपासना कहते हैं।

हमारी उपासना मानसिक उपासना है । हमारी पूजा मानसिक पूजा है । हम हाथ से कम करते हैं, मन से ज्यादा करते हैं, हृदय से ज्यादा करते हैं । इसलिए इस पूजा में चिंतन की प्रधानता है, जप की प्रधानता है, ध्यान की प्रधानता है ।

शारीरिक क्रियाओं की प्रधानता न्यूनतम, बहुत कम । माला फिर रही है, उसमें उंगलियां चल तो रही हैं, लेकिन इस जप के साथ यदि मन नहीं जुड़ा हुआ तो यह बिल्कुल tape recorder की तरह ही है। यह बिल्कुल यांत्रिक है । इसका महत्व कितना होगा, वह परमात्मा जाने ।

तो आज सर्वप्रथम इतनी समझ हमें आई कि स्वामी जी महाराज की पूजा, उपासना पद्धति मानसिक उपासना है । तो इसमें क्या करना होता है ? इसमें आप के भाव किस प्रकार के होने चाहिए, मानसिक अर्थात काल्पनिक । चलिए काल्पनिक ना भी सही, आप अपने पूजा के कक्ष में इस वक्त बैठे हुए हैं घर पर । वहां आपने प्रवेश किया । अधिष्ठान जी के आगे जो पर्दा लगा हुआ था, उसे हटाया या द्वार बंद था तो उसे खोला और आपने मत्था टेका । मत्था टेक कर तो आप बैठ जाते हैं । अगरबत्ती, धूप वहां पड़ी हुई होती है, उसे सबसे पहले जलाते हैं । तनिक सोचो देवियो सज्जनों उसके पहले या बाद जोत जलाएंगे, फिर धूप जलाएंगे, अगरबत्ती जैसा भी आपका क्रम हो कोई फर्क नहीं पड़ता । वहां बैठकर आपने धूप या अगरबत्ती को जलाया है, what for, यह सोचने का विषय है, यह किस लिए जला रहे हो ?

क्या परमात्मा को सुगंधित करना चाहते हो, परमात्मा को आप इसकी सुगंध देना चाहते हो । उसे क्या आवश्यकता है इस सुगंध की ? देवियो सज्जनों इतिहास साक्षी है, जहां परमात्मा का प्रकटन होता है, जहां परमात्मा की उपस्थिति होती है, सबसे पहले वातावरण सुगंधमय हो जाता है । यह उनका आने का चिन्ह, यह उनके प्रकट होने का चिन्ह, यह उनकी उपस्थिति का चिन्ह । स्पष्ट है कमरे में उनकी उपस्थिति नहीं है, तो आप सुगंध जलाकर तो आप ऐसा कल्पना कर रहे हैं, कि परमात्मा यहां उपस्थित अब है। तो अगरबत्ती किसलिए जलाई ताकि वातावरण सुगंधित हो जाए, परमात्मा की उपस्थिति का हमें बोध हो । अब आपने दीप जलाया इत्यादि इत्यादि, जो भी कुछ भी आप करते हैं, किया । हमें अगरबत्ती की सुगंध क्या समझाती है, धूप की सुगंध क्या समझाती है ?

आपके रोकने पर भी धूप का धुआं, धूप की सुगंध, अगरबत्ती की सुगंध, जहां आप नहीं भी बैठे हुए हैं, वह वहां भी पहुंच जाएगी, बाहर भी निकल जाएगी । बाहर के लोगों को भी पता लग जाएगा, अंदर मम्मी ने धूप जला दिया है, अगरबत्ती जला दी है । मानो परमेश्वर की सर्व व्यापकता का बोध दिलाए धूप या अगरबत्ती का जलाना, तो सार्थक अन्यथा यांत्रिक । आप meaning ही नहीं समझ रहे कि हमने अगरबत्ती किस लिए जलाई है ?

अब आप बैठे हैं । कहां पर ? उस जगह पर जहां सर्वव्यापक परमात्मा विराजमान है । क्यों ? सुगंध का वातावरण है, और जहां सुगंध होती है, वहां ऐसा माना जाता है कि वहां परमात्मा विराजमान है । तो अब आप को परमात्मा की उपस्थिति का बोध हो रहा है, अनुभूति हो रही है । अब आगे पूजा आरंभ होती है । तो आज इतना ही ।

आगे की चर्चा और आगे जारी रखेंगे । बहरहाल हमें पक्का पता लग गया हमारी उपासना पद्धति, पूजा पद्धति मानसिक है। वस्तु प्रधान नहीं हैं । यदि हम वस्तुओं का प्रयोग करते हैं, तो मानसिक उपासना की तैयारी के लिए ।

रामममममम……….

ध्यान 14

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से

((480)

ध्यान

भाग-१४

बैठ जाए सब ध्यान मुद्रा में,

पीठ रखे सीधी, आंख बंद करें । देखें बिंदी वाली जगह को, त्रिकुटी स्थान को देखते

रहो । सब आंख बंद रखे जी, शाबाश । आज्ञा चक्र को देखते रहो । अभी आपने प्रियतम परमात्मा को अपने अंग संग समझ कर तो प्रणाम करके मन ही मन बैठे हो

आप । ध्यान के लिए ऐसे ही बैठा जाता है । परमेश्वर को अपने अंग संग मानकर, प्रणाम करके, सीधे होकर बैठ कर, आंख बंद करके, त्रिकुटी स्थान को देखते हुए, भीतर ही भीतर मन ही मन राम राम राम उच्चारण करना होता है, फिर पुकारना होता है और फिर परमात्मा को याद करना होता है । यहां तक तो आप करते ही हैं । अब थोड़ा आगे बढ़ते हैं ।

नाम का उच्चारण करते हैं तो साथ ही साथ नाम को अपने नेत्रों में वा त्रिकुटी स्थान पर देखें शब्द को । नाम हमारे लिए भगवान है इष्ट है, हमारे अधिष्ठात्री देवता । उन नाम को आंखों में देखें, उन नाम को त्रिकुटी स्थान में देखें । धीरे-धीरे अपने मन को निर्विचार करना शुरू करें । राम नाम ऐसे उच्चारण करें की मन को संसार में जाने का अवसर ना मिले, कोई सांसारिक विचार ना उठे । उठे तो, यहां पर या तो रोकने की चेष्टा कर सकते हैं, या यह सोचे कि जो आए है वह निकल जाएंगे, इनको निकलने का रास्ता दीजिए । जैसे मर्जी कीजिए । अपने आप को संकल्प विकल्प रहित करना है । अपने आपको निर्विचार करना है । यहीं से आगे की यात्रा शुरू होगी ।

जब तक अपने आप को निर्विचार, thoughtless, निर्विचार अर्थात thoughtless, विचार शून्य,

जब तक ऐसा नहीं करोगे आगे की यात्रा बहुत कठिन होगी । अभी निर्विषय होना है, अभी निर्विकार होना है, फिर पता लगेगा मन कितना पवित्र हो गया है । ऐसे मन का ही तादात्म्य परमात्मा के साथ हो पाएगा । निर्मल मन ही निर्मल परमात्मा से मिल सकेगा । गंदा मन कभी नहीं, रोगी मन कभी नहीं ।

इसकी पवित्रता ही, इसका पवित्रीकरण ही साधना का लक्ष्य है । जैसे मन पवित्र होता है, यही अवस्था है जब आप निर्विचार है, निर्विषय है, निर्विकार है, इसी अवस्था में प्रार्थना के स्वर प्रस्फुटित होते हैं । तरह-तरह की प्रार्थनाएं निकलती है, तरह-तरह के दिव्य विचार आते हैं, तरह तरह के बोध होते हैं, कहीं-कहीं की भावी घटनाओं का पता चलता है।

यही अवस्था है जिस वक्त आप परमात्मा से वार्तालाप कर सकते हो । ऐसी अवस्था में ही वार्तालाप होता है ।

You are in communion with the lord.

परमेश्वर कृपा होती है तो उत्तर भी सुनाई देते हैं । और आप अपना काम करते जाइएगा, ऐसी अवस्था में ही होंगे । आप निश्चित रहिएगा की आपकी पुकार ऐसी अवस्था है, तो ऐसी अवस्था में आपकी पुकार सुनी जा रही है । जहां पहुंचनी चाहिए थी वहां पहुंच गई है ।

सामान्यता हमारी पुकार बाहर तक भी नहीं निकल पाती, it is so feeble इतनी कमजोर होती हैं, इतनी गंदी होती है, कि वह संसार में ही रह जाती है । वह परमात्मा तक नहीं पहुंच पाती । ऐसी अवस्था लाभ करोगे तो आप की पुकार निश्चित रूप से परमात्मा तक पहुंचेगी । ऐसी अवस्था लाभ करने के लिए प्रयत्नशील रहना ही ध्यान है । अभ्यास मांगता है ध्यान । अभ्यासरत रहिए, अपने वैराग्य को बढ़ाते रहिए । परमेश्वर से अनुराग बढ़ता रहे, तो संसार से वैराग्य अपने आप ही होता रहता है । तो हमारे लिए महत्वपूर्ण यही है की परमात्मा के साथ हमारी प्रीति, हमारी अनुरक्ति बढ़ती रहे, नित्य प्रति बढ़ती रहे । तो संसार के प्रति आपको वैराग्य के लिए कुछ करना नहीं पड़ेगा, वह अपने आप हो जाएगा । वह परमात्मा स्वयं करेंगे, स्वत: हो जाएगा । तो ऐसी अवस्था लाभ करने के लिए साधनारत रहिएगा ।

मेरी माताओं सज्जनों यह अवस्था लाभ करनी हमारे लिए आसान कब होगी ? जिस भक्त भाव में हम यहां बैठे हैं, इस वक्त हम भक्त हैं, इस वक्त हम साधक हैं संसारी

नहीं । यदि दिनभर ऐसा भाव बना रहे तो यह अवस्था बहुत सहजता से लाभ हो जाएगी । लेकिन यहां के कुछ मिनट भक्त भाव और बाहर निकलते ही अभक्त भाव, अर्थात संसारी भाव, और दिनभर वहीं रहे, तो इस थोड़े समय के भक्त भाव से कुछ विशेष लाभ नहीं होने वाला ।

हमारी सब की शिकायत यही कि हमारा ध्यान टिकता नहीं, हमारी प्रगति कुछ नहीं हो रही, एक मुख्य कारण । जिस भाव चाव में हम इस वक्त परमात्मा के श्री चरणों में बैठे हुए हैं, यह भक्त का भाव है, भक्त भाव, भक्ति भाव में बैठे हुए हैं । बाहर निकलते ही यह तत्काल अभक्त भाव बन जाता है, संसारी भाव बन जाता है । इन दोनों भावों में बहुत अंतर है । यहां बैठे हुए आपको छोटी मोटी तकलीफ महसूस नहीं हो रही, कोई रोग याद नहीं आ रहा, शरीर की कोई समस्या याद नहीं आ रही, घरेलू समस्या कोई याद नहीं आ रही, सगे संबंधियों की कोई समस्या याद नहीं आ रही । यह अभी जो रुकी हुई है, बाहर निकलते ही सबके सब आपका गला दबोच लेती है ।

यदि हम शूरवीर नहीं, यदि हम strong enough नहीं तो उनकी जीत हो जाती है, और हमारी हार । ऐसी अवस्था में ध्यान कैसे लगेगा ?

इस वक्त आपको किसी चीज की चाह नहीं है । आप कामना शून्य बैठे हुए हो । भले ही थोड़े समय के लिए ही सही, लेकिन इस वक्त बिलकुल आप कामना शून्य बैठे हो । यदि कोई मांग है भी तो यही कि हमारा ध्यान ठीक लगना चाहिए, हमें परमात्मा की भक्ति मांगनी चाहिए, इत्यादि इत्यादि । इनको सांसारिक मांगे नहीं कहा जाता है, इनको कामना नहीं कहा जाता ।

लेकिन बाहर निकलते ही सब कुछ बदल जाता है । हम कामी हो जाते हैं, हम क्रोधी हो जाते हैं, अभिमानी हो जाते हैं, ईर्ष्यालु हो जाते हैं, इत्यादि इत्यादि । तो सब कुछ किए कराए पर पानी फिर जाता है । यदि आप यह भक्त भाव अपना बना कर रखें लंबी अवधि तक, तो ध्यान अवस्था जैसी आप जी से वर्णित की गई है, इसे लाभ करना कोई कठिन बात नहीं है, बिल्कुल भी कठिन बात नहीं है । यह कठिन क्यों ? क्योंकि हम बहुत कमजोर हैं ।

यह कठिनाइयां हमारी कमजोरी का लाभ लेती हैं, और हमें हमारे ऊपर हावी रहती हैं। यदि आप strong है, बलवान है उस बलदाता के साथ हर वक्त जुड़े हुए हैं, तो कोई कठिनाई की ऐसी हिम्मत नहीं जो आप पर हावी हो सके । आज इतना ही शुक्रवार को फिर ध्यान की बैठक में बैठेंगे ।

रामममममममम……….

ध्यान 13

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से

((479))

ध्यान

भाग-१३

मन ही मन भीतर विराजमान परमात्मा को चरण वंदना करके, झुक कर प्रणाम करके बैठ जाएं सब, सीधे होकर, पीठ सीधी रखें। गर्दन रखें परमात्मा के आमने-सामने ।

आंख बंद करके त्रिकुटी स्थान को देखिएगा। शाबाश । दो भोहो के बीच स्थान, त्रिकुटी स्थान, आज्ञा चक्र, आप जी का तीसरा नेत्र देखते रहिए इसे । कभी-कभी भक्तजनों खुली आंख भी इस स्थान को देख लिया कीजिएगा बहुत महत्वपूर्ण स्थान है । एक दिन पहले भी आप जी से अर्ज की थी, साधना के माध्यम से खोज कीजिएगा यह स्थान क्या है ? इसके साथ ही संभवतया खोज पूरी हो जाती है । भीतर ही भीतर प्रियतम परमात्मा को याद कीजिए, अपने राम को याद कीजिए, सबके राम को याद कीजिए । जिसमें सब रमते हैं वह राम, जो सब में रमता है वह राम ।

यह केवल योगियों साधु का ही राम नहीं, पापियों का भी है, दुष्टों का भी है, सबका राम । ऐसे राम को प्रेम पूर्वक याद कीजिए, भक्ति पूर्वक याद कीजिए । उसकी दया को, उसकी उदारता को, उसकी करुणा को, उसकी कृपा को, खूब याद कीजिए ।

धन्यवाद सहित याद कीजिए । अपनी कृतज्ञता, अपना आभार उन महानतम के प्रति व्यक्त कीजिए । बहुत अनूठा है वह, अनुपम है वह, अतुलनीय है वह, अपरिमित है वह ।

बड़े आदमी के साथ बैठना, उन्हें अपने अंग संग मानना, या स्वयं उनके चरणों में बैठना, व्यक्ति अपने आपको कितना गर्वित महसूस करता है । ओह ! मुझे उनके साथ बैठने का मौका मिला जिंदगी में । वह जिसके साथ आप सदा बैठे, आपके गर्व की तो कोई सीमा ही नहीं होनी चाहिए ।

एक शिष्य एवं गुरु जंगल में भक्ति में, ध्यान में बैठे हैं । शिष्य ने शेर के आगमन का संकेत देखा, महसूस किया । दहाड़ तो थी लेकिन संभवतया कहीं दूर से । शिष्य के कान उधर ही थे, सो सुन सके ।

उसके बाद शिष्य की आंख बंद नहीं हुई। बेचारा भयभीत एक बार गुरु महाराज को देखें, तो दूसरी बार शेर की आहट को देखे व सुने ।

अपनी आंखों से देखा उसने शेर को आते हुए, मानो मृत्यु को आते हुए देखा ।

परमेश्वर की असीम कृपा हुई शेर वापस मुड़ गया । शिष्य फिर आंख बंद करके ध्यानस्थ हो गया । अबकी बार संभवतया ज्यादा अच्छा ध्यान लग रहा था । परमेश्वर की कृपा, उसके संरक्षण को याद करते करते, जो उसने रक्षा की, मृत्यु से बचाया, उसे याद करते करते शिष्य का ध्यान भी लग गया ।

ध्यान की अवधि समाप्त होने पर दोनों उठे। नाश्ते इत्यादि का समय था, या जो भी कोई समय था, वह किया । करते करते एक बाजू पर मक्खी बैठी, दूसरे पर मच्छर ।

गुरु महाराज को मच्छर ने काटा । गुरु महाराज उसकी पीड़ा को बड़ी असहनीय पीड़ा मान रहे हैं । शिष्य से रहा ना गया ।

कहा महाराज कमाल के बंदे हैं आप ? मच्छर के काटने की पीड़ा तो आप सहन नहीं कर सकते, पर आपके सामने मृत्यु खड़ी थी, तब तो आपका ध्यान भी नहीं

टूटा । आप ध्यानस्थ थे, ना कोई पीड़ा थी आपको, ना कोई चिंता थी, आपको निश्चिंत बैठे हुए थे आप ।

गुरु महाराज ने शिष्य को इतना ही कहा- वत्स उस वक्त मैं परमात्मा के पास बैठा हुआ था, फिर भय किस बात का, फिर चिंता किस बात की, फिर शंका किस बात की ? फिर तो आदमी मस्ती में डूबा हुआ होता है, निश्चिंतता की स्थिति में होता है,

मां की गोद में परम विश्राम प्राप्त किए हुए होता है ।

यही है ध्यान देवियो सज्जनों परमेश्वर के श्री चरणों में बैठना । ऐसा realise करना ।

मत सोचिएगा दिखाई तो देता नहीं है । महसूस कीजिएगा वह परमात्मा कण-कण में व्याप्त है ।

One has to realise it.

यह experience होना चाहिए । इसी को God experience कहते हैं, experience his presence within and without you.

अपने भीतर एवं बाहर सर्वत्र तब होगा।

जिसे हम कहते हैं मेरा मन भटक रहा है, यदि आप यह स्वीकार करते हैं, यदि आप यह realise करते हैं, कि परमात्मा के अतिरिक्त इस संसार में कोई नहीं है, तो तनिक सोच कर देखिएगा मन परमात्मा के सिवाय कहां जा सकता है ? तभी इसको भटकना कहा जाएगा, यदि आप यह महसूस नहीं करते कि परमेश्वर कण-कण में, हर जगह विद्यमान है, तब संसार दिखाई देगा ।

यदि आप यह अनुभव करते हैं, यह experience करते हैं, यह realise करते हैं, उस देवाधिदेव के बिना एक मिलीमीटर का अंश भी खाली नहीं है, वह इतना भरा हुआ है इस ब्रह्मांड में, तनिक सोचो मन कहां जाएगा ? यह मन संसार में तभी जाता है जब आपको परमात्मा सर्वत्र, सर्वदा विद्यमान दिखाई नहीं देता । जब आप यह अनुभव कर लेते हो वह सब जगह है, सब समय है, देश काल से अतीत, तब भी यह दुविधा नहीं रहती ।

रामममममम……….

ध्यान 11

परम पूज्य डॉ श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से

((478))

ध्यान

भाग-१२

बैठ जाएं सब सीधे होकर, पीठ सीधी करें, आंख बंद करें, देखें त्रिकुटी स्थान को, देखते रहे । ध्यान मुद्रा में बैठे हुए हैं आप । परमेश्वर की महती कृपा से इतने दिनों से ध्यान में बैठने का अवसर मिल रहा है । आज का प्रसंग परमेश्वर की कृपा से ध्यान संबंधी प्रसंग ही है । सुतीक्षण अर्थात जिसकी परमात्मा के प्रति तीक्ष्ण रति है, वह सुतीक्षण, sharp intellect सुतीक्षण । तीक्ष्ण बुद्धि वाला व्यक्ति सुतीक्षण ।

अध्यात्म में कुशाग्र बुद्धि कौन ? जिसका जितना अधिक परमात्मा से अनुराग, वह उतना तीक्ष्ण बुद्धि, उतना बुद्धिमान । आज सुना भगवान श्री पधार रहे हैं । कब पधारेंगे, किधर से पधारेंगे, कोई सूचना किसी प्रकार की नहीं । भक्त इतनी सी बात सुनकर मुग्ध हो गए हैं, उन्मत्त हो गए हैं ।

अनेक प्रकार की कल्पनाएं शुरू हो गई । वह दीनदयाल रघुराया, दीन वत्सल, दीनबंधु रघुराया, क्या मुझ जैसे शठ को मिलेंगे ?

शठ बंधु भी होते तो मुझे उम्मीद थी, कि जरूर मिलते । वह दीनबंधु है, और मैं दीन नहीं हूं ।

अपनी कृपा से मिले तो मिले,

मेरे पास तो किसी भी प्रकार का कोई गुण नहीं है । हां, सुना है जिस की गति परमात्मा के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं,

मानो जो सिर्फ परमात्मा के ही आश्रित है, जिसे सिर्फ उन्हीं का भरोसा है, उन्हें वह बहुत प्यार करते हैं ।

इसी प्रसन्नता भरी आशा में सुतीक्षण जी महाराज उन्माद की दशा में कभी आगे चल रहे हैं, प्रथम दर्शन मैं करूं । पीछे मुड़ना चाहते हैं, बिना मुख मोड़े पीछे आ रहे हैं । एक पागल जैसी हालत । कहीं ऐसा ना हो राम उधर से आए और उन्हें मेरी पीठ देखनी पड़े, मैं दर्शनों से वंचित रह जाऊं । अतएव मुख उसी और रखकर तो पीछे आते हैं, आगे जाते हैं, पीछे आते हैं । एक दौड़ सी लगी हुई है ।

भगवान श्री बहुत पास ही खड़े इस दृश्य को देख रहे हैं, निहार रहे हैं, अपने प्रिय भक्त

को । सुतीक्षण जी महाराज एक ही स्थान पर बैठ जाते हैं, ध्यानस्थ हो जाते हैं । भगवान को लगा सुतीक्षण शायद भूल गए हैं मेरे आगमन का, अतएव स्वयं चल पड़े हैं । भगवान जा रहे हैं, भक्त की ओर । भक्त ध्यानस्थ है । भगवान श्री उसका ध्यान तोड़ने की चेष्टा कर रहे हैं, लेकिन सुतीक्षण जी महाराज टस से मस नहीं हो रहे । वह भीतर विराजमान, भीतर प्रकट किए हुए परमात्मा, अपने इष्ट पर ध्यानस्थ हैं।

भगवान श्री निहार रहे हैं, मुस्कुरा रहे हैं, जब सुतीक्षण आंख नहीं खोल रहे तो भगवान ने अपना भीतर का रूप बदला । चतुर्भुज रूप में भगवान प्रकट हुए । सुतीक्षण ने देखा यह कौन है, यह कहां से आ गए ? आंख खुली तो सामने भगवान श्री अनुज एवं मातेश्वरी सीता सहित खड़े हैं । प्रणाम किया, दंडवत प्रणाम किया । खुशी भरे आंसुओं से चरण धो डालें, कुटिया में ले गए, पूजा की विधि जो जानते थे, वह पूजा की ।

भगवान श्री कहते हैं -भक्त सुतीक्षण में अति प्रसन्न हूं । वर मांगिए । चरण पकड़े, कहा महाराज मैंने कभी कुछ मांगा नहीं, मुझे मांगना आता नहीं, क्या मांगू आपसे ? जो आप देना चाहते हैं वह दे दीजिए । सुतीक्षण एक भक्त जिन्होंने कुछ मांगा नहीं । रामायण जी में एक व्यक्ति जितना इन को मिला है, इतना और किसी को नहीं मिला including हनुमान जी ।

भगवान श्री ने तत्क्षण बहुत कुछ दे डाला। विवेक युक्त बुद्धि दी, अविरल भक्ति‌।

संत महात्मा यहां अविरल के दो अर्थ करते हैं -ऐसी भक्ति जो किसी विरले को दी जाती है, ऐसी भक्ति जो सतत बनी रहे, नित्य निरंतर बनी रहे, अखंड बनी रहे, वह अविरल भक्ति सुतीक्षण को दे दी ।

संसार के प्रति असंगता दे दी, ज्ञान विज्ञान सहित ब्रह्म विद्या का बोध करवा दिया ।

गुण निधान हो जाओ तुम, यह वरदान दो को मिला है ।

मातेश्वरी सीता ने हनुमान जी को गुणानिधि होने का वरदान दिया था । आज प्रभु राम ने सुतीक्षण को गुणानिधि होने का वरदान दिया है । संत महात्मा इसका अर्थ यूं करते हैं ? नवधा भक्ति;

भक्ति के 9 गुण,

धर्म के 10 लक्षण

तथा योग के 8 अंग

कुल मिलाकर 27 total 9 पूर्णता प्रदान कर दी । गुण निधान कहकर, गुणनिधि वरदान देकर जो जीवन को पूर्णता प्रदान कर दी ।

सुतीक्षण जी महाराज यह सब कुछ पाकर अपार हर्षित है । अपने आपको अतिशय भाग्यवान मान रहे हैं । चरण नहीं छोड़े, पकड़े हुए हैं । कहा परब्रह्म परमात्मा जो आपने दिया शिरोधार्य, बहुत सुंदर । अब जो मुझे अच्छा लगता है वह दीजिए ।

अरे ! अभी तो आप कह रहे थे मुझे मांगना नहीं आता और अभी आप मेरे से मांगने को तत्पर हो रहे हो । कहा महाराज आपने ज्ञान देकर तो सिखा दिया मांगना कैसे हैं, क्या मांगना है ? जो वस्तुएं आपने दी वह शिरोधार्य । अब मेरी पसंद सुनिए –

मुझे देने वाला बहुत पसंद है मुझे वह दीजिएगा ।

भगवान श्री सुतीक्षण की मांग पर मुग्ध हो गए । कहा महाराज –

आप अनुज सहित, जानकी जी सहित, सदा मेरे हृदय में विराजमान रहिएगा ।

तथास्तु ।

एक और चीज, अंतिम चीज भक्त सुतीक्षण ने मांगी । रामायण जी में दो ही व्यक्ति ऐसे हैं जिन्होंने ऐसी मांग परमेश्वर के समक्ष रखी । कहा महाराज अंतिम बात अर्ज करता हूं –

मेरा यह अभिमान की रघुपति मेरे स्वामी और मैं उनका सेवक, यह अभिमान कभी ना मिटे । यही बात हनुमान जी महाराज ने भी मांगी थी । सुतीक्षण दूसरे भक्त हैं जिन्होंने आज भगवान से यही मांगा ।

ध्यान लंबे अरसे तक साधक जनों यह सब कुछ देने में सक्षम है । अतएव जप साधना के साथ-साथ, ध्यान साधना को किसी भी प्रकार से छोटा नहीं मानिएगा । इसको साथ जोड़ कर रखिएगा । अधिक जप जप अवस्था, साधना किसलिए, इसलिए कि ध्यान अवस्था में प्रवेश करना है । ध्यान साधना में प्रवेश करना है । यह ध्यान बहुत कुछ दे जाता है, बहुत कुछ बना जाता है। अतएव वापस लौट कर, घरों में जाकर, यहां के साधक या बाहर के साधक, सभी से करबद्ध प्रार्थना है, जप साधना के साथ-साथ ध्यान साधना को भी उतना ही महत्व दीजिएगा । यदि यह कहूं कि अधिक महत्व दीजिएगा, तो गलत नहीं है।

राममममममम………..

ध्यान 11

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से

((477))

ध्यान

भाग-११

प्रणाम परमेश्वर को, बहुत श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करें, गर्दन झुकाकर प्रणाम करें, बैठ जाएं सीधे होकर, आंख बंद करें सब, देखो त्रिकुटी स्थान को, गर्दन बिल्कुल परमात्मा के आमने सामने रखें, रीड की हड्डी बिल्कुल सीधी । थोड़े समय के ध्यान के बाद जाप जारी रहेगा । जो साधक बैठना चाहे स्वागत है उनका । जो उठकर जाना चाहे बिना दूसरों को disturb किए हुए मेहरबानी करके राम राम जपते हुए प्रस्थान कीजिएगा। बहुत कुछ ध्यान के विषय में आपकी सेवा में अर्ज किया जा चुका है। आज सिर्फ यही याद दिलाना होगा जब भी, जहां भी, आप ध्यान के लिए बैठे, परमेश्वर को अपने अंग संग मानकर, मन ही मन झुक कर प्रणाम करना ।

हमारी उपासना भी तो मानसिक ही है । परमेश्वर को अपने अंग संग मानकर, श्रद्धा पूर्वक बहुत झुक कर प्रणाम करना, सीधे होकर बैठ जाना, आंख बंद करके त्रिकुटी स्थान को देखना, देखते रहना, और मन ही मन प्रेम पूर्वक बिना होंठ हिले, बिना जीभ हिले, राम राम राम पुकारना या याद करना। जहां-जहां भी साधक खड़े हैं, मेहरबानी करके थोड़े समय के लिए बैठ जाएं जी ।

यह तो हो गई बात ध्यान में आप जी ने कैसे बैठना है ? देवी मस्तक ऊपर करो हाथ छोड़ो नीचे करो हाथ ।

अपने आप को निर्विचार करें । यह वास्तविक ध्यान शुरू होता है, वह तो सिर्फ आसन जमाने की बात थी । हमारा posture किस प्रकार का होना चाहिए, इससे पहले की चर्चा तो यहां तक ही थी। असली ध्यान meditation अब शुरू होती है । करें अपने आप को निर्विचार ।

निर्विचार का अर्थ कोई सांसारी विचार मन में ना आए । ऐसा होता है कि नहीं आते, आते हैं । यहां से दो काम आप कर सकते हैं ।

एक तो उन्हें रोकिएगा, वह तो आते ही

रहेंगे । आप उन्हें रोकिएगा या उनकी और ध्यान ना दीजिएगा, उन्हें महत्व ना दीजिए। भीतर भरे पड़े हैं, उन्हें निकलने दीजिए ।

जिव्हा के अगले भाग को मुख बंद करके यदि आप दांतों के साथ लगा देते हैं तो थोड़ी सहायता मिलती है । निर्विचार कैसे होना है यह विधि बताई जा रही है । सांसारिक विचार आए उन्हें रोकने की कोशिश

कीजिए । जहां जहां से वह निकल रहे हैं, वह द्वार, खिड़की, बंद करने की चेष्टा कीजिए । या आ रहे हैं तो उनकी और ध्यान ना दीजिए don’t attach any importance to them.

देखते रहिएगा, इसे साक्षी भाव कहा

जाता है।

एक और ढंग भी है जो हम नाम के उपासको के लिए बहुत लाभकारी है ।

हमारी मुख्य साधना तो जप साधना है । यदि देवियो सज्जनों आपकी जप साधना निर्विचार चलती है, तो आपको इसे ध्यान ही समझना चाहिए । आगे की यात्रा बहुत लंबी नहीं । अपने आपको निर्विचार करना बहुत महत्वपूर्ण है । अगले ढंग में प्रवेश करते हैं जो हमारी साधना है ।

जप कीजिए, जप के साथ-साथ जिनका जप कर रहे हैं, उन्हें याद कीजिए ।

उन्हें याद कैसे करना होगा ? हे अंतर्यामी परमेश्वर, भीतर विराजमान, अंतर्वासी, अंतर्यामी परमात्मा, भीतर विराजमान परमात्मा, उनके गुणों को याद कीजिए ।

परम सत्य, प्रकाश-रूप, परम ज्ञानानंदस्वरूप, सर्वशक्तिमान, एकैवाद्वितीय परमेश्वर, परम-पुरुष, दयालु देवाधिदेव, तुझको बार-बार, नमस्कार, नमस्कार, नमस्कार, नमस्कार ।।

लंबा प्रातः पाठ ना करना चाहे,

हे अंतर्यामी परमात्मा, हे सच्चिदानंद घन परमेश्वर, तुझे असंख्य बार प्रणाम ।

हे घट-घट वासी, कण कण में व्याप्त परमात्मा, तू कितना दयालु है, अतिशय कृपालु है, दाता शिरोमणि है, करुणानिधान है । यह बातें याद कर करके हृदय द्रवित होता है, शरीर पुलकित होता है, रोमांचित होता है । अपने भीतर को, अपने अंतस्थ को ऐसे विचारों से भरिए । इसे भी निर्विचार ही कहा जाएगा ।

क्यों ? कोई सांसारी विचार नहीं आ रहे ।

निर्विचार का अर्थ संसारी विचारों से रहित होना । आप भीतर ही भीतर परमात्मा से वार्तालाप कर रहे हैं, तो आप निर्विचार हैं । आप भीतर ही भीतर यह कल्पना कर रहे हैं, कोई संत मिलेगा तो क्या बात करनी है ? इसकी तैयारी कर रही हैं/कर रहे हैं, तो यह भी निर्विचार ही है । परमेश्वर के पास जाना है, उन्हें मिलना है, इसकी तैयारी भीतर ही भीतर आप कर रहे हैं, यह निर्विचारता है । आप निर्विचार हैं ।

आपने भक्ति पर कोई भाषण देना है, आपने कोई प्रवचन की तैयारी करनी है, यह सब निर्विचारता है । आपने किसी को कोई आध्यात्मिक परामर्श देने हैं, वह भीतर ही भीतर विचार आ रहे हैं, तो यह निर्विचारता

है । कई सारे ढंग आपकी सेवा में अर्ज किए गए हैं, अपने आप को निर्विचार करने के लिए ।

जब ऐसा होना शुरू हो जाएगा, इसके बाद अगला सोपान शुरू होगा, निर्विकारता का। आप निर्विकार होने शुरू हो जाएंगे, निर्विचार हो गए, निर्विकार हो गए तो जो चेतना के लक्षण है, जो उस चैतन्य के लक्षण हैं, वही लक्षण एक साधक में भी उतरते हैं ।

तो आत्मा एवं परमात्मा का एक्य स्थापित हो जाता है । दूध से दूध मिलने को तैयार, आत्मा से परमात्मा मिलने को तैयार, जीवात्मा भगवतसत्ता से मिलने को तैयार । कब ? जब निर्विचार होंगे, निर्विकार होंगे । जब आप भी बिल्कुल वैसे ही हो जाएंगे, जैसे चेतना है, जैसे चैतन्य है, जैसे परमात्मा है, तो ही तो दावे से कह सकोगे ना –

हे राम ! आप ही मेरे आत्मा के रूप में भीतर विराजमान हो ।

यह एकता कब महसूस होगी ? जब आप निर्विचार होंगे, जब आप निर्विकार होंगे । मेरी माताओं सज्जनों बहुत कठिन यात्रा, बहुत लंबी यात्रा । इतनी देर हम मौन बैठे हैं, यह हमारा स्वभाव नहीं है । हमने अपने स्वभावों को इतना बिगाड़ रखा है, हम इंतजार कर रहे हैं, कब यहां से छूटेंगे और कब बातें करनी शुरू करेंगे ।

चेतना मौन है, ध्यान रखो इन शब्दों पर । चेतना मौन है, शरीर शोर है । देखना आपको यह है कि आप अपने आप को चेतना समझते हो या अपने आपको देह मानते हो । चेतना का स्वभाव मौन है, ब्रह्म मौन है, परमात्मा मौन है, तो उनका अंश भी मौन, जो हम हैं । अपने स्वभाव को इतना बिगाड़ रखा हुआ है, बहुत कठिनाई होती है हमें इस प्रकार से मौन बैठने के लिए ।

मानो अपने आप को पकड़ कर बैठे हुए हैं, विवशता पूर्वक बैठे है । इंतजार कर रहे हैं कब समय हो और कब अमुक से हम यह यह यह यह यह बातें करें । यह अवस्था आपको कभी ध्यान में नहीं प्रवेश करने देगी।

आप worldly wise बहुत बन जाओगे । लोग आपसे सलाह लेंगे आंटी, दीदी, अंकल जी, आप दूसरों को सलाह देने वाले तो बन जाओगे, दूसरों को सुधार करने वाले तो बन जाओगे, लेकिन अपना सुधार नहीं कर पाओगे । आपने अपनी direction बदल ली है । दूसरों को सुधारने की direction ठीक नहीं । आप सुधरो, तो संसार की एक unit सुधर जाएगी । संसार को सुधारने के पीछे ना पड़ो । यह हर एक को काम परमात्मा ने नहीं सौपा हुआ, मार खाओगे । स्वयं भी फंसोगे और औरों को भी

फंसाओगे । जिनके अपने हाथ गंदे हैं वह किसी स्वच्छ वस्तु को लगाकर उसे गंदा होने से रोके, यह कैसे हो सकता है ? वह वस्तु गंदी होकर रहेगी, क्योंकि आपके अपने हाथ गंदे हैं ।

आज के बाद ध्यान के लिए इसी प्रकार से बैठा कीजिएगा ।

रामममममम…………