Monthly Archives: November 2020

भक्ति- अविनाशी सुख 1k

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

( SRS दिल्ली website pvrA003)

भक्ति- अविनाशी सुख 1k

40:47 -,44:14

श्रीमद्भागवत में जड़ भरत का नाम आपने सुन रखा है। स्वामीजी महाराज ने जड़ भरत पर कथा लिखी । पढ़ लीजिएगा । आप जानते ही हैं राजा रघुकुल पाल्की लिए जा रहा है उनको एक व्यक्ति पाल्की उठाने के लिए चाहिए । जड़ भरत हट्टा कट्टा है मोटा ताज़ा है। उसको पकड़ कर पालिका उठाने के लिए रख लेंगे। जड़ भरत की साधना अद्वीतीय । जड़ हो गया हुआ है वह । उसे करने में कोई कठिनाई भी नहीं। कठिनाई तो हमें जो अभी तक जड़ नहीं हुए । भरत जड़ हो गया हुआ है। रघुकुल को उपदेश देता है।

राजन् भक्ति या ईश्वरीय प्रेम किसी तपस्या का फल नहीं है। जड़ भरत के शब्द सुनिए माताओं । यह किसी तपस्या का फल नहीं है। भगवत् प्रेम किसी यज्ञ द्वारा मिला नहीं करता । भगवद प्रेम घर एवं परिवार छोड़ने पर भी नहीं मिला करता । भगवद् प्रेम सूर्य आदि की उपासनाओं से भी नहीं मिला करता । राजन् ! किसी संत महात्मा की किसी भक्त की चरण धुलि में लोट पोट हुए बिना यह भगवद् प्रेम नहीं मिला करता । कोई संत महात्मा कोई भक्त भगवान का जो अति प्रिय है, उसकी चरण धूलि मिल जाए , जिसमें व्यक्ति लोट पोट हो जाए , मानो उसकी चरण शरण जो ग्रहण कर लेता है, वह उसे स्वीकार कर लेता है, तो उसे वह निहाल होके भक्ति दे देते हैं। इसके बिना भक्ति नहीं मिलती। इस मुख्य बात को याद रखें ।

एक बात इसके साथ ही मिलती जुलती और है, यह तो बात स्पष्ट हुई शास्त्र कहते हैं। भगवान अपने श्रीमुख से नहीं कहते हैं। मेरे से प्रेम क्या माँगते हो। मैं तो स्वयं प्रेम का भूख हूँ मेरे से प्रेम क्या माँगते हो ।उनके पास जाओ जो प्रेम के धनि हैं, मेरे प्रेमी हैं। उनसे जाके माँगो , उनसे भक्ति मिलेगी । मुझे लगता है भगवान थोड़ी संतों महात्माओं की बढ़ाई कर रहे हैं, यह उनका बड़प्पन है। संत महात्मा भी भक्ति कहाँ से देगा? संत महात्मा भी प्रेम कहाँ से देगा ? एक ही तो स्रोत है न भक्ति अथवा प्रेम का । और वे हैं भगवान स्वयं। उसी से लेकर तो देगा।

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भक्ति- अविनाशी सुख 1i

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

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भक्ति- अविनाशी सुख 1i

37:12 – 40:47

शरण में जाएँ तो जाएँ कैसे ? आइए इसपर थोड़ी चर्चा कर लेते हैं। पिछली सप्ताह इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे न कि अविनाशी सत्य की प्राप्ति करनी है तो हमारी साधना के अनुसार व अन्य साधनाओं में भी भक्ति एक मात्र साधन कहा जाता है जो हमें उस अविनाशी पद की प्राप्ति करा देते हैं। उस परमानन्द की प्राप्ति करा देते हैं। अन्य साधन मोक्ष को प्राप्त करवा देते हैं लेकिन परमानन्द की प्राप्ति बिना भक्ति के नहीं होती । यह ज्ञानी स्वीकारता है कर्मयोगी भी मानता है भक्त भी मानता है एवम् शरणागत भी मानता है।

यह भक्ति कैसे प्राप्त हो ? जब भक्ति ही एक मात्र साधन है परमानन्द की प्राप्ति का उस परम शान्ति की प्राप्ति का तो उसे कैसे प्राप्त किया जाए ?

देवऋषि नारद जो भक्ति के आचार्य हैं। ब्रह्मा जी के बाद उनका दूसरा नं० आता है। नारद भक्ति सूत्र में वे वर्णन करते हैं, कुछ एक साधन सभी साधनों का उल्लेख आपकी सेवा में न करके अन्त में इस संदर्भ में वे अपना निष्कर्ष निकालते हैं, एक ही प्रमुख साधन है इस भगवद भक्ति की प्राप्ति का। मत सोचिएगा कि यह अल्प बुद्धि कुछ अपने मन से बोल रहा है, कुछ नहीं बोल सकता। नारद भक्ति सूत्र पढ़िएगा सब चीज़ आपको वहाँ लिखी मिलेगी ।

क्या साधन है ? भक्ति ही भक्ति का साधन है।एक चिंगारी से सब फैलते देर नहीं लगती । यह चिंगारी भी कैसे लगे? चिंगारी के लिएं या तो दूसरी चिंगारी होनी चाहिए कम दिया सलाई से लगा सके, तो ही को लगे गी । इसलिएं अन्य साधनों को छोड़ कर शास्त्र की भाषा प्रस्तुत की जा रही है। वे कहते हैं किसी सत्पुरुष का संग मिल जाए किसी सत्पुरुष कि कृपा हो जाए तो भक्ति मिला करती है। उसकी कृपा के बिना भक्ति नहीं मिला करती ।

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भक्ति- अविनाशी सुख 1h

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

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भक्ति- अविनाशी सुख 1h

33:44 – 37:12

देवताओं ने जब भगवान शिव से पूछा कि भगवान प्रकट कैसे होते हैं तो भगवान शिव बोले कि भगवान तो प्रेम से प्रकट होते हैं। प्रकट किया करना है ? भीतर ही तो वे होते हैं। भीतर ही वे विराजमान हैं। विश्वास पूर्वक श्रद्धा पूर्वक प्रेमपूर्वक उन्हें याद तो करके देखिएगा । नियम तो हम निभा रहे हैं लेकिन उससे प्रेम तो नहीं उपजा । प्रेम बढ़ ही नहीं रहा, प्रेम पैदा ही नहीं हो रहा , तो वह प्रकट कैसे होगा ?

जानते हो इतनी सी दूरी , आँखें यहाँ हैं बुद्धि यहाँ है, वह यहाँ बैठा है, स्वामीजी महाराज कहते हैं वह बहुत पास ललाट में बैठा है दूर नहीं बैठा है। दूरी भी हम सह नहीं कर पाते तो इस दूरी का कारण बताऊँ इस सेवा में वह यह हमें स्वामीजी महाराज गुरूजनों की बात पर विश्वास ही नहीं है । हमें परमात्मा में विश्वास नहीं है । जिससे हमारी दूरी तह नहीं हो रही बल्कि बढ़ रही है। न गुरू में विश्वास न परमात्मा में विश्वास । न मंत्र में विश्वास । इसलिए यह थोड़ी सी दूरी न तह होती है न ख़त्म होती है। बल्कि यूँ कहिएगा कि यह दूरी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

एक साधन भक्तजनों दुर्बुद्धि व्यक्ति से याद रखिएगा अनजान अबोध बालक की बात याद रखिएगा । विश्वास पूर्वक श्रद्धा पूर्वक परमेश्वर के श्रीचरणों से प्रेम कर डालिएगा । मैं अपना मन तुम संग जोड़ा, तुम संग जोड़ सभी संग तोड़ा ।

ज़रा आ शरण मेरे राम की, मेरा राम करुणा निधान है । कैसे जाएँ उसकी शरण में ? पत्थर तो तर गए । हमसे बेहतर हैं इसलिए । जड़ हैं । हमारी है को बड़ी ख़ुशक़िस्मती की बात पर हम इसे दुर्भाग्य में परिवर्तित कर लेते हैं । परमेश्वर ने हमें बुद्धिजीवी तो बनाया है, लेकिन हम इस बुद्धि का दुरुपयोग करते हैं।इसी बुद्धि में है वह अहम् बसा हुआ जो परमेश्वर की शरण में नहीं जाने देता । पत्थर का अहम् मर गया हुआ है वह जड़ है उसमें अहम् नहीं है इसलिए उसे करने में कोई कठिनाई नहीं है। अहल्या कर गई । क्योंकि उसने अपने आपको जड़ बना लिया था । हमें अपने आपको जड बनाना आता नहीं इसलिए हम तरें तो करें कैसे ?

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भक्ति- अविनाशी सुख 1g

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

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भक्ति- अविनाशी सुख 1g

30:35 – 33:44

मुझसे कुछ माँगना है तो विलक्षण चीज़ माँग । देख सर्प है मेरे गले में , सर्प काल का प्रतीक है। सर्प दुख का प्रतीक है । भक्त, तूने इतनी देर भक्ति की है, तेरे मन में यह बात आनी चाहिए कि कौन सा अमृत है इस महात्मा के पास, क्या है भगवान के पास जिसके कारण इसने काल को अपने सीने से लगा रखा है । अरे ! वह अमृत मुझसे क्यों नहीं माँगता । वह भक्ति रूपी अमृत मुझसे क्यों नहीं माँगता ? मुझे देखकर तेरे मन में अमृत माँगने की चाह नहीं उठती ? अरे ! मेरे सामने आए हुए भी यदि कपड़ा धन दौलत मकान कारें ही माँगनी है ! यह तो बाज़ार दुकानों में भी मिल जाती हैं, संसार में भी मिल जाती हैं। मेरे से वह चीज़ मांग जो मेरे सिवाय और कोई नहीं दे सकता ।

भक्ति माँग मेरे से ! मेरे से मुझको ही माँग मेरे भक्त । यह मेरे सिवाय कोई नहीं दे सकता । जोहरी के पास भी जाके कोयला कोई माँगें ? होता है उसके पास भी रखा हुआ ।पीछे रखा होता है देने के लिए । पर कोयले से तो मुँह काला ही होता है । यह भी तो ध्यान में रखने वाली बात है। जोहरी तो बहुत कुछ दे सकता है। उससे वह चीज़ क्यों नहीं माँगते ।

भक्तजनों एक ही साधन मन में आता है। एक ही साधन परमानन्द की प्राप्ति करवाने वाला है, जो अत्यान्तिक सुख की प्राप्ति करवाने वाला है। जो अविनाशी सुख की प्राप्ति करवाने वाला है। वह है भगवान के श्रीचरणो में उसकी प्रीति, उसकी भक्ति । जानते हो ? जब आप लोग जप करते हो , उस जाप का माप दण्ड क्या है ? हमारा जाप ठीक चल रहा है, ठीक दिशा में। चल रहा है, या मात्र् गिनती ही बढ़ रही है। बहुत लोगों ने नियम बना रखा है इतना जाप करना है । नियम तो निभ रहा है लेकिन प्रेम प्रकट नहीं हो रहा ।

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भक्ति- अविनाशी सुख 1f

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

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भक्ति- अविनाशी सुख 1f

27:15 – 30:35

अविनाशी सुख की चाह । मत सोचिएगा कि यह चाह ही न रही तो सुख मिलेगा नहीं। भक्तजनों चाह छोड़ोगे को सुख जितना अपेक्षित है उससे कहीं अधिक मिलेगा । चाह छोड़कर देखिएगा ।

एक ज़मींदार बीज बोता है, बीज ही तो प्राप्त करता है उसके बाद । फल भी तो बीज ही है। जो बोता है वही काटता है वही उसके हिस्से में आता है । मानो प्रचुर मात्रा में आता है। इससे अधिक तो कुछ नहीं होता । लेकिन जो बीज नहीं बोता, यदि वह धरती को खोदता है तो उसे , राजा जनक की बात देखिएगा , उसे मातेश्वरी सीता मिली । किसान चाह रखकर बीज बोता है पर जनक ने चाह रखकर कुछ नहीं किया । उसे मातेश्वरी भक्ति की प्राप्ति हो गई ।

इस अविनाशी सुख को कैसे प्राप्त करें ? साधन तो भक्त जनों ज्ञानी लोग बताते होंगे । मैं तुच्छ बुद्धि आपको कुछ नहीं बता सकूँगा । सुनी सुनाई थोड़ी थोड़ी बातें हैं वही आप सबकी सेवा में प्रस्तुत कर सकूँगा । या जो अपने गुरूजनों के जीवन से देखा है, वही आपके सामने प्रस्तुत है भक्त जनों । एक ही साधन मुख्य साधन हमारे लिए इस परमानन्द की प्राप्ति के लिए वह साधन क्या है ?

एक शिव के भक्त बड़ी देर भगवान की आराधना कर रहे थे । भगवान प्रसन्न हो गए । आशुतोष भगवान प्रकट हो गए । यह भक्त टुक टुक देख रहा है कुछ माँग नहीं रहा । भगवान कहते हैं अरे ! मैं तेरे सामने खड़ा हूँ कुछ माँग मेरे से । कुछ माँगता क्यों नहीं वरदान माँग । भक्त हाथ जोड़ता है कहता है महाराज आपके शरीर पर न कपड़ा न आभूषण माँगूँ को क्या माँगूँ ? राख सर्प बिच्छु ? आपको देखकर तो महाराज कुछ देने को मन करता है न कि कुछ मांगने को ! क्या माँगूँ मैं आपसे ।

भगवान कहते हैं कि यदि मुझे देखकर भी कपड़े और आभूषण ही माँगने को मन करता है तो इससे बड़े दुर्भाग्य की बात किया होगी ? मैं तेरे सामने कपड़े पहन कर नहीं आया आभूषण पहन कर नहीं आया । मेरे दर्शन का यदि फल यही है तो साधक जनों अपने भक्त को कहता है कि इससे बड़ी दुर्भाग्य की बात किया होगी ? अरे ! मुझसे माँगना है तो कुछ विलक्षण चीज़ माँग ।

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भक्ति- अविनाशी सुख 1e

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

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भक्ति- अविनाशी सुख 1e

23:30 – 27:15

सर्वोत्कृष्ट सुख – बहुत बड़ी चीज़ जब संसार में पानी हुआ करती है तो छोटी छोटी चीज़ों का त्याग करना पड़ता है। तब वह बड़ी चीज़ मिलती है। मुट्ठी में यदि चाहते हो कि हीरे मोती भरने हैं तो पहले जो पत्थर भर रखे हैं उन्हें छोड़ना पड़ेगा निकालना पड़ेगा तभी उस मुट्ठी में हीरे भरे जा सकेंगे । हीरे ज्वाहारात भरने हैं पत्थरों की बात छोड़िएगा चाँदी सोना भी यदि मुट्ठी में भर रखा है तो उसे भी त्यागना होगा । तभी तो उच्चतम चीज़ की प्राप्ति होगी ।

एक गाँव में बड़ा पुराना प्रसिद्ध मंदिर है, अपर्णा देवी का मंदिर । किसी एक व्यक्ति की दुकान पर बड़ा भारी रश । सारा साल यहाँ यात्री आते रहते हैं। लेकिन एक ही दुकान पर भारी रश । कुछ एक यात्री उसके पास गए कहा लाला जी क्या बात है? आप ही की दुकान पर रश है बाकि सब बेकार बैठे हैं। कहने लगा, इसके पीछे एक रहस्य है । मेरी भी हालत बिल्कुल ऐसी ही थी । मेरी दुकान पर कोई नहीं आया करता था । खाने के लिए घर में रोटी नहीं। ऐसे ही बैठे रहते थे जैसे और दुकानदार बैठते हैं। एक दिन एक महात्मा आए ।

मैंने अपनी व्यथा वर्णन करी । महात्मा ने कहा, कुछ पाना ही पाना चाहते हो या कुछ देना भी चाहते हो । मैं उनकी बात समझ नहीं सका । उन्हें कहा। थोड़ा स्पष्ट करके समझाइएगा । महात्मा ने कहा तुम्हारे घर में कुआँ है । पीछे घर है आगे दुकान है। एक कोने में प्यऊ आरम्भ कर । लोगों को पानी पिलाना शुरू कर। मैंने उनके कहे अनुसार दुकान के एक कोने में प्यऊ खोल लिया कभी मैं बैठता कभी मेरी पत्नी बैठती । कभी मेरा पुत्र । पानी पिलाता । घर के ही आँगन में एक पेड़ था वहाँ दो चार चारपाइयाँ बिछा दीं। यात्री लोग आने लग गए, पानी पीते थोड़ी देर विश्राम करते । विश्राम करते फिर पानी पीते। इस प्रकार मेरे घर में और प्यासे में तांता लगने लग गया । सारे के सारे ग्राहक मेरी ओर मुड़ने लग गए । अब दो नौकर भी हैं मेरे पास तब भी मेरा काम निपटता नहीं।

कुछ पाना चाहते हो तो कुछ छोड़ना पड़ेगा । कुछ त्यागना पड़ेगा । इसके बिना काम नहीं चलता । स्वामी रामसुखदास जी महाराज की कथनी बड़ी सुंदर याद आती है, भक्तजनों जीवन में कुछ भी बन जाओ बहुत बड़े वक्ता बन जाओ संगीतकार बन जाओ विद्वान बन जाओ कथा वाचन बन जाओ , अनेक किताबें लिख डाले करोड़पति बन जाओ गुरू की पगड़ी प्राप्त कर लो लोगों लें जय जय कार करवाओ यश मान की प्राप्ति होने लग जाए । स्वामीजी महाराज कहते हैं जब तक संसारिक सुख की चाह बनी रहेगी तब तक अविनाशी सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती ।

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भक्ति- अविनाशी सुख 1d

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

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भक्ति- अविनाशी सुख 1d

20:30 – 23:30

सुख तो हमारे भीतर है लेकिन खोज हमारी बाहर है । प्रयत्न ही ग़लत है तो इसलिए सुख मिलेगा कहाँ से ? बाहर जहाँ हम ढूँढ रहे हैं वहाँ तो सुख है ही नहीं । आप कहोगे नहीं यह झूठ बोलता है। सुख बाहर तो है। खाते हैं सुख मिलता है भोग भोगते हैं सुख मिलता है। पुत्र जन्मता है सुख मिलता है इत्यादि इत्यादि । सुख तो मिलता है पर वह क्षणिक है। वह सुख वह सुख नहीं जिसकी खोज के लिए मानव जन्म मिला है।वह तो क्षणिक सुख है आया और चला गया ।

नाश्ता किया । बहुत अच्छा नाश्ता किया, पेट भर कर नाश्ता किया । जितना मर्ज़ी पेट भर लीजिएगा । दोपहर को खाना नहीं खाएँगे तो रात को तो अवश्य खाएँगे । इतनी ही अवधि है उस सुख की । लेकिन खोज जो है लक्ष्य जो है वह है अविनाशी सुख प्राप्त नहीं होता, अनेक जन्म भी बीत जाते हैं, तो भी उदासी दूर नहीं होती । यही तो कहते हो न बहुत देर हो गई है भजन पाठ करते हुए जीवन समाप्त होने को आ रहा है लेकिन उदासी या अशान्ति अभी तक बनी हुई है । वह तब तक बनी रहेगी जब तक वह अविनाशी सुख की प्राप्ति नहीं होती ।

भीतर है वह सुख । वह सुख बाहर नहीं है। बाहर वाले संसार में व्यवहारिक संसार में वह सुख नहीं है। एक बात जान लीजिएगा। वह सुख जो भीतर का संसार है वह वहाँ है। भीतर मुड़ना कठिन है। परमेश्वर ने हमारे साथ बड़ा भारी खेल खेला हुआ है। हमारी सारी की सारी इंद्रियाँ बाह्य मुखी बनाई हैं, लेकिन संत कहते हैं भीतर मुड़िएगा तब बात बनेगी । आँख बाहर की ओर देखती है, कान बाहर की ओर है नासिकाएँ बाहर की ओर हैं। सब की सब देख लीजिएगा सब इंद्रियाँ बाहर की ओर हैं। भीतर की ओर कोई नहीं है। लेकिन संत महात्मा कहते हैं कि जब तक भीतर नहीं मुड़ोगे तब तक अविनाशी सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती क्योंकि वह सुख भीतर है। बाहर नहीं ।

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भक्ति- अविनाशी सुख 1d

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

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भक्ति- अविनाशी सुख 1d

16:48 – 20:30

भजन में जिस सुख की अनुभूति की चर्चा की गई है जब तक वह अनुभूति नहीं होती तब तक हमें चैन नहीं आता भक्तजनों । हमारी बेचैनी का कारण ही एक है कि उस सुख की अनुभूति आज तक नहीं हुई । इसलिए बेचैन बने हुए हैं। परमेश्वर तेरी कृपा हो, तेरी कृपा से उस सुख की अनुभूति कभी भी तू करवा दे कभी भी हो जाए तो जन्म जन्मान्तर की बेचैनी हमारी दूर हो जाएगी । कृपा कर हम पर । कृपा कर कृपा कर कृपा कर।

मैं अपना मन हरि संग जोड़ा हरि सों जोड़ सभी से तोड़ा

साधक जनों पहला भाग तो सम्भव हो सकता है । लाख प्रयत्न के बाद गुरू कृपा से पहला भाग तो सम्भव हो जाता है। लेकिन दूसरा भाग असम्भव ही बना रहता है। सब से टूटती नहीं है । परमेश्वर से जुड़ सकती है, लेकिन सबसे टूटती नहीं है। यह बहुत कठिन बात है । मोह छूटता नहीं। कहना बहुत आसान है करके दिखाना बहुत कठिन ।

अविनाशी सुख की चर्चा कुछ सप्ताह से चल रही है। ऐसा सुख जिसे प्राप्त करके फिर और कुछ प्राप्त करने की चाह नहीं रहती । पिछले कुछ सप्ताह से इसी सुख की चर्चा चल रही है। आज इस चर्चा को विश्राम देने का प्रयत्न करते हैं।

अविनाशी सुख अर्थात् सर्वोत्कृष्ट सुख । सदा रहने वाला सुख । सबसे बड़ा सुख । सबसे ऊँचा सुख । आत्यानतिक सुख जिसे कहा जाता है । परमानन्द जिसे कहा जाता है। शाश्वत शान्ति जिसे कहा जाता है। परमात्मा का मिलन जिसे कहा जाता है, भगवत् प्राप्ति जिसे कही जाती है। राम मिलन जिसे कहा जाता है। आत्मा का साक्षात्कार जिसे कहा जाता है। परमात्मा का साक्षात्कार जिसे कहा जाता है। उसी को अविनाशी सुख कहा जाता है। परम धाम भी इसे ही कहा जाता है। मानो मानव जन्म की उच्चतम उपलब्धि एक ही उपलब्धि जिसके लिए यह मानव जन्म मिला है वो है अविनाशी सुख की प्राप्ति । जब तक यह प्राप्त नहीं होता, तब तक जीवन कृत कृत नहीं होता अधूरा पन बना रहता है। जैसे ही इसकी प्राप्ति हो जाती है बस सबकुछ मिल जाता है। उसके बाद कुछ और पाने की इच्छा ही नहीं होती ।

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भक्ति- अविनाशी सुख 1d

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

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भक्ति- अविनाशी सुख 1d

13:06 – 16:48

किसी ने कबीर जी महाराज से पूछा राम नाम का इतना प्रताप गाया है क्या बात है महाराज कि जो आपको प्राप्त हुआ वह अभी तक हमें नहीं हुआ । प्राप्त क्या अभी तक अनुभव भी नहीं किया ।

कबीर जी महाराज एक सुंदर उदाहरण देते हैं। कहते हैं, एक किसान है । उसके पास बड़ी सुंदर उपजाऊ भूमि है। अति अच्छा बीज उसने बो दिया है। खाद बहुत अच्छी है, सिंचाई भी अच्छी है, वर्षा भी हो गई । इत्यादि जो कुछ भी हुआ हो गया । फसल भी सहलाती । खेत सब वह लहा रहा है। कबीर साहब कहते हैं अब यदि यदि कोई मूर्ख व्यक्ति अपने ही खेत में कुछ पशु छोड़ देता है तो साधक जनों ऐसे किसान को कुछ मिल नहीं पाएगा । फसल तैयार है। स्वयं ही तैयार की है। पर यदि पशु छोड़ दिए तो फसल हाथ कभी नहीं आएगी ।

यही कबीर साहब कहते हैं यह हालत बिल्कुल हमारी है। नाम की कमाई बहुत करते हैं बहुत जपते हैं लेकिन कामना रूपी पशु बीच में छोड़ देते हैं। और सारी की सारी फसल हम बर्बाद कर देते हैं। उनको चरा के। इसलिए भक्तजनों बड़ी सुंदर बात भगवान श्री राम लक्ष्मण जी के साथ जब विश्वामित्र जी के यज्ञ पूर्ति के लिए आए जानते हो सबसे पहले किस को मारा । याद है न आपको । महर्षि विश्वामित्र ने कहा यह ताड़का मिलने वाली है। सबसे पहले इसको मारो । क्यों ? संत महात्मा कहते हैं यह ताड़ता दुर्आशा है । आशा नहीं दुर्आशा। दुर्आशा उसे कहा जाता है नाम तो परमात्मा का जपो लेकिन आशा संसार से रखो इसको संत महात्मा दुर्आशा कहते हैं। तो हमारा प्रथम शत्रु कौन ? ताड़का । यही तो हम कर रहे हैं। नाम तो हम परमात्मा का जपते हैं लेकिन आशा औरों से रखते हैं। यह दुर्आशा है।

भगवान कितना अपमानित अपने आप को मानते होंगे कि यदि मेरा नाम जपते हुए भी दूसरों के ऊपर दृष्टि रख रहा है। आँखें दूसरों पर रख रहा है। इसे इतना विश्वास नहीं कि मैं इसे क्या का क्या दे सकता हूँ। आशा इक राम जी दूजा आशा छोड़ दे ।विश्वामित्र के आदेश से दुर्आशा को पहले मरवा दिया । दुर्आशा को मरवा दिया ।

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भक्ति- अविनाशी सुख 1c

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

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भक्ति- अविनाशी सुख 1c

7:50 – 13:06

गणेश जी कहते हैं कि पिता जी की आज्ञा है। रास्ते में अनेक तीर्थ आएँगे और आप जैसे संत महात्मा कोई रास्ते में मिल जाएँगे तो उनके दर्शन होते जाएँगे । देखो न कृपा हुई मेरे ऊपर आज आपके अकस्मात दर्शन हुए । देव ऋषि नारद गुरू महाराज हैं। अति प्रसन्न हो गए । वाह गणपति ! मैं जैसा समझता था तूने वैसा ही उत्तर दिया और तूने वैसा ही किया । शाबाशी दी और कहा बेटा अभी राम शब्द यहाँ लिख एक परिक्रमा लेके भगवान शिव की गोदी में जाकर बैठ जा और कह ऐसे करके मैं आया हूँ मेरी परिक्रमा पूर्ण हो गई । पूछेंगे कैसे ? तो बोलना, सोचो न भक्तजनों इस नश्वर संसार के मूल में कौन है वही न । सत्य मूलक है रचना सारी स्वामीजी महाराज ने लिखा है। इस रचना के पीछे मूल में कौन है ? इस सारे संसार के मूल में कौन है ? वही राम जिसका आप चक्कर परिक्रमा लगा कर जा रहे हो । जाओ आप ही प्रथम पूजनीय हो । आप ही प्रथम पूजा के अधिकारी हो।

गुरू ने एक युक्ति बता दी।

अहल्या तर गई । प्रश्न उठा कैसे ? क्या भगवान के चरणों से? या भगवान की चरण धुलि से ? देखो विश्लेषण कैसे करते हैं संत महात्मा । हम जैसों को चरणों व चरण धुलि में कोई अंतर नहीं दिखाई देता, लेकिन जो समझने वाले हैं वे प्रश्न करते हैं।अहल्या तरी किससे भगवान की चरणों से या चरणों की धुलि से। धूलि तो जनकपुरी आते आते भगवान को मिली । पहले नहीं थी । यदि चरणों से त्रि तो क्या अयोध्या में इससे पहले पत्थर नहीं थे लेकिन कोई कहता तो नहीं है कि अयोध्या का पत्थर कर गया । बड़ा प्रश्न !

भगवान से यह प्रश्न पूछा गया कि आप क्या कहते हैं। भगवान श्रीराम बड़ा सुंदर उत्तर देते हैं। कहते हैं भक्तजनों मात्र राम शब्द की रटन करते रहोगे तो वह मेरे चरणों के तुल्य है। उससे कुछ विशेष बात बनने नहीं वाली । जैसे राम शब्द में दो अक्षर वैसे ही मेरे दो चरण । इनकी मात्र रटन करते रहोगे तो मेरे चरणों से कोई तरने वाला नहीं। इस प्रकार की रटन से यदि चरण धूलि मिल जाएगी मानो गुरू कृपा हो जाएगी, तो मेरे चरणों से अनुराग होने लग जाएगा। यहाँ फिर एक बात स्पष्ट करता हूँ , पार करने के लिए न मेरे चरणों में समर्थ है न चरण धुलि में समर्थ है। एक और चीज़ है। यदि गुरूदेव विश्वामित्र मुझे आदेश न देते कि राम अपनी चरण धुलि से तार दो तो मैं वह काम कभी न कर पाता ।

नाम , नाम के साथ अनुराग और उसके ऊपर गुरूकृपा नहीं होती बड़े भेद की बातें हैं। यह भेद की बातें खोली भी नहीं जा सकती । पर यदि गुप्त रखता हूँ तो अपने आपको दोषी मानूँगा । यह बातें स्पष्ट होनी चाहिए ।

आपको जाप करते करते गुरू जब थक जाता है, गुरू कहता है मैं भी इसको देखकर थक गया हूँ । जाकर परमेश्वर से प्रार्थना करता है, परमात्मा , इस भक्त की मैं साक्षी देता हूँ इसने बहुत जप किया है अब इसके ऊपर कृपा कर दो।तो कृपा होगी।

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