ध्यान 18

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से।

28 अप्रैल, 2012

((484))

ध्यान

भाग-१८

करें भक्तजनों झुककर प्रणाम परमेश्वर को, गर्दन झुका कर मन ही मन परमेश्वर को अंगसंग समझकर तो करें प्रणाम, बैठ जाए सीधे होकर सब, गर्दन रखें परमात्मा के आमने-सामने, गर्दन झुकी ना रहे जी, करें आंख बंद करें, बंद आंख त्रिकुटी स्थान को देखिए, देखते रहिए ।

भीतर ही भीतर राम-राम गूंजे, गूंजाइए । जैसे किसी कमरे में बंद कमरे में आप आवाज देते हैं, तो वह आवाज गूंजती है, eco, ऐसे राम गूंजाइए भीतर । स्वयं राम एक दफा बोलकर उस गूंज को सुनिए । यही गूंज भक्तजनों कालांतर में नाद बन जाती है, बहुत मीठी है। एकाग्रता के लिए इससे बढ़कर और कोई object नहीं ।

शाबाश ! आज बोलना कम, करना अधिक । आज से ध्यान का समय थोड़ा बढ़ाएंगे। सुनना इतना जरूरी नहीं, जितना यह करना । सुनना किस लिए था ? ताकि यह किया जा सके । अब करने की बारी शुरू हो रही है।

कल्पना कीजिए इस वक्त बैठे-बैठे किसी के प्रति ईर्ष्या की वृत्ति जागृत हुई है, उठी है। ईर्ष्या की वृत्ति उठने के साथ ही साथ अनिष्ट चिंतन की वृत्ति भी शुरू हो जाएगी, रोकिएगा इसे । नहीं, मुझे ऐसा नहीं करना है, यह सुने हुए का फल । जो सुना उसे अब कीजिएगा, तब ध्यान अवस्था लाभ होगी । यही वृत्तियां एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, इसी को भटकना कहा जाता है। इसी को जब यह रुक जाती हैं, रोकी जाती हैं, तो इन्हें निर्विचार होना कहा जाता है। No worldly thought. यही तो worldly thoughts है ।

किसी के प्रति ईर्ष्या, किसी के प्रति द्वेष, किसी व्यक्ति वस्तु के प्रति राग ।‌ यह सब वृत्तियां हैं, thoughts हैं। इनको रोकना ही अपने आप को निर्विचार करना है । भरसक प्रयत्न की आवश्यकता है । इसी को भगवान श्री अभ्यास कहते हैं। बहुत अभ्यास की आवश्यकता है ।

यदि यह ऐसे ना रुके तो भगवत विचार मन में लाइए। तो यह अपने आप या तो निकलने बंद हो जाएंगे, या थम जाएंगे । तो भगवत विचार बने रहेंगे । कोशिश तो यही करनी है ना भौतिक विचार ना बने रहे, भगवत विचार बने रहे, तो यह हानिकारक नहीं है । कालांतर में तो भक्तजनों जिसे समाधि कहा जाता है, उसमें तो आप नि:शब्द भी होते हैं, और निर्विचार भी होते हैं । मानो राम शब्द गूंजना या उच्चारण भी बंद हो जाता है । इसी अवस्था को निर्विकल्प समाधि कहा जाता है ।

No mind कैसी अवस्था है यह, no mind ऐसी अवस्था मन की अवस्था नहीं है । अब आप आत्मस्वरूप में स्थित हो गए हैं । ऐसी अवस्था को नि:शब्द, निर्विचार, निर्विकार ही आत्मा कहते है । ऐसी स्थिति में कुछ करना नहीं पड़ता । ऐसी स्थिति को लाभ करना ही परमात्मा का साक्षात्कार है, आत्मा का साक्षात्कार है । देखना, सुनना सब बंद हो जाता है। एक अनुभूति सी होती है। इसीलिए इसे आत्मानुभूति कहा जाता है, ईश्वर अनुभूति कहा जाता है । भक्त इसे आत्मा का दर्शन कहता है, परमात्मा का दर्शन कहता है।

स्वभाव बहुत पक्के,

यही अवस्था है ध्यान अवस्था। यदि किसी ने ईमानदारी से इस ध्यान अवस्था को लाभ किया है, या लाभ करने के लिए अभ्यास किया है, तो इसी अवस्था में स्वभाव बदला जा सकेगा, अन्यथा कभी नहीं। संत के संग से भी नहीं,

यह आपको स्वयं ही करना है। संत सिर्फ प्रेरक है, बल भी देता है, लेकिन करना आप ही को है । जन्मजात स्वभाव, जन्म जन्मांतर से इकट्ठा किया हुआ स्वभाव, इसी ध्यान अवस्था में परिवर्तित किया जा सकता है, इसका रूपांतरण किया जा सकता है, अन्यथा कोई अन्य साधन नहीं है।

बहुत मीठी मीठी बातें आप करने लग गए हैं, यह natural हैं या synthetic, आप जानो । लेकिन स्वभाव यदि कहीं ना कहीं कटुता का है, तो आप उसे रोक नहीं सकोगे, आप बीच में जहरीला बाण मारकर रहोगे, ईर्ष्या की अग्नि आप लगा कर रहोगे, जलाकर रहोगे।

मैं तो यह समझता हूं परमेश्वर ने मानव जन्म देकर जो कृपा कि, वह सिर्फ इसीलिए यह लंबा syllabus सौ साल का, पचास साल का, सत्तर साल का, अस्सी साल का, इतना लंबा syllabus किस लिए दिया ? सिर्फ अपने अपने स्वभाव बदलने के

लिए । साधना सिर्फ इसी काम के लिए है । भूल जाओ बड़ी-बड़ी बातों को । यदि यह नहीं होता तो बड़ी बातें मात्र imagination.

जुट जाओ साधक जनों ।

यह जन्म, यह जिंदगी, कहीं लुट ना जाए, वृथा ना चली जाए । इतने महान, सुघड़ गुरुजनों का मिलना, उनकी प्रेरणा, उनके आदर्श सामने, उनका बल, तपस्या का बल, साधना का बल, उनके आशीर्वाद, उनका मार्गदर्शन, यह कोई छोटे-मोटे लाभ नहीं है । परमात्मा की असीम कृपा ही समझनी चाहिए।

राममममममम………

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