ध्यान 19

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से।

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ध्यान

भाग-१९

परमेश्वर को अपने अंग संग मानकर, गर्दन झुका कर, करें प्रणाम, बैठ जाएं सीधे होकर, गर्दन रखें परमात्मा के आमने-सामने, रीड की हड्डी सीधी, सब आंख बंद करें, आंख बंद करो जी, देखो त्रिकुटी स्थान को ।

Steps पुन: दोहराता हूं, परमेश्वर को अपने अंग संग मानकर, झुक कर प्रणाम करके, सीधे होकर बैठ कर, आंख बंद करके, बिंदी वाली जगह, त्रिकुटी स्थान, भृकुटी स्थान, आज्ञा चक्र, आप जी का तीसरा नेत्र, आंख बंद करके इस स्थान को देखिए। मन ही मन राम राम पुकारिये, याद कीजिए, गुंजाइए ।

यह steps हर साधक को कंठस्थ होने चाहिए । रोज करने की चीज है । सुबह शाम, त्रिकाल संध्या, भी कर सकते हैं । जिन साधकों के पास समय हो, दिन में दो बार तो बैठना ही चाहिए ध्यान के लिए ।

किस लिए ध्यान की इतनी आवश्यकता कही जा रही है, क्यों बल दिया जा रहा है ? स्वामी जी महाराज तो बड़े बलाढ्य शब्दों में समझाते हैं, परमेश्वर की कृपा का पात्र बन जाना ही ध्यान का लक्ष्य है । सकल साधनओं का लक्ष्य भी यही है । ध्यान का प्रमुख लक्ष्य परमेश्वर से जुड़ना, जिसे योग कहा जाता है । दुखों से वियोग, परमेश्वर से योग, यह ध्यान का लक्ष्य है । जो कुछ भी इसके लिए किया जाता है, वह तो सब क्रियाएं हैं । लक्ष्य तो यही है, परमेश्वर के साथ युक्त होना।

स्वामी जी महाराज फरमाते हैं, ध्यान का समय हमारे लिए मात्र व्यायाम का समय नहीं। योगाभ्यास अथवा प्राणायाम का समय नहीं । हमारे लिए ध्यान का समय वह है, जिस वक्त हम भरसक प्रयास एवं अभ्यास कर रहे हैं, हमारी तार परमात्मा के साथ जुड़ जाए ।

साधारण उदाहरण देकर स्वामी जी महाराज समझाते हैं,

बिजली की तार जुड़ती है स्रोत के साथ, तो बिजली का प्रवाह । आपकी तार यदि परमात्मा से जुड़ेगी, तो परमात्मा की कृपा का प्रवाह क्यों नहीं होगा, परमात्मा की दया का प्रवाह क्यों नहीं होगा, परमात्मा के प्यार का पर वह क्यों नहीं होगा ? यदि नहीं हो रहा, तो यही समझना चाहिए की तार टूटी हुई है । पानी की नली pipe कहीं blocked है, तभी पानी आपकी टूटी में नहीं आ रहा। अन्यथा कोई कारण नहीं, क्यों ना आए ? पानी तो बह रहा है पाइप में, औरों के पास तो जा रहा है । आपके घर यदि नहीं पहुंच रहा, तो आपको किसी प्लंबर को बुलाकर तो दिखवाना होगा कि कहां blockage है, और उसे दूर करवाना होगा, ताकि पानी आपको पीने को मिल सके । कृपा रूपी जल के बिना, कृपा रूपी दूध के बिना बच्चा कैसे जिएगा ? बहुत जरूरी है।

क्या ऐसी चीज है साधक जनों, जो इस मन में परमेश्वर के साथ जुड़ती है, या परमेश्वर से वियुक्त होती है, उन्मुख होती है । क्या चीज है वह ? उसे ही देवियो सज्जनों मन कहा जाता है। यह मन ही परमात्मा से विमुख होता है, और मन ही परमात्मा के उन्मुख होता है। मन ही परमेश्वर से वियुक्त होता है, और मन ही परमेश्वर से युक्त करना है । इसे ही जोड़ना है । यह मन है क्या ?

आप सब जानते हो मन नाम का कोई अवयव, कोई organ हमारी body में नहीं है । डॉक्टरों से पूछ लीजिएगा, जिन्होंने इस शरीर का अध्ययन किया हुआ है। एक एक अंग को

खोल-खोल कर देखा हुआ है, सारे शरीर को चीर-फाड़ कर देखा हुआ है, उनसे पूछ लीजिएगा वह आपको स्पष्ट बताएंगे, confirm करेंगे मन नाम का organ कोई हमारे शरीर में नहीं है । जैसे जिगर है, हृदय है, मस्तिष्क है, आंखें हैं, गुर्दे हैं, इस प्रकार का organ जिसे मन कहा जाता है, वह हमारे शरीर में नहीं है । संत महात्मा बहुत सरल शब्दों में समझाते हैं, मन कुछ नहीं है, It is just a bundle of thoughts.

कर्म संस्कारों के पिछले जन्मों के, ना जाने कब से जीवन चला आ रहा है । उन जन्मों में जो कर्म हमने किए, उनके जो impressions जो पड़े रहते हैं, संस्कार जिन्हें कहा जाता है, दबे रहते हैं, उभरे रहते हैं, कुसंस्कार भी होते हैं, सुसंस्कार भी होते हैं, इत्यादि इत्यादि;

उन कर्म संस्कारों का, अपने ही किए कर्मों का, ध्यान दीजिएगा । अपने ही किए कर्मों के संस्कार, उनका पुंज मन कहाता है । संतों महात्माओं ने स्पष्ट करने के लिए, हमें समझाने के लिए कितने सुंदर ढंग से हमें समझाया है । तो मन क्या हुआ, it is just a bundle of thoughts.

कर्म जो impressions छोड़ता है, जो कुछ हम करते हैं, जो कर्मों का remnant रहता है, उन संस्कारों को, उन impressions के पुंज को, इकट्ठा कर लिया जाए, तो उसे मन कहा जाता है। मन नाम का कोई organ हमारे शरीर में नहीं है ।

स्वभाव है इसका कल्पना करना । यह मन क्या करता है ? जैसे बुद्धि का स्वभाव है निर्णय लेना, मन का स्वभाव है कल्पना करना । इसे संकल्प, विकल्प कहा जाता है ।‌ पंजाबी में देवियो सज्जनों शब्द मुझे बहुत अच्छा लगा, इसलिए आपकी सेवा में प्रयोग किया जा रहा है । यह मन कलप रहा है, कलपता है । क्यों कलपता है ? जो इसे चाहिए वह उसे मिल नहीं रहा, इसलिए मन कलप रहा है । कलपता है मन । पंजाबी में कहते हैं क्यों कलप रहे हो ? यह मन कलप रहा है, इसे परमात्मा चाहिए, इसे परमात्मा की कृपा चाहिए, इसे परमात्मा का प्यार चाहिए, यह परमात्मा से प्यार करना भी चाहता है, और परमात्मा से प्यार पाना भी चाहता है, लेकिन इसे दोनों नहीं मिल रहे । यह चाहता कुछ है, आप देते कुछ हो ।

यह परमसुख चाह रहा है, परमानंद चाहता है, परम शांति चाहता है, लेकिन आप उस परम शांति की इसकी चाह पूरी करने के लिए उसे पुत्र दे देते हो । उससे उसकी भूख, प्यास मिटती नहीं । बहुत स्वादु भोजन देते हो, उससे उसकी भूख प्यास मिटती नहीं है, तरह तरह का भोजन देते हो, उससे उसकी तृप्ति नहीं होती, इसलिए भटक रहा है । कभी आप बड़ी गाड़ी भी दे देते हो, कभी आप विवाह भी करके तो वह सुख देना चाहते हो । लेकिन वह सुख जिसकी वह चाह रख रहा है, जिसकी वह मांग कर रहा है, वह सुख उसे नहीं मिल रहा । इसलिए आपके सारे के सारे प्रयास बिल्कुल विफल जा रहे हैं।

आप उसे मर्सिडीज गाड़ी दे दीजिएगा, उससे उसे परमसुख नहीं मिल रहा । आप उसे पुत्र का सुख दे दीजिएगा, उससे उसे सुख नहीं मिल रहा ।

आप उसे परिवार दे दीजिए, बड़ी कोठी बनाकर दे दीजिएगा, उससे उसकी तृप्ति नहीं हो रही ।

सुख तो मिल रहा होगा, लेकिन वह सुख नहीं, जिसे वह चाहता है, जिसे परमसुख कहा जाता है । इसलिए मन कलप रहा है, कलपता है, भटकता है । तरह-तरह के संकल्प उसके अंदर उठते हैं, तरह तरह के विकल्प वह करता है । क्यों ? जो वह चाहता है, वह उसे मिल नहीं रहा । कल जारी रखेंगे साधकजनो इस चर्चा को और आगे । आज थोड़े समय के लिए मुझे भी इजाजत दीजिएगा । मैं आपके साथ सब के साथ ध्यान में थोड़े समय के लिए बैठूंगा ।

राममममममम…….

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