ध्यान 20

परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से

((486))

ध्यान

भाग-२०

परमात्मदेव को अपने अंग संग मानकर, गर्दन झुका कर, श्री चरणों में करे प्रणाम ।

बैठ जाए सीधे होकर, पीठ सीधी रखें, रीड की हड्डी गर्दन परमात्मा के आमने-सामने रहे , सभी आंख बंद करें । जहां जहां भी हो साधक जनों आप मेहरबानी करके इस वक्त बैठ जाइएगा । आंख बंद करके देखिएगा त्रिकुटी स्थान को, देखते रहिएगा ।

गीता जी फरमाती है जो व्यक्ति प्रसन्न चित्त रहता है, उसे बहुत जल्दी परम शांति भी लाभ हो जाती है, शीघ्र ध्यान अवस्था लाभ हो जाती है ।

एक light सी बात से चर्चा को जारी रखते हैं । कल एक युवक का पंजाब से पत्र आया था । लिखते हैं computer engineer हूं। अफगानिस्तान में मुझे नौकरी मिल गई है। जाने से पहले मैं मिलता जाऊंगा । दूसरा भाग था, मैंने एक लड़की भी पसंद की है। वह तेरे शहर की है, दिल्ली की । पहले रोहिणी रहती थी, अब द्वारका shift कर गई है । रंग सांवला है, इसलिए मेरे पिता श्री को बहुत पसंद नहीं । उन्होंने कहा है मेरे लिए एक बार उसकी राय ले लो । यह तो हो गई साधकजनों पत्र की बात ।

महिला है या पुरुष । मेरा एक से affair चल रहा है, घरवाले मान नहीं रहे । मेहरबानी करके हमारी सहायता करो । यदि कहूं इंतजार करो माता-पिता को मनाओ, तो यह कहने में उन्हें लज्जा नहीं आती कि हम तो बहुत आगे बढ़ चुके हुए हैं ।‌ इन दोनों बातों से भक्तजनों मुझे यह लगता है की मेरे अंदर साधुता के चिन्ह नहीं है । मैं साधको को साधु दिखाई नहीं देता । इसीलिए उन्हें कोई बात करने में, या लिखने में कोई संकोच नहीं है, लज्जा नहीं है । जहां लज्जा नहीं है, वहां गुरु भाव नहीं हो सकता ।

नारी का तो आभूषण, जिस नारी में लज्जा नहीं, शर्म नहीं, उसे नारी कैसे कहा जाए। जिस साधक में लज्जा नहीं, शर्म नहीं उसे साधक कैसे कहा जाए ?

ऐसी बातें कभी हंसाती भी है, और कभी रुलाती भी है । यह सिर्फ नए साधकों का ही हाल नहीं, पुराने साधकों को भी इससे परहेज नहीं है । प्रोत्साहन देते हैं बढ़-चढ़कर ऐसी बातें करते हैं । मुझे लगता है कि मुझे बाल बढ़ाने चाहिए, ताकि मैं भी साधुओं जैसा लगने लग जाऊं, तो शायद साधकों को कुछ सोच विचार आए इससे क्या बात करनी चाहिए, क्या बात नहीं करनी चाहिए ?

मुझे पूरा यकीन है स्वामी जी महाराज से कभी किसी ने ऐसी बात ना की होगी, ना लिखी होगी । फिर मुझ बेचारे के साथ ऐसे क्यों होता है । कोई मेरे अंदर ही कोई कमी होगी, कोई दोष होगा ।

कल ध्यान के अंतर्गत आप से चर्चा की जा रही थी मन के बारे में । मन विचारों का, संस्कारों का पुंज है । कोई हमारे शरीर में कोई organ, कोई अवयव नहीं है । कल आपसे एक शब्द आपके सामने प्रयोग किया था, मन कलपता है, क्यों कलपता है ? कलपता अर्थात दुखी है, व्यथित है । सारे संसार को दुखी करने वाला, स्वयं दुखी है, शायद इसीलिए हमें दुखी कर रहा है । उसे जो चाहिए वह अभी तक मिल नहीं पाया।

उसे राम चाहिए, उसे भक्ति चाहिए, उसे सेवा चाहिए, और हम दे रहे हैं उसे पुत्र का सुख, बड़ी गाड़ी का सुख, बड़े मकान का सुख, बड़े परिवार का सुख, प्रशंसा यश मान का सुख, बड़ी बड़ी उपलब्धियों का सुख। इससे उसका पेट नहीं भरता । इसलिए वह भटक रहा है । जहां मन होता है वही आप होते हैं । याद रखिएगा इस बात को, यह परम सत्य है ।

कक्षा में बैठा हुआ विद्यार्थी शरीर से तो कक्षा में बैठा हुआ है, कभी अध्यापक, समझदार अध्यापक, जो हर एक को देखते रहते हैं, कभी उससे पूछते हैं -बेटा, अभी मैंने क्या कहा ? तो झट से वह कह देता है sorry sir मैंने सुना नहीं । क्यों ? शरीर से तो मैं था यहां पर, लेकिन मन से मैं कहीं और था। जहां मन होता है, वही आप होते हैं । यह मन विविध प्रकार की कल्पनाएं करता है। यहीं से कल शब्द कलपता मैंने लिया था।

संकल्प विकल्प शास्त्र कहता है ।

मैं अशिक्षित इसे कल्पना कहता हूं । तरह-तरह की कल्पनाएं करता है । प्राय: संसारिक, अधिकांश सांसारिक । क्यों ? हमने जन्म जन्मांतर से इसे इन्हीं कल्पनाओं के लिए अभ्यस्त कर लिया है । मन तो वही रहा, शरीर ही बदले होंगे ना । जिस किसी के शरीर ने भी इसे यही अभ्यास दिया है, इसे यही अभ्यास करवाया है । संसार में किस प्रकार से जाना है, सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों में ही सुख है ।

लेकिन मन कहता है नहीं, जिस सुख कि मुझे प्यास है, जिस सुख कि मुझे भूख है, वह सुख मुझे जन्म जन्मांतर से किसी वस्तु, किसी सांसारिक वस्तु या व्यक्ति से नहीं मिला । इसलिए मेरी भटकना बनी हुई है। वह भटकता है, तो फिर हम भी साथ ही साथ भटकते हैं । क्यों? क्यों जहां मन होगा वहां हम होंगे । इसी को हम भटकना कहते हैं ।

कभी किसी प्रकार की कल्पना, कभी किसी प्रकार की कल्पना । कल्पनाओं को हवाई किले भी कहा जाता है ।‌ योजना बनाता रहता है, अभ्यास इस प्रकार का इसे हो चुका हुआ है ।‌ इस अभ्यास को विपरीत दिशा में करना ही ध्यान का लक्ष्य है, साधक जनों ध्यान का अभ्यास है ।‌ इसको संसार से हटाकर तो परमात्मा की और लगाना ही ध्यान का लक्ष्य है, और ध्यान की उपलब्धि।

इसीलिए संत महात्मा कहते हैं विषयों में आसक्त मन, संसार के प्रति आसक्त मन, बंधन का कारण, और परमेश्वर के प्रति आसक्त, अनुरक्त मन, मोक्ष का साधन ।

एक ही मन है । एक तरफ लग जाता है, तो हमें बंधन मानो जन्म मरण के चक्र में डाल कर रखता है । वहां से हटकर यदि किसी विरले का, किसी भाग्यवान मनुष्य का, साधक का, यदि मन परमात्मा के साथ लग जाता है, तो वही मन उसके मोक्ष का साधन बन जाता है।

एक ताला, एक ही चाबी । उसी से वह ताला बंद हो जाता है, और उसी से ताला खुल जाता है । यह मन है । क्या करना है साधक जनों हमें, यह तो वैसे ही जानकारी की बातें थी । इतना ही जानना पर्याप्त है, इससे अधिक हमें जानकारी की जरूरत नहीं । इन कल्पनाओं की दिशा कैसे बदली जाए ?

जो सांसारिक कल्पनाएं कर सकता है, भौतिक कल्पनाएं कर सकता है, यदि इसे सिधाया जाए, इसे समझाया जाए, इसे डांटा फटकारा जाए, यह सब साधन इसके साथ अपनाने पड़ते हैं, अपनाने पड़ेंगे । अन्यथा यह मन कभी मानने वाला नहीं है । क्यों ?

यह समझता है यह व्यक्ति जो मुझे इस प्रकार से सिधाने जा रहा है, यह विश्वास के योग्य नहीं है । मुझे तो चाहिए ही था परमात्मा । लेकिन यह मुझे जन्म जन्मांतर संसार देता रहा है । अब मैं इसकी बात पर विश्वास नहीं करता ।‌ आप आते हो सत्संग में, लेकिन मन आप पर विश्वासी नहीं है की आप वास्तव में सत्संग में ही बैठे हुए हो, या कहीं और ।

डांटिए, समझाइए, प्यार कीजिए, हंसी मजाक कीजिए, इन साधनों से मन संभलेगा, सधेगा, तब परमात्मा की और लगेगा ।

आज साधक जनों अधिक नहीं एक बात शुरू करते है, कल्पना की दिशा कैसे बदली जाए ।

आज जितना समय ध्यान के लिए बैठेंगे, यह कोशिश कीजिएगा, यह कल्पना कीजिएगा;

मैं बैठा नहीं, मैं चल रहा हूं । परमेश्वर मेरे साथ साथ चल रहा है । आप कह रहे हैं – परमात्मा मैं बहुत नन्हा हूं, भटका हुआ हूं, जन्म जन्मांतर भटकता रहा हूं । मेरी बांह कसकर पकड़ लो, ऐसे पकड़ लो कि यह कभी छूटे ना । मैं नालायक हूं, मैं इसे छुड़ाने की कोशिश करूंगा, लेकिन आप परमात्मा पक्के रहिएगा । आप मेरी बांह को जोर से पकड़ कर रखिएगा, कसकर पकड़ कर रखिएगा, कि मैं किसी भी हालत में इसे छुड़वा ना सकूं ।

आज इतनी ही कल्पना कीजिए;

राम जी आपके अंग संग चल रहे हैं, कहीं जा रहे हैं आप । यात्रा के लिए निकले हुए

हैं । राम जी आपके साथ साथ जा रहे हैं। आपने उन्हें अपनी बांह पकड़वा दी है, और आप यह वार्तालाप, यह प्रार्थना, परमात्मा से कर रहे हैं।

राममममम……

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