कर्मयोग पर चर्चा – 1

परम पूज्य श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((047))

कर्मयोग पर चर्चा
भाग-१

गीताचार्य भगवान् श्री कृष्ण कर्मयोग नामक तीसरे अध्याय की व्याख्या कर रहे हैं । आज उन्होंने कर्मयोग की कुंजी समझाई है । विभिन्न पक्ष कर्मयोग के समझा रहे हैं ।

क्रिया ही कर्म है, हर क्रिया कर्म नहीं है ।
हर कर्म तो क्रिया है, लेकिन हर क्रिया कर्म नहीं है । संत महात्मा यहां पर थोड़ा समझाते हैं; जैसे-
व्यक्ति नन्हा बच्चा है, शिशु है, बड़ा होता है । इसमें क्रिया तो है, पर कर्म कोई नहीं । बचपन से जवानी में प्रवेश करता है, क्रिया तो हो रही है, लेकिन कर्म नहीं है ।
बुढ़ापा आता है, क्रिया तो हो रही है, कर्म कोई नहीं ।
हृदय धड़कता है, क्रिया तो हो रही है लेकिन कर्म नहीं ।
भोजन पच रहा है, उसका विसर्जन हो रहा है मल के रूप में, क्रिया तो है, कर्म नहीं है । क्रिया कर्म कब बनती है, जब उसमें कर्तापन आ जाता है ।

बाल अवस्था से जवानी में प्रवेश करने में कर्तापन का कोई स्थान नहीं है । क्रिया हो रही है, कर्म नहीं । कर्म उसे ही कहा जाता है जहां क्रिया के साथ कर्तापन जुड़ जाता है, कर्तृत्व जुड़ जाता है, doership जिसमें जुड़ जाती है । उसे कर्म कहा जाता है । यही कर्म बंधन का कारण बन जाता है । इसे निर्बंध करना ही कर्मयोग है ।
जहां कर्तापन होगा,
जहां कर्म के साथ यह होगा मैंने यह कर दिया, मैं यह करवा रहा हूं इत्यादि इत्यादि।
जहां आपने देवियो सज्जनो ! अपने कर्तापन की stamp लगा दी, आपके मुख से निकल गया “मैं”, बसससस वही कर्म बंधन का कारण बन जाएगा । यही कर्म यदि दूसरों के लिए किया जाता है, अपने लिए ना करके, अपने लिए करना तो स्वार्थ है अतएव बंधन का कारण, दूसरों के लिए कर्म करना नि:स्वार्थ हो जाता है अतएव मोक्ष का
साधन । इसी को कर्म योग कहा जाता है। अपने लिए कर्म ना करके दूसरों के लिए कर्म करना, अपने लिए सुख ना चाहकर दूसरों के लिए सुख की कामना करना, अपना उपकार ना चाह कर, दूसरों के लिए उपकार चाहना, अपना हित ना चाहकर, दूसरों का हित चाहना, यह सब कर्मयोग के अंतर्गत है ।

आज यज्ञ के अंतर्गत विभिन्न पक्ष गीताचार्य भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं । यज्ञ की बड़ी सुंदर परिभाषा भगवान् श्री ने समझाई है । स्वामी जी महाराज ने स्पष्ट की है ।
यह संसार कहते हैं आदान, प्रदान, बलिदान, लेन देन पर ही चल रहा है । एक व्यक्ति देता है, दूसरा लेता है इत्यादि इत्यादि । इसी से संसार चल रहा है । जहां परस्पर सहयोग की भावना नहीं रहती, वहां व्यक्ति, व्यक्ति ना रहकर तो मानव, मानव ना रहकर दानव रहता है ।

आज एक बहुत बड़े सेठ हैं । वह अक्सर विद्वानों को, मानवों को, देवताओं को निमंत्रण देता है, भोजन करवाता है । जहां मानव साधक जनो ! भोजन के लिए बुलाए जाते हैं, सेवा भाव से जहां भोजन करवाया जाता है, देवताओं को ना भी बुलाया जाए तो भी वह वहां पधारते हैं । सो यूं समझिए कि मानव और देवता तो हमेशा भोजन के लिए आते ही हैं, बुलाए ही जाते हैं लेकिन दानव को कभी नहीं बुलाया जाता ।

आज इस सेठ ने जो बहुत परोपकारी माना जाता है, कर्मयोगी कहिए कर्मयोगी माना जाता है, इसने आज मानव, दानव एवं देव तीनों को बुलाया है । आप मेरे घर भोजन के लिए पधारिए । भव्य आयोजन किया हुआ है । खूब प्रबंध किया हुआ है । राक्षसों ने कहा आप लोग सांसारी कैसे हो ? हम में किस चीज़ की कमी है ? हमारे अंदर किसी प्रकार की कोई कमी नहीं । बलवान हैंं हम। शायद मानवों से भी ज़्यादा और देवताओं से भी ज़्यादा । कई बार हमने देवताओं को हराया । ज्ञान की भी हमारे पास कमी नहीं। जब हम प्रजापति के पास गए थे, तो हम तीनों इकट्ठे गए थे, मानव, दानव एवं देव और प्रजापति ने हम तीनों को अपनी अपनी योग्यता के अनुसार, पात्रता के अनुसार उपदेश दिया था । मानो हम एक ही पिता की संतान हैं । फिर आप लोग हमारे साथ भेदभाव क्यों करते हो ? यह अन्याय है, आप लोगों का । संसारियो ! यह अच्छी बात नहीं
है । आप मानव को बुलाते हो, देवों को बुलाते हो लेकिन राक्षसों को कभी आमंत्रित नहीं किया । आज आपकी मेहरबानी है, आपने हमें बुलाया है और हम आ गए हैं ।
पर हम इतनी बात कह देते हैं यदि आप जी का अन्याय, अत्याचार हमारे ऊपर इसी प्रकार से बना रहा, तो हम भड़केंगे ।

लाला ने कहा इस वक्त कृपया क्रुद्ध ना हूजिएगा । भोजन तैयार है । आज सबसे पहले आप भोजन कीजिएगा ताकि आपकी यह शिकायत दूर हो । अव्वल तो हमें बुलाया ही नहीं जाता, यदि हमें बुलाया जाता है तो हमें पहले भोजन कभी नहीं करवाया जाता। हमारी बारी कहीं अंत में जाकर आती है । आप पहले देवताओं को खिलाते हो फिर मानवों को खिलाते हो और फिर यदि बचता है तो फिर हमारी बारी आती है । लाला ने कहा आपकी इस शिकायत को दूर करने के लिए आज आप पहले भोजन के लिए बैठिएगा । एक शर्त है, पंक्तियों में बैठ जाइएगा आमने सामने । आप जितने भी सौ पचास आए हुए हैं, सब बैठ जाइएगा‌ । पर मैं एक शर्त से भोजन आपको खिलाऊंगा और वह भी पहले आपको । आपके दोनों हाथों पर तीन तीन फुट लंबी लकड़ी की एक फट्टी मैं बांध दूंगा । मंज़ूर है, बांध दीजिएगा । दोनों हाथों पर देखो मेरी तरफ इन दोनों बाजुओं पर तीन फुट लंबी फट्टी लाला ने बंधवा दी है ।

भोजन की थालियां उनके आगे परोसी गई हैं। लाला स्वयं परोस रहा है ताकि इनकी हर शिकायत जो है वह दूर हो । खूब तरह-तरह के भोजन बनाए हुए हैं, तरह-तरह की सब्जियां इत्यादि सब कुछ थाली भर भरकर, मीठा भी है खाने को, सब कुछ आगे रख दिया है । राक्षस लोग अपने हाथ से उठा तो सकते हैं लेकिन अपने मुख में नहीं डाल सकते, फट्टी बंधी हुई है ।

लाला की चाल देखिए, किस तरह से एक कर्म योगी, किस तरह से एक संत, दूसरों को समझाता है । दोनों हाथों पर फट्टी बंधी हुई है । कोहनी यहां से झुक नहीं सकती, मुड़ नहीं सकती, तो अपने मुख में वह राक्षस कुछ डाल नहीं सकते । सभी के सभी राक्षस भूखे हैं । और जब भूखे होते हैं तो द्वेष की भावना, निराशा की भावना इत्यादि इत्यादि पैदा होती है । आपस में उन्होंने लड़ाई झगड़ा शुरू कर दिया । एक दूसरे के सामने सब बैठे हैं । सभी के सभी राक्षस भूखे ।

देवताओं की बारी, देवताओं के साथ भी ऐसा ही किया है । उनकी भी दोनों बाजुओं पर तीन-तीन फुट लंबी फट्टी बांध दी है ताकि उनका भी इस तरह से हाथ मुड़ ना सके । लेकिन मानव कहिए, दानव कहिए, देवता कहिए, आखिर देवियो सज्जनो ! कुछ ना कुछ भिन्नता तो है । नहीं तो परमात्मा सब को मानव नाम दे देता । कुछ को देवता नाम दिया है, कुछ को मानव नाम दिया है, कुछ को दानव नाम दिया है, कुछ कारण तो होगा । मेरे राम के विभाजन में कोई ग़लती तो नहीं हो सकती, कोई अन्याय तो नहीं हो सकता ।

देवता बैठे हैं एक दूसरे के सामने । ऐसे ही पंक्तियों में बिठाया है । इन्होंने देखा कि हम अपने मुख में नहीं डाल सकते, किसी दूसरे के मुख में तो डाल सकते हैं । सामने वाला जो बैठा हुआ है उसके मुख में तो डाल सकते हैं, बस इधर वाले उनके मुख में डालते हैं, उधर वाले इनके मुख में डालते हैं और सारे के सारे देवता पेट भर कर स्वादु भोजन खाया है । जो दूसरे को पालना जानता है, वह कभी भूखा नहीं रह सकता । याद रखना इन बातों को जो अपने पेट को पालने के साथ-साथ दूसरे का पेट पालना भी जानता है, वह व्यक्ति कभी भूखा नहीं रह सकता । देवता देखो, यह जानते हैं किसी दूसरे के मुख में कैसे डाला जाता है। आज यही किया है ना । अपने मुख में तो किसी ने नहीं डाला, यह दूसरे के मुख में डालते हैं, दूसरा इनके मुख में डालता है। दोनों का पेट भरा हुआ है । जो मानव दूसरों के मुख में डालना नहीं जानता, उसे ही दानव कहा जाता है । वह दानव बन जाता
है । जो सहयोग करना नहीं जानता, जो सहयोग देना नहीं जानता, वह दानव है, जैसे अभी आपने देखा । आपस में ही लड़ झगड़ कर तो वह भूखे हैं । उनका पेट भी भरा नहीं है और भूखे भी हैं। और फिर लड़ाई झगड़ा भी आपस में कर रहे हैं ।

आज भगवान् श्री यही बात समझा रहे हैं। मेरी सृष्टि का दमदार आधार आदान प्रदान है, लेना देना, परस्पर लेना देना । इसी पर सृष्टि सारी जो है, वह चल रही है । बहुत से स्थानों पर साधक जनो ! अभी भी यह परंपरा है, लोप होती जा रही है । जब 1988 में मैं मनाली गया था, उस वक्त तक यह प्रथा वहां जीवित थी । अब तो वह भी अमीरी की चपेट में आ गए हुए हैं, अतएव यह प्रथा वहां भी खत्म होती जा रही है, नहीं है ।

क्या करते थे ? सबके अपने अपने खेत हैं और सब स्वयं ही किसानी करते हैं । कोई नौकर चाकर नहीं । महिलाएं भी खेती का कामकाज करती हैं और किसी के पास राजमां की फसल ज़्यादा हो जाती है, किसी के पास कोई सब्जी ज्यादा हो जाती है, किसी के पास पशु ज़्यादा हैं तो उनके पास दही ज़्यादा होता है, घी ज़्यादा होता है तो जितना ज़्यादा होता है, उतना वह औरों को बांट देते हैं । जिन को बांटा जाता है, जो उनके पास ज़्यादा होता है, वह उसके बदले में उसको वस्तु दे दी जाती है । इस प्रकार से गांव के सिलसिले ही नहीं, परमात्मा की सारी की सारी सृष्टि जो है, वह इसी प्रकार से चलती है । हम जानें ना जानें यह दूसरी बात है लेकिन भगवान् श्री ने आज इस बात को स्पष्ट किया है, गीता जी में ।

तो समय हो गया है साधक जनो ! अभी यहीं समाप्त करने की इज़ाज़त दीजिएगा । हम सब कर्म योगी हैं, इसे याद रखिएगा ।
स्वामी जी महाराज ने हम सब के लिए All शब्द प्रयोग किया है “हम सब” भक्तिमय कर्म योगी हैं । भक्तिमय कर्मयोगी । इस शब्द को बहुत याद रखिएगा और फिर इसे अपने जीवन में बसाइयेगा तो आप भी गीता जी के आदर्श पुरुष बन सकते हैं । शुभकामनाएं मंगलकामनाएं । धन्यवाद ।

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