कर्मयोग – 4

परम पूज्य डॉ विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से।
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कर्मयोग
भाग-४

कर्मयोग की चर्चा चल रही है । भगवान् श्री कृष्ण तो चौथे अध्याय की आज समाप्ति करते हैं, पर हम तो कर्मयोग की चर्चा जो कुछ दिनों से चल रही थी, उसी को आगे जारी रखते हैं । संभवतया कल भी वही चर्चा जारी रहेगी ‌। भगवान् ने चौथे अध्याय में भी कर्मयोग को छोड़ा नहीं है अभी । कर्म को पकड़े हुए हैं तो हम कैसे कर्म को छोड़ दें। कर्मयोग के अंतर्गत देवियो सज्जनो ! आप जी ने कल, परसों देखा था किस प्रकार भाव के परिवर्तन से कर्म बंधन का कारण ना रहकर तो मुक्ति का साधन बन जाता है‌ । मात्र भाव के परिवर्तन से ‌।

कुछ एक दृष्टांतों के माध्यम से आप जी ने देखा था कि कोई कर्म से बच तो नहीं सकता । हर एक को कर्म करना ही पड़ता है, करना ही चाहिए । भगवान् श्री इस क्रिया को, इस कर्म को, कर्मयोग बनाने की युक्ति पार्थ को समझा रहे हैं । संसार में काम करो, पारिवारिक कर्त्तव्य निभाओ, सामाजिक कर्त्तव्य निभाओ, सारे के सारे कर्त्तव्य निभाओ लेकिन भीतर से परमात्मा के साथ जुड़े रहो । जैसे घर में काम करने वाली आया, घर में काम करने वाला नौकर, काम तो यही कर रहा है । आपको लगता है देखो मेरे बच्चे से, इसका बच्चा ना होने के बावजूद भी मेरे बच्चे से कितना प्यार है लेकिन नहीं, वह तो मात्र आया कर्त्तव्य निभा रही है । इस बच्चे के माध्यम से अपने बच्चे को याद कर रही है । उसकी याद उसकी तार अपने बच्चे से जुड़ी हुई है।
भगवान् श्री समझाते हैं, जिस प्रकार वह आया या घर की नौकरानी यहां काम करती हुई अपनी तार को अपने परिवार के साथ जोड़ी है यदि इसी प्रकार से एक साधक एक कर्मयोगी संसार में रहता हुआ कर्म करता हुआ परमात्मा के साथ अपनी तार को जोड़ कर रखता है तो वह कर्मयोगी ही जानने योग्य है ।

एक डॉक्टरानी यदि डॉक्टर किसी नर्सिंग होम में काम करती है या हॉस्पिटल में काम करती है । दस साल के बाद आज किसी के घर पुत्र पैदा हुआ है । सूचना देती है डिलीवरी के बाद, बाहर माता-पिता इंतज़ार कर रहे हैं । परिवार के सब इंतज़ार कर रहे हैं । आकर सूचना देती है बहुत-बहुत बधाई, पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है । सूचना जाती है घर तक सूचना जाती है । बाजे बजते हैं, लड्डू बंटने शुरू हो जाते हैं । मिठाई बंटनी शुरू हो जाती है । अभी अस्पताल से छुट्टी नहीं हुई । अस्पताल में रखा हुआ है । बच्चे की देखभाल हो रही है । बच्चे की मां की देखभाल हो रही है ।
दो दिन के बाद, तीन दिन के बाद, वह पुत्र मर जाता है । डॉक्टरानी बाहर आकर क्या कहती है, मात्र इतना ही ना, क्षमा करना बहुत कोशिश के बावजूद भी आपके बच्चे को बचा नहीं सके । एक सफेद से कपड़े में लपेट देती है और कहती है मेहरबानी करके अपने बच्चे को अब ले जाइएगा । किसी अगले patient ने आना है । अपना कर्त्तव्य निभा रही है । उसे आपसे कोई आसक्ति नहीं है, आप से कोई लगाव नहीं है उसे । लगाव तो उसका घर बैठा हुआ है ।

यदि वह लेडी डॉक्टर घर में भी वैसा ही कर्म करती है जैसा यहां कर रही है, तो वह कर्मयोगिनी ही कहलाने योग्य है । लेकिन हम अक्सर घरों में जाकर तो फेल हो जाते
हैं । मेरा घर, मेरा सब कुछ, यह मेरा मेरा मेरा मैं मैं मैं मैं वहां घर जाकर शुरू हो जाता है । यहां तो आप बैंक की नौकरी करते हैं या अस्पताल की नौकरी करते हैं और घरों में जाकर ऐसा जो है वह नहीं हो पाता ।

परमात्मा के लिए कर्म, चर्चा चली थी, यहां समाप्त हुई थी कि परमात्मा के लिए कर्म यदि व्यक्ति करना शुरू कर देता है या करता है तो वह कर्म, कर्मयोग बन जाते हैं वह क्या है ?

परमात्मा के लिए कर्म करना, क्या कर्म है ? एकनाथ जी महाराज, एक संत, आज किसी नाई की दुकान पर गए हैं । छोटी-छोटी बातों से हर कोई सीखता है । जिसने अपने सीखने के द्वार ही बंद कर दिए हैं, वह साधक तो नहीं हो सकता । साधक अपने सारे के सारे सीखने के द्वार खुले रखता है। जहां से भी उसे कुछ सीखने को मिलता है, वह सीखता है । वह कहता है यह संसार बहुत बड़ा विश्वविद्यालय है । यहां व्यक्ति, हर दूसरे बंदे से सीखता है । हर कोई सिखाने वाला है । बस सिर्फ आपके सीखने के द्वार खुले होने चाहिएं । कोई परिस्थिति, कोई घटना, हर कोई कुछ सिखा कर ही परमात्मा वह आपके सामने प्रस्तुत करता है । अरे ! सीखो अपनी बुद्धि को ठीक करो । यह सिखाने के लिए ही मैं यह चीज़ प्रस्तुत कर रहा हूं । आप रोते हैं, धोते हैं, वह परमात्मा को दुःख देता है । कैसे व्यक्ति हैं ? मैंने यह घटना प्रस्तुत करी है कि इससे इसे कुछ सीखने को, इसकी मति ठीक होगी। आगे से ऐसी ग़लती नहीं करनी है, यह कुछ नहीं करना है, ऐसा कुछ करना चाहिए, यह सीखने के लिए घटना प्रस्तुत करी है ।

एकनाथ जी महाराज नाई की दुकान पर गए हैं । जाकर कहते हैं, भाई ! परमात्मा के लिए मेरी cutting कर दो । बहुत से लोग बैठे हुए थे । नाई ने सब को हाथ जोड़कर कहा, ग्राहक और भी बैठे हुए थे कटिंग करवाने वाले, कोई शेव करवाने वाले बैठे हुए थे वहां पर । उनको कहा माफ करना भाईयो ! पहले परमात्मा का काम बाद में आपकी बारी । इनको out of turn. मैं पहले cutting इनकी करूंगा । आपको इंतज़ार करना हो करो, कल आना हो कल आ जाना, थोड़ी देर के बाद आना हो, आ जाना। पर पहले मैं इन स्वामी जी की, इस भक्त की, इस संत की cutting करूंगा । लोगों ने कहा ठीक है । सब जानते थे एकनाथ जी महाराज को । महात्मा की कटिंग हुई । कटिंग के बाद एक छोटी सी थैली महात्मा ने निकाली और उसमें से कुछ पैसे नाई को देने के लिए निकाले, तो नाई ने महात्मा का हाथ पकड़ लिया । यह क्या है महाराज ?
आपने तो कहा था परमात्मा के लिए मेरी कटिंग करना । मैंने यह परमात्मा के लिए कटिंग करी है, पैसे के लिए नहीं । एकनाथ जी कहते हैं- कर्मयोग मैंने सीखा है तो इस नाई से सीखा है । सारी ज़िंदगी भर अपने जीवन में जो घटित हुआ यह दृष्टांत अपने प्रवचनों में सुनाते रहे । हम कर्म करते हैं उसके पीछे आश्रय देखिएगा । हमें धन्यवाद चाहिए, गले में फूल माला चाहिए, धन चाहिए, यश मान चाहिए, पद प्रतिष्ठा चाहिए, हमें यह चाहिए कि हमारी जो आज्ञा है, हमारा जो कहना है, उसका अक्षरश: पालन होना चाहिए । कितनी सारी अपेक्षाएं रखकर तो हम कर्म करते हैं । एकनाथ जी कहते हैं यह परमात्मा के लिए कर्म तो नहीं है ।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन बहुत बड़े वैज्ञानिक हैं । आज किसी दूसरे राज्य में उन्हें किसी discourse के लिए बुलाया गया है। बड़े-बड़े विद्वान इकट्ठे हुए हैं, राजनेता इकट्ठे हैं, अन्य वैज्ञानिक, junior senior बहुत इकट्ठे हैं, उनकी discourse को सुनने के लिए । प्रस्तुत किया है। करने के बाद शाम को free हो गए तो घूमने के लिए निकले । यह उन्हीं के शब्द हैं, मुझे ज़िंदगी में जहां भी अवसर मिला, जहां से भी, जिस व्यक्ति से, जिस घटना से, जिस स्थिति से कुछ मुझे सीखने को मिला, मैं पीछे नहीं हटा । इसलिए मैं संसार को महा विश्वविद्यालय कह रहा हूं। जो संसार में रहकर नहीं सीख सका, मानो उसने अपने सीखने के सारे के सारे gates बंद कर रखे हुए हैं, वह कहीं से सीख नहीं पाएगा ।

यह परमेश्वर ने इतना महान् विश्वविद्यालय हमारे लिए बनाया हुआ है, सीखने के लिए । जो यहां रहकर नहीं सीख सका, वह कहीं से भी नहीं सीख सकेगा । उसे कोई गुरु नहीं सिखा सकेगा । उसे ब्रह्मा तक भी नहीं सिखा सकेंगे । कोई भी नहीं सिखा सकेगा उसे । यह संसार चलता फिरता हर जगह विस्तृत विश्वविद्यालय है, जहां हर व्यक्ति, हर घटना, आप को सिखाने के लिए तत्पर है, तैयार है ।

एक कुम्हार देखा बहुत सुंदर-सुंदर चीजें बना रहा है । महान वैज्ञानिक आइंस्टीन वहां खड़े हों गए । उसकी रचनाएं देख रहे हैं ।
उन रचनाओं को देख देखकर, कहीं मटका बना रहे है, कहीं मटकी बना रहे है, कहीं सुराही बना रहे हैं, कहीं खिलौना बना रहे हैं, कहीं कुछ बना रहे है तो बना बनाकर, धागे से काट काट कर तो उसे पास रखते जा रहे हैं सुखाने के लिए । वैज्ञानिक को परमात्मा की याद आ रही है। उस रचयिता की याद आ रही है । लगता है उस रचयिता ने हमारी रचना भी इसी प्रकार से की होगी ।
वाह वैज्ञानिक ! कुम्हार की रचनाएं देख देख कर तो वैज्ञानिक को परमात्मा की याद उस महान् रचयिता की याद आ रही है। हम खिलौनों की रचना भी परमात्मा ने इसी प्रकार से की होगी । बहुत प्रसन्न । भीतर ही भीतर उस कुम्हार की प्रशंसा कर रहे हैं । भाई ! कितना कौशल है तेरे पास । कितने निपुण हो तुम अपने काम में । रहा ना गया। कहा, भैया ! परमात्मा के लिए यह जो पात्र आप बना रहे हो यह पात्र मुझे भी दोगे । ज़रूर, परमात्मा का नाम सुनकर तो कुम्हार गद्गद् हुआ है । परमात्मा के लिए, इसलिए अपनी best चीज़ बनाई हुई चुनी, सुंदर ढंग से उसे pack किया, pack करके तो इनको प्रस्तुत की ।
लीजिए महाराज ! मेरी ओर से तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिएगा । कहते हैं एकनाथ जी की तरह आइंस्टीन ने भी अपनी जेब से पर्स निकाला पैसे देने के लिए । कुम्हार ने भी हाथ पकड़ लिया । साहब ग़रीब ज़रूर हूं लेकिन इतना भी ग़रीब नहीं कि मैं अपने परमात्मा को कुछ नहीं दे सकता ।‌ आपने कहा था परमात्मा के लिए मुझे एक पात्र दे दो । मैंने पैसे के लिए नहीं दिया । मैंने आपको नहीं दिया, आपके लिए नहीं दिया । आपने कहा था परमात्मा के लिए मुझे एक पात्र दे दो । मैंने अति सुंदर पात्र आपकी सेवा में भेट किया है, पैसे के लिए नहीं, आपके लिऐ नहीं, परमात्मा के लिए। परमात्मा के लिए कर्म । जहां और कुछ नहीं चाहिए देवियो सज्जनो ! वह कर्म परमात्मा का कर्म है, वह कर्म, परमात्मा के लिए
कर्म है ।

चौथे अध्याय में भगवान् श्री समझाते हैं कर्म की गति बड़ी निराली है । बुद्धिजीवी प्राय: इसकी उधेड़बुन में फंसे रहते हैं । बुद्धिजीवी जो हुए, intellectuals जो हुए, उन्हें अपनी बुद्धि को दो, तीन multiple बनाना आता है । उनकी बुद्धि अपनों के लिए और है, दूसरों के लिए और है । उनका रूप अपने पुत्र अपनी पुत्रियों के लिए और है अपने सास ससुर के लिए बिल्कुल भिन्न है । दुकान पर बैठते हैं तो ग्राहकों के लिए और है office में जाते हैं तो office में काम करने वाली महिलाओं से व्यवहार और है। उनकी पिक्चर वहां बदल जाती है, आकार वहां बदल जाता है । घर में पत्नी के सामने बिल्कुल और तरह का आकार है multiple personalities, intellectuals को बनानी आती है । इसीलिए अशांत, इसीलिए कलह, इसलिए घर घर के झगड़े । भीतर भी इसी के लिए महाभारत का युद्ध होता रहता है । सत् और असत् विचारों का युद्ध, धर्म और अधर्म का युद्ध भीतर ही भीतर चलता रहता है । फिर भीतर ही भीतर चलता रहता है तो बाहर भी यही हालत । पुत्र पुत्री तो आपको दिखाई देते हैं, इनके प्रति जो मेरा कर्त्तव्य है वह मुझे निभाना चाहिए । सास ससुर के प्रति जो कर्त्तव्य है, वह आपको बोझ महसूस होता है । तो देवियो सज्जनो ! यह हमारी personality का दोष है । यह हमारी बुद्धि का दोष है । यह कर्मयोग नहीं । कल जारी रखेंगे इस चर्चा को आज यही समाप्त करने की इज़ाज़त दीजिएगा । धन्यवाद ।

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