ध्यान 14

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से

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ध्यान

भाग-१४

बैठ जाए सब ध्यान मुद्रा में,

पीठ रखे सीधी, आंख बंद करें । देखें बिंदी वाली जगह को, त्रिकुटी स्थान को देखते

रहो । सब आंख बंद रखे जी, शाबाश । आज्ञा चक्र को देखते रहो । अभी आपने प्रियतम परमात्मा को अपने अंग संग समझ कर तो प्रणाम करके मन ही मन बैठे हो

आप । ध्यान के लिए ऐसे ही बैठा जाता है । परमेश्वर को अपने अंग संग मानकर, प्रणाम करके, सीधे होकर बैठ कर, आंख बंद करके, त्रिकुटी स्थान को देखते हुए, भीतर ही भीतर मन ही मन राम राम राम उच्चारण करना होता है, फिर पुकारना होता है और फिर परमात्मा को याद करना होता है । यहां तक तो आप करते ही हैं । अब थोड़ा आगे बढ़ते हैं ।

नाम का उच्चारण करते हैं तो साथ ही साथ नाम को अपने नेत्रों में वा त्रिकुटी स्थान पर देखें शब्द को । नाम हमारे लिए भगवान है इष्ट है, हमारे अधिष्ठात्री देवता । उन नाम को आंखों में देखें, उन नाम को त्रिकुटी स्थान में देखें । धीरे-धीरे अपने मन को निर्विचार करना शुरू करें । राम नाम ऐसे उच्चारण करें की मन को संसार में जाने का अवसर ना मिले, कोई सांसारिक विचार ना उठे । उठे तो, यहां पर या तो रोकने की चेष्टा कर सकते हैं, या यह सोचे कि जो आए है वह निकल जाएंगे, इनको निकलने का रास्ता दीजिए । जैसे मर्जी कीजिए । अपने आप को संकल्प विकल्प रहित करना है । अपने आपको निर्विचार करना है । यहीं से आगे की यात्रा शुरू होगी ।

जब तक अपने आप को निर्विचार, thoughtless, निर्विचार अर्थात thoughtless, विचार शून्य,

जब तक ऐसा नहीं करोगे आगे की यात्रा बहुत कठिन होगी । अभी निर्विषय होना है, अभी निर्विकार होना है, फिर पता लगेगा मन कितना पवित्र हो गया है । ऐसे मन का ही तादात्म्य परमात्मा के साथ हो पाएगा । निर्मल मन ही निर्मल परमात्मा से मिल सकेगा । गंदा मन कभी नहीं, रोगी मन कभी नहीं ।

इसकी पवित्रता ही, इसका पवित्रीकरण ही साधना का लक्ष्य है । जैसे मन पवित्र होता है, यही अवस्था है जब आप निर्विचार है, निर्विषय है, निर्विकार है, इसी अवस्था में प्रार्थना के स्वर प्रस्फुटित होते हैं । तरह-तरह की प्रार्थनाएं निकलती है, तरह-तरह के दिव्य विचार आते हैं, तरह तरह के बोध होते हैं, कहीं-कहीं की भावी घटनाओं का पता चलता है।

यही अवस्था है जिस वक्त आप परमात्मा से वार्तालाप कर सकते हो । ऐसी अवस्था में ही वार्तालाप होता है ।

You are in communion with the lord.

परमेश्वर कृपा होती है तो उत्तर भी सुनाई देते हैं । और आप अपना काम करते जाइएगा, ऐसी अवस्था में ही होंगे । आप निश्चित रहिएगा की आपकी पुकार ऐसी अवस्था है, तो ऐसी अवस्था में आपकी पुकार सुनी जा रही है । जहां पहुंचनी चाहिए थी वहां पहुंच गई है ।

सामान्यता हमारी पुकार बाहर तक भी नहीं निकल पाती, it is so feeble इतनी कमजोर होती हैं, इतनी गंदी होती है, कि वह संसार में ही रह जाती है । वह परमात्मा तक नहीं पहुंच पाती । ऐसी अवस्था लाभ करोगे तो आप की पुकार निश्चित रूप से परमात्मा तक पहुंचेगी । ऐसी अवस्था लाभ करने के लिए प्रयत्नशील रहना ही ध्यान है । अभ्यास मांगता है ध्यान । अभ्यासरत रहिए, अपने वैराग्य को बढ़ाते रहिए । परमेश्वर से अनुराग बढ़ता रहे, तो संसार से वैराग्य अपने आप ही होता रहता है । तो हमारे लिए महत्वपूर्ण यही है की परमात्मा के साथ हमारी प्रीति, हमारी अनुरक्ति बढ़ती रहे, नित्य प्रति बढ़ती रहे । तो संसार के प्रति आपको वैराग्य के लिए कुछ करना नहीं पड़ेगा, वह अपने आप हो जाएगा । वह परमात्मा स्वयं करेंगे, स्वत: हो जाएगा । तो ऐसी अवस्था लाभ करने के लिए साधनारत रहिएगा ।

मेरी माताओं सज्जनों यह अवस्था लाभ करनी हमारे लिए आसान कब होगी ? जिस भक्त भाव में हम यहां बैठे हैं, इस वक्त हम भक्त हैं, इस वक्त हम साधक हैं संसारी

नहीं । यदि दिनभर ऐसा भाव बना रहे तो यह अवस्था बहुत सहजता से लाभ हो जाएगी । लेकिन यहां के कुछ मिनट भक्त भाव और बाहर निकलते ही अभक्त भाव, अर्थात संसारी भाव, और दिनभर वहीं रहे, तो इस थोड़े समय के भक्त भाव से कुछ विशेष लाभ नहीं होने वाला ।

हमारी सब की शिकायत यही कि हमारा ध्यान टिकता नहीं, हमारी प्रगति कुछ नहीं हो रही, एक मुख्य कारण । जिस भाव चाव में हम इस वक्त परमात्मा के श्री चरणों में बैठे हुए हैं, यह भक्त का भाव है, भक्त भाव, भक्ति भाव में बैठे हुए हैं । बाहर निकलते ही यह तत्काल अभक्त भाव बन जाता है, संसारी भाव बन जाता है । इन दोनों भावों में बहुत अंतर है । यहां बैठे हुए आपको छोटी मोटी तकलीफ महसूस नहीं हो रही, कोई रोग याद नहीं आ रहा, शरीर की कोई समस्या याद नहीं आ रही, घरेलू समस्या कोई याद नहीं आ रही, सगे संबंधियों की कोई समस्या याद नहीं आ रही । यह अभी जो रुकी हुई है, बाहर निकलते ही सबके सब आपका गला दबोच लेती है ।

यदि हम शूरवीर नहीं, यदि हम strong enough नहीं तो उनकी जीत हो जाती है, और हमारी हार । ऐसी अवस्था में ध्यान कैसे लगेगा ?

इस वक्त आपको किसी चीज की चाह नहीं है । आप कामना शून्य बैठे हुए हो । भले ही थोड़े समय के लिए ही सही, लेकिन इस वक्त बिलकुल आप कामना शून्य बैठे हो । यदि कोई मांग है भी तो यही कि हमारा ध्यान ठीक लगना चाहिए, हमें परमात्मा की भक्ति मांगनी चाहिए, इत्यादि इत्यादि । इनको सांसारिक मांगे नहीं कहा जाता है, इनको कामना नहीं कहा जाता ।

लेकिन बाहर निकलते ही सब कुछ बदल जाता है । हम कामी हो जाते हैं, हम क्रोधी हो जाते हैं, अभिमानी हो जाते हैं, ईर्ष्यालु हो जाते हैं, इत्यादि इत्यादि । तो सब कुछ किए कराए पर पानी फिर जाता है । यदि आप यह भक्त भाव अपना बना कर रखें लंबी अवधि तक, तो ध्यान अवस्था जैसी आप जी से वर्णित की गई है, इसे लाभ करना कोई कठिन बात नहीं है, बिल्कुल भी कठिन बात नहीं है । यह कठिन क्यों ? क्योंकि हम बहुत कमजोर हैं ।

यह कठिनाइयां हमारी कमजोरी का लाभ लेती हैं, और हमें हमारे ऊपर हावी रहती हैं। यदि आप strong है, बलवान है उस बलदाता के साथ हर वक्त जुड़े हुए हैं, तो कोई कठिनाई की ऐसी हिम्मत नहीं जो आप पर हावी हो सके । आज इतना ही शुक्रवार को फिर ध्यान की बैठक में बैठेंगे ।

रामममममममम……….

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