ध्यान 11

परम पूज्य डॉ श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से

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ध्यान

भाग-१२

बैठ जाएं सब सीधे होकर, पीठ सीधी करें, आंख बंद करें, देखें त्रिकुटी स्थान को, देखते रहे । ध्यान मुद्रा में बैठे हुए हैं आप । परमेश्वर की महती कृपा से इतने दिनों से ध्यान में बैठने का अवसर मिल रहा है । आज का प्रसंग परमेश्वर की कृपा से ध्यान संबंधी प्रसंग ही है । सुतीक्षण अर्थात जिसकी परमात्मा के प्रति तीक्ष्ण रति है, वह सुतीक्षण, sharp intellect सुतीक्षण । तीक्ष्ण बुद्धि वाला व्यक्ति सुतीक्षण ।

अध्यात्म में कुशाग्र बुद्धि कौन ? जिसका जितना अधिक परमात्मा से अनुराग, वह उतना तीक्ष्ण बुद्धि, उतना बुद्धिमान । आज सुना भगवान श्री पधार रहे हैं । कब पधारेंगे, किधर से पधारेंगे, कोई सूचना किसी प्रकार की नहीं । भक्त इतनी सी बात सुनकर मुग्ध हो गए हैं, उन्मत्त हो गए हैं ।

अनेक प्रकार की कल्पनाएं शुरू हो गई । वह दीनदयाल रघुराया, दीन वत्सल, दीनबंधु रघुराया, क्या मुझ जैसे शठ को मिलेंगे ?

शठ बंधु भी होते तो मुझे उम्मीद थी, कि जरूर मिलते । वह दीनबंधु है, और मैं दीन नहीं हूं ।

अपनी कृपा से मिले तो मिले,

मेरे पास तो किसी भी प्रकार का कोई गुण नहीं है । हां, सुना है जिस की गति परमात्मा के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं,

मानो जो सिर्फ परमात्मा के ही आश्रित है, जिसे सिर्फ उन्हीं का भरोसा है, उन्हें वह बहुत प्यार करते हैं ।

इसी प्रसन्नता भरी आशा में सुतीक्षण जी महाराज उन्माद की दशा में कभी आगे चल रहे हैं, प्रथम दर्शन मैं करूं । पीछे मुड़ना चाहते हैं, बिना मुख मोड़े पीछे आ रहे हैं । एक पागल जैसी हालत । कहीं ऐसा ना हो राम उधर से आए और उन्हें मेरी पीठ देखनी पड़े, मैं दर्शनों से वंचित रह जाऊं । अतएव मुख उसी और रखकर तो पीछे आते हैं, आगे जाते हैं, पीछे आते हैं । एक दौड़ सी लगी हुई है ।

भगवान श्री बहुत पास ही खड़े इस दृश्य को देख रहे हैं, निहार रहे हैं, अपने प्रिय भक्त

को । सुतीक्षण जी महाराज एक ही स्थान पर बैठ जाते हैं, ध्यानस्थ हो जाते हैं । भगवान को लगा सुतीक्षण शायद भूल गए हैं मेरे आगमन का, अतएव स्वयं चल पड़े हैं । भगवान जा रहे हैं, भक्त की ओर । भक्त ध्यानस्थ है । भगवान श्री उसका ध्यान तोड़ने की चेष्टा कर रहे हैं, लेकिन सुतीक्षण जी महाराज टस से मस नहीं हो रहे । वह भीतर विराजमान, भीतर प्रकट किए हुए परमात्मा, अपने इष्ट पर ध्यानस्थ हैं।

भगवान श्री निहार रहे हैं, मुस्कुरा रहे हैं, जब सुतीक्षण आंख नहीं खोल रहे तो भगवान ने अपना भीतर का रूप बदला । चतुर्भुज रूप में भगवान प्रकट हुए । सुतीक्षण ने देखा यह कौन है, यह कहां से आ गए ? आंख खुली तो सामने भगवान श्री अनुज एवं मातेश्वरी सीता सहित खड़े हैं । प्रणाम किया, दंडवत प्रणाम किया । खुशी भरे आंसुओं से चरण धो डालें, कुटिया में ले गए, पूजा की विधि जो जानते थे, वह पूजा की ।

भगवान श्री कहते हैं -भक्त सुतीक्षण में अति प्रसन्न हूं । वर मांगिए । चरण पकड़े, कहा महाराज मैंने कभी कुछ मांगा नहीं, मुझे मांगना आता नहीं, क्या मांगू आपसे ? जो आप देना चाहते हैं वह दे दीजिए । सुतीक्षण एक भक्त जिन्होंने कुछ मांगा नहीं । रामायण जी में एक व्यक्ति जितना इन को मिला है, इतना और किसी को नहीं मिला including हनुमान जी ।

भगवान श्री ने तत्क्षण बहुत कुछ दे डाला। विवेक युक्त बुद्धि दी, अविरल भक्ति‌।

संत महात्मा यहां अविरल के दो अर्थ करते हैं -ऐसी भक्ति जो किसी विरले को दी जाती है, ऐसी भक्ति जो सतत बनी रहे, नित्य निरंतर बनी रहे, अखंड बनी रहे, वह अविरल भक्ति सुतीक्षण को दे दी ।

संसार के प्रति असंगता दे दी, ज्ञान विज्ञान सहित ब्रह्म विद्या का बोध करवा दिया ।

गुण निधान हो जाओ तुम, यह वरदान दो को मिला है ।

मातेश्वरी सीता ने हनुमान जी को गुणानिधि होने का वरदान दिया था । आज प्रभु राम ने सुतीक्षण को गुणानिधि होने का वरदान दिया है । संत महात्मा इसका अर्थ यूं करते हैं ? नवधा भक्ति;

भक्ति के 9 गुण,

धर्म के 10 लक्षण

तथा योग के 8 अंग

कुल मिलाकर 27 total 9 पूर्णता प्रदान कर दी । गुण निधान कहकर, गुणनिधि वरदान देकर जो जीवन को पूर्णता प्रदान कर दी ।

सुतीक्षण जी महाराज यह सब कुछ पाकर अपार हर्षित है । अपने आपको अतिशय भाग्यवान मान रहे हैं । चरण नहीं छोड़े, पकड़े हुए हैं । कहा परब्रह्म परमात्मा जो आपने दिया शिरोधार्य, बहुत सुंदर । अब जो मुझे अच्छा लगता है वह दीजिए ।

अरे ! अभी तो आप कह रहे थे मुझे मांगना नहीं आता और अभी आप मेरे से मांगने को तत्पर हो रहे हो । कहा महाराज आपने ज्ञान देकर तो सिखा दिया मांगना कैसे हैं, क्या मांगना है ? जो वस्तुएं आपने दी वह शिरोधार्य । अब मेरी पसंद सुनिए –

मुझे देने वाला बहुत पसंद है मुझे वह दीजिएगा ।

भगवान श्री सुतीक्षण की मांग पर मुग्ध हो गए । कहा महाराज –

आप अनुज सहित, जानकी जी सहित, सदा मेरे हृदय में विराजमान रहिएगा ।

तथास्तु ।

एक और चीज, अंतिम चीज भक्त सुतीक्षण ने मांगी । रामायण जी में दो ही व्यक्ति ऐसे हैं जिन्होंने ऐसी मांग परमेश्वर के समक्ष रखी । कहा महाराज अंतिम बात अर्ज करता हूं –

मेरा यह अभिमान की रघुपति मेरे स्वामी और मैं उनका सेवक, यह अभिमान कभी ना मिटे । यही बात हनुमान जी महाराज ने भी मांगी थी । सुतीक्षण दूसरे भक्त हैं जिन्होंने आज भगवान से यही मांगा ।

ध्यान लंबे अरसे तक साधक जनों यह सब कुछ देने में सक्षम है । अतएव जप साधना के साथ-साथ, ध्यान साधना को किसी भी प्रकार से छोटा नहीं मानिएगा । इसको साथ जोड़ कर रखिएगा । अधिक जप जप अवस्था, साधना किसलिए, इसलिए कि ध्यान अवस्था में प्रवेश करना है । ध्यान साधना में प्रवेश करना है । यह ध्यान बहुत कुछ दे जाता है, बहुत कुछ बना जाता है। अतएव वापस लौट कर, घरों में जाकर, यहां के साधक या बाहर के साधक, सभी से करबद्ध प्रार्थना है, जप साधना के साथ-साथ ध्यान साधना को भी उतना ही महत्व दीजिएगा । यदि यह कहूं कि अधिक महत्व दीजिएगा, तो गलत नहीं है।

राममममममम………..

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