ध्यान 11

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से

((477))

ध्यान

भाग-११

प्रणाम परमेश्वर को, बहुत श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करें, गर्दन झुकाकर प्रणाम करें, बैठ जाएं सीधे होकर, आंख बंद करें सब, देखो त्रिकुटी स्थान को, गर्दन बिल्कुल परमात्मा के आमने सामने रखें, रीड की हड्डी बिल्कुल सीधी । थोड़े समय के ध्यान के बाद जाप जारी रहेगा । जो साधक बैठना चाहे स्वागत है उनका । जो उठकर जाना चाहे बिना दूसरों को disturb किए हुए मेहरबानी करके राम राम जपते हुए प्रस्थान कीजिएगा। बहुत कुछ ध्यान के विषय में आपकी सेवा में अर्ज किया जा चुका है। आज सिर्फ यही याद दिलाना होगा जब भी, जहां भी, आप ध्यान के लिए बैठे, परमेश्वर को अपने अंग संग मानकर, मन ही मन झुक कर प्रणाम करना ।

हमारी उपासना भी तो मानसिक ही है । परमेश्वर को अपने अंग संग मानकर, श्रद्धा पूर्वक बहुत झुक कर प्रणाम करना, सीधे होकर बैठ जाना, आंख बंद करके त्रिकुटी स्थान को देखना, देखते रहना, और मन ही मन प्रेम पूर्वक बिना होंठ हिले, बिना जीभ हिले, राम राम राम पुकारना या याद करना। जहां-जहां भी साधक खड़े हैं, मेहरबानी करके थोड़े समय के लिए बैठ जाएं जी ।

यह तो हो गई बात ध्यान में आप जी ने कैसे बैठना है ? देवी मस्तक ऊपर करो हाथ छोड़ो नीचे करो हाथ ।

अपने आप को निर्विचार करें । यह वास्तविक ध्यान शुरू होता है, वह तो सिर्फ आसन जमाने की बात थी । हमारा posture किस प्रकार का होना चाहिए, इससे पहले की चर्चा तो यहां तक ही थी। असली ध्यान meditation अब शुरू होती है । करें अपने आप को निर्विचार ।

निर्विचार का अर्थ कोई सांसारी विचार मन में ना आए । ऐसा होता है कि नहीं आते, आते हैं । यहां से दो काम आप कर सकते हैं ।

एक तो उन्हें रोकिएगा, वह तो आते ही

रहेंगे । आप उन्हें रोकिएगा या उनकी और ध्यान ना दीजिएगा, उन्हें महत्व ना दीजिए। भीतर भरे पड़े हैं, उन्हें निकलने दीजिए ।

जिव्हा के अगले भाग को मुख बंद करके यदि आप दांतों के साथ लगा देते हैं तो थोड़ी सहायता मिलती है । निर्विचार कैसे होना है यह विधि बताई जा रही है । सांसारिक विचार आए उन्हें रोकने की कोशिश

कीजिए । जहां जहां से वह निकल रहे हैं, वह द्वार, खिड़की, बंद करने की चेष्टा कीजिए । या आ रहे हैं तो उनकी और ध्यान ना दीजिए don’t attach any importance to them.

देखते रहिएगा, इसे साक्षी भाव कहा

जाता है।

एक और ढंग भी है जो हम नाम के उपासको के लिए बहुत लाभकारी है ।

हमारी मुख्य साधना तो जप साधना है । यदि देवियो सज्जनों आपकी जप साधना निर्विचार चलती है, तो आपको इसे ध्यान ही समझना चाहिए । आगे की यात्रा बहुत लंबी नहीं । अपने आपको निर्विचार करना बहुत महत्वपूर्ण है । अगले ढंग में प्रवेश करते हैं जो हमारी साधना है ।

जप कीजिए, जप के साथ-साथ जिनका जप कर रहे हैं, उन्हें याद कीजिए ।

उन्हें याद कैसे करना होगा ? हे अंतर्यामी परमेश्वर, भीतर विराजमान, अंतर्वासी, अंतर्यामी परमात्मा, भीतर विराजमान परमात्मा, उनके गुणों को याद कीजिए ।

परम सत्य, प्रकाश-रूप, परम ज्ञानानंदस्वरूप, सर्वशक्तिमान, एकैवाद्वितीय परमेश्वर, परम-पुरुष, दयालु देवाधिदेव, तुझको बार-बार, नमस्कार, नमस्कार, नमस्कार, नमस्कार ।।

लंबा प्रातः पाठ ना करना चाहे,

हे अंतर्यामी परमात्मा, हे सच्चिदानंद घन परमेश्वर, तुझे असंख्य बार प्रणाम ।

हे घट-घट वासी, कण कण में व्याप्त परमात्मा, तू कितना दयालु है, अतिशय कृपालु है, दाता शिरोमणि है, करुणानिधान है । यह बातें याद कर करके हृदय द्रवित होता है, शरीर पुलकित होता है, रोमांचित होता है । अपने भीतर को, अपने अंतस्थ को ऐसे विचारों से भरिए । इसे भी निर्विचार ही कहा जाएगा ।

क्यों ? कोई सांसारी विचार नहीं आ रहे ।

निर्विचार का अर्थ संसारी विचारों से रहित होना । आप भीतर ही भीतर परमात्मा से वार्तालाप कर रहे हैं, तो आप निर्विचार हैं । आप भीतर ही भीतर यह कल्पना कर रहे हैं, कोई संत मिलेगा तो क्या बात करनी है ? इसकी तैयारी कर रही हैं/कर रहे हैं, तो यह भी निर्विचार ही है । परमेश्वर के पास जाना है, उन्हें मिलना है, इसकी तैयारी भीतर ही भीतर आप कर रहे हैं, यह निर्विचारता है । आप निर्विचार हैं ।

आपने भक्ति पर कोई भाषण देना है, आपने कोई प्रवचन की तैयारी करनी है, यह सब निर्विचारता है । आपने किसी को कोई आध्यात्मिक परामर्श देने हैं, वह भीतर ही भीतर विचार आ रहे हैं, तो यह निर्विचारता

है । कई सारे ढंग आपकी सेवा में अर्ज किए गए हैं, अपने आप को निर्विचार करने के लिए ।

जब ऐसा होना शुरू हो जाएगा, इसके बाद अगला सोपान शुरू होगा, निर्विकारता का। आप निर्विकार होने शुरू हो जाएंगे, निर्विचार हो गए, निर्विकार हो गए तो जो चेतना के लक्षण है, जो उस चैतन्य के लक्षण हैं, वही लक्षण एक साधक में भी उतरते हैं ।

तो आत्मा एवं परमात्मा का एक्य स्थापित हो जाता है । दूध से दूध मिलने को तैयार, आत्मा से परमात्मा मिलने को तैयार, जीवात्मा भगवतसत्ता से मिलने को तैयार । कब ? जब निर्विचार होंगे, निर्विकार होंगे । जब आप भी बिल्कुल वैसे ही हो जाएंगे, जैसे चेतना है, जैसे चैतन्य है, जैसे परमात्मा है, तो ही तो दावे से कह सकोगे ना –

हे राम ! आप ही मेरे आत्मा के रूप में भीतर विराजमान हो ।

यह एकता कब महसूस होगी ? जब आप निर्विचार होंगे, जब आप निर्विकार होंगे । मेरी माताओं सज्जनों बहुत कठिन यात्रा, बहुत लंबी यात्रा । इतनी देर हम मौन बैठे हैं, यह हमारा स्वभाव नहीं है । हमने अपने स्वभावों को इतना बिगाड़ रखा है, हम इंतजार कर रहे हैं, कब यहां से छूटेंगे और कब बातें करनी शुरू करेंगे ।

चेतना मौन है, ध्यान रखो इन शब्दों पर । चेतना मौन है, शरीर शोर है । देखना आपको यह है कि आप अपने आप को चेतना समझते हो या अपने आपको देह मानते हो । चेतना का स्वभाव मौन है, ब्रह्म मौन है, परमात्मा मौन है, तो उनका अंश भी मौन, जो हम हैं । अपने स्वभाव को इतना बिगाड़ रखा हुआ है, बहुत कठिनाई होती है हमें इस प्रकार से मौन बैठने के लिए ।

मानो अपने आप को पकड़ कर बैठे हुए हैं, विवशता पूर्वक बैठे है । इंतजार कर रहे हैं कब समय हो और कब अमुक से हम यह यह यह यह यह बातें करें । यह अवस्था आपको कभी ध्यान में नहीं प्रवेश करने देगी।

आप worldly wise बहुत बन जाओगे । लोग आपसे सलाह लेंगे आंटी, दीदी, अंकल जी, आप दूसरों को सलाह देने वाले तो बन जाओगे, दूसरों को सुधार करने वाले तो बन जाओगे, लेकिन अपना सुधार नहीं कर पाओगे । आपने अपनी direction बदल ली है । दूसरों को सुधारने की direction ठीक नहीं । आप सुधरो, तो संसार की एक unit सुधर जाएगी । संसार को सुधारने के पीछे ना पड़ो । यह हर एक को काम परमात्मा ने नहीं सौपा हुआ, मार खाओगे । स्वयं भी फंसोगे और औरों को भी

फंसाओगे । जिनके अपने हाथ गंदे हैं वह किसी स्वच्छ वस्तु को लगाकर उसे गंदा होने से रोके, यह कैसे हो सकता है ? वह वस्तु गंदी होकर रहेगी, क्योंकि आपके अपने हाथ गंदे हैं ।

आज के बाद ध्यान के लिए इसी प्रकार से बैठा कीजिएगा ।

रामममममम…………

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