भक्ति- अविनाशी सुख 1h

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

( SRS दिल्ली website pvrA003)

भक्ति- अविनाशी सुख 1h

33:44 – 37:12

देवताओं ने जब भगवान शिव से पूछा कि भगवान प्रकट कैसे होते हैं तो भगवान शिव बोले कि भगवान तो प्रेम से प्रकट होते हैं। प्रकट किया करना है ? भीतर ही तो वे होते हैं। भीतर ही वे विराजमान हैं। विश्वास पूर्वक श्रद्धा पूर्वक प्रेमपूर्वक उन्हें याद तो करके देखिएगा । नियम तो हम निभा रहे हैं लेकिन उससे प्रेम तो नहीं उपजा । प्रेम बढ़ ही नहीं रहा, प्रेम पैदा ही नहीं हो रहा , तो वह प्रकट कैसे होगा ?

जानते हो इतनी सी दूरी , आँखें यहाँ हैं बुद्धि यहाँ है, वह यहाँ बैठा है, स्वामीजी महाराज कहते हैं वह बहुत पास ललाट में बैठा है दूर नहीं बैठा है। दूरी भी हम सह नहीं कर पाते तो इस दूरी का कारण बताऊँ इस सेवा में वह यह हमें स्वामीजी महाराज गुरूजनों की बात पर विश्वास ही नहीं है । हमें परमात्मा में विश्वास नहीं है । जिससे हमारी दूरी तह नहीं हो रही बल्कि बढ़ रही है। न गुरू में विश्वास न परमात्मा में विश्वास । न मंत्र में विश्वास । इसलिए यह थोड़ी सी दूरी न तह होती है न ख़त्म होती है। बल्कि यूँ कहिएगा कि यह दूरी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

एक साधन भक्तजनों दुर्बुद्धि व्यक्ति से याद रखिएगा अनजान अबोध बालक की बात याद रखिएगा । विश्वास पूर्वक श्रद्धा पूर्वक परमेश्वर के श्रीचरणों से प्रेम कर डालिएगा । मैं अपना मन तुम संग जोड़ा, तुम संग जोड़ सभी संग तोड़ा ।

ज़रा आ शरण मेरे राम की, मेरा राम करुणा निधान है । कैसे जाएँ उसकी शरण में ? पत्थर तो तर गए । हमसे बेहतर हैं इसलिए । जड़ हैं । हमारी है को बड़ी ख़ुशक़िस्मती की बात पर हम इसे दुर्भाग्य में परिवर्तित कर लेते हैं । परमेश्वर ने हमें बुद्धिजीवी तो बनाया है, लेकिन हम इस बुद्धि का दुरुपयोग करते हैं।इसी बुद्धि में है वह अहम् बसा हुआ जो परमेश्वर की शरण में नहीं जाने देता । पत्थर का अहम् मर गया हुआ है वह जड़ है उसमें अहम् नहीं है इसलिए उसे करने में कोई कठिनाई नहीं है। अहल्या कर गई । क्योंकि उसने अपने आपको जड़ बना लिया था । हमें अपने आपको जड बनाना आता नहीं इसलिए हम तरें तो करें कैसे ?

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