ध्यान 14

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से

((481))

ध्यान

भाग-१५

करो देवियो सज्जनों झुककर प्रणाम परमेश्वर के श्री चरणों में, और बैठ जाओ सीधे होकर । आंख बंद करें, देखें त्रिकुटी स्थान को । ध्यान अवस्था में बैठिएगा । ध्यान के steps फिर याद दिलाता हूं । परमेश्वर को अपने अंग संग मानकर, झुक कर, प्रणाम करके, सीधे होकर बैठ के, आंख बंद करके त्रिकुटी स्थान को देखते हुए, भीतर ही भीतर अर्थात मन ही मन, परमेश्वर अपने प्रियतम परमात्मा को पुकारना ध्यान कहाता है । हम पुकारने से शुरू करते हैं, उच्चारण से शुरू फिर पुकारना, फिर स्मरण, याद करना इस क्रम को बनाए रखिएगा । इसी को follow कीजिएगा । परमेश्वर कृपा से लाभ होगा ।

हम सब यहां परमात्मा के पुजारी बैठे हैं । हमारी पूजा और पूजाओं से भिन्न है । जिन पूजाओं से हम परिचित हैं, उन पूजाओं से हमारी पूजा भिन्न है । स्वामी जी महाराज फरमाते हैं –

“परमात्मा को पूजिये

घट में धरकर ध्यान,

मन को मंदिर मानिए

जो है परम महान”

कभी ना भूलने वाला दोहा । इसमें स्वामी जी महाराज ने अपनी पूजा पद्धति समझाई है । घट घड़े को कहते हैं, शरीर को भी घट कहते हैं । शरीर का ऊपरी भाग देखें तो यह उल्टा घट है । घड़ा जो उल्टा रखा गया है, इसका मुख नीचे की और है, बाकी का भाग ऊपर की और । यह शरीर हमारा घट है । परमात्मा को पूजिये घट में धरकर ध्यान ।

स्वामी जी महाराज पूजा की विधि समझा रहे हैं । हमारा ध्यान घट में होना चाहिए । हमारा ध्यान बाह्य वस्तुओं पर नहीं होना चाहिए, बाहर नहीं होना चाहिए । मन को मंदिर मानिए । स्वामी जी महाराज ने और स्पष्ट किया है, किनका मंदिर, उनका,

जो है परम महान,

जो सबसे महान है,

उस मंदिर में मूर्तिमान है, विराजमान है,

उनकी पूजा कीजिए । स्पष्ट है हमारी पूजा वस्तु प्रधान नहीं है । हमारी पूजा क्रिया प्रधान भी नहीं है । सामान्यता तो हम अपने हाथों से अगरबत्ती जलाते हैं, दीप जलाते हैं, फूल चढ़ाते हैं, फल चढ़ाते हैं, मिठाई चढ़ाते हैं, चलकर मंदिर जाते हैं, वहां जाकर प्रसाद चढ़ाते हैं, प्रसाद लेते हैं, आरती उतारते हैं, आरती लेते हैं, इत्यादि इत्यादि । हम इस पूजा से परिचित हैं । इसी पूजा से हमारी जानकारी है। इसमें कोई दोष नहीं है ।

यदि यही पूजा सही ढंग से की जाए जैसे स्वामी जी महाराज फरमा रहे हैं, तो इस पूजा के अतिरिक्त फिर आपको कुछ करने की जरूरत नहीं । यह पूजा ही अपने आप में संपूर्ण साधना हो जाएगी, अन्यथा बिल्कुल अधूरी जैसे कर्मकांड ।

अभी तो इस पूजा में सिर्फ शरीर की involvement है । पांव से चलकर आप मंदिर जाते हैं, तो शरीर द्वारा, हाथों से आप पुष्प चढ़ाते हैं, दीप जलाते हैं, अगरबत्ती जलाते हैं, तो शरीर द्वारा, प्रसाद चढ़ाते हैं, तो शरीर द्वारा मानो इस पूजा की सीमा सिर्फ शरीर । यह एक शारीरिक क्रिया है। यदि इसके साथ मन को जोड़ा जाए, चित् को जोड़ा जाए, भावों को जोड़ा जाए, तो यही पूजा संपूर्ण पूजा बन सकती है, जिसे संत महात्मा मानसिक उपासना कहते हैं।

हमारी उपासना मानसिक उपासना है । हमारी पूजा मानसिक पूजा है । हम हाथ से कम करते हैं, मन से ज्यादा करते हैं, हृदय से ज्यादा करते हैं । इसलिए इस पूजा में चिंतन की प्रधानता है, जप की प्रधानता है, ध्यान की प्रधानता है ।

शारीरिक क्रियाओं की प्रधानता न्यूनतम, बहुत कम । माला फिर रही है, उसमें उंगलियां चल तो रही हैं, लेकिन इस जप के साथ यदि मन नहीं जुड़ा हुआ तो यह बिल्कुल tape recorder की तरह ही है। यह बिल्कुल यांत्रिक है । इसका महत्व कितना होगा, वह परमात्मा जाने ।

तो आज सर्वप्रथम इतनी समझ हमें आई कि स्वामी जी महाराज की पूजा, उपासना पद्धति मानसिक उपासना है । तो इसमें क्या करना होता है ? इसमें आप के भाव किस प्रकार के होने चाहिए, मानसिक अर्थात काल्पनिक । चलिए काल्पनिक ना भी सही, आप अपने पूजा के कक्ष में इस वक्त बैठे हुए हैं घर पर । वहां आपने प्रवेश किया । अधिष्ठान जी के आगे जो पर्दा लगा हुआ था, उसे हटाया या द्वार बंद था तो उसे खोला और आपने मत्था टेका । मत्था टेक कर तो आप बैठ जाते हैं । अगरबत्ती, धूप वहां पड़ी हुई होती है, उसे सबसे पहले जलाते हैं । तनिक सोचो देवियो सज्जनों उसके पहले या बाद जोत जलाएंगे, फिर धूप जलाएंगे, अगरबत्ती जैसा भी आपका क्रम हो कोई फर्क नहीं पड़ता । वहां बैठकर आपने धूप या अगरबत्ती को जलाया है, what for, यह सोचने का विषय है, यह किस लिए जला रहे हो ?

क्या परमात्मा को सुगंधित करना चाहते हो, परमात्मा को आप इसकी सुगंध देना चाहते हो । उसे क्या आवश्यकता है इस सुगंध की ? देवियो सज्जनों इतिहास साक्षी है, जहां परमात्मा का प्रकटन होता है, जहां परमात्मा की उपस्थिति होती है, सबसे पहले वातावरण सुगंधमय हो जाता है । यह उनका आने का चिन्ह, यह उनके प्रकट होने का चिन्ह, यह उनकी उपस्थिति का चिन्ह । स्पष्ट है कमरे में उनकी उपस्थिति नहीं है, तो आप सुगंध जलाकर तो आप ऐसा कल्पना कर रहे हैं, कि परमात्मा यहां उपस्थित अब है। तो अगरबत्ती किसलिए जलाई ताकि वातावरण सुगंधित हो जाए, परमात्मा की उपस्थिति का हमें बोध हो । अब आपने दीप जलाया इत्यादि इत्यादि, जो भी कुछ भी आप करते हैं, किया । हमें अगरबत्ती की सुगंध क्या समझाती है, धूप की सुगंध क्या समझाती है ?

आपके रोकने पर भी धूप का धुआं, धूप की सुगंध, अगरबत्ती की सुगंध, जहां आप नहीं भी बैठे हुए हैं, वह वहां भी पहुंच जाएगी, बाहर भी निकल जाएगी । बाहर के लोगों को भी पता लग जाएगा, अंदर मम्मी ने धूप जला दिया है, अगरबत्ती जला दी है । मानो परमेश्वर की सर्व व्यापकता का बोध दिलाए धूप या अगरबत्ती का जलाना, तो सार्थक अन्यथा यांत्रिक । आप meaning ही नहीं समझ रहे कि हमने अगरबत्ती किस लिए जलाई है ?

अब आप बैठे हैं । कहां पर ? उस जगह पर जहां सर्वव्यापक परमात्मा विराजमान है । क्यों ? सुगंध का वातावरण है, और जहां सुगंध होती है, वहां ऐसा माना जाता है कि वहां परमात्मा विराजमान है । तो अब आप को परमात्मा की उपस्थिति का बोध हो रहा है, अनुभूति हो रही है । अब आगे पूजा आरंभ होती है । तो आज इतना ही ।

आगे की चर्चा और आगे जारी रखेंगे । बहरहाल हमें पक्का पता लग गया हमारी उपासना पद्धति, पूजा पद्धति मानसिक है। वस्तु प्रधान नहीं हैं । यदि हम वस्तुओं का प्रयोग करते हैं, तो मानसिक उपासना की तैयारी के लिए ।

रामममममम……….

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