Monthly Archives: December 2020

प्रशंसा साधक के लिए घातक 2a

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

( SRS दिल्ली website pvr08b)

प्रशंसा साधक के लिए घातक 2a

0:00- 2:47

एक बड़ी प्रसिद्ध कथा है। आप जानते हैं। अर्जुन को अपने गांडीव धनुष से बड़ा प्रेम था । उसने क़सम खा रखी थी, मेरे गांडीव धनुष के भूल से भी कोई बदनामी करेगा अपमान करेगा तो मैं उसके प्राण हर लूँगा । महाभारत में ऐसा वर्णन आता है। आज उनके अतीव माननीय सम्माननीय भाई युधिष्ठिर से अपमान हो गया । लानत है तेरे गांडीव पर । ऐसे शब्द युधिष्ठिर से निकले और अर्जुन का प्रण । मेरे प्रण के अनुसार युधिष्ठिर को मरना है। और मैं इस मार कर रहूँगा ।

भगवान के श्रीचरणो में महाराज , आपको पता है क्या घटना घटी है। मैंने इस युधिष्ठिर के बच्चे को आज मारकर रहना है।क्यों ? इसने मेरे गाण्डीव का अपमान किया है गाली निकाली। भगवान अर्जुन को कहते हैं पार्थ कि व्यक्ति को मारने के ढंग केवल तलवार एवं बंदूक़ ही नहीं। मैं तुझे अनोखा ढंग बताता हूँ। मैंने इसका श्रीगीता जी में वर्णन भी किया है। बताएँ महाराज । युधिष्ठिर मरेगा भी नहीं और बचेगा भी नहीं।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं पार्थ ! किसी सम्माननीय व्यक्ति की भरी सभा में उसका अपमान कर दिया जाए तो वह जीते जी मर जाती है। जा ! तू भरी सभा में उसका अपमान कर दे वह जीते जी मर जाएगा । तुझे तलवार या बंदूक़ की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । बाण की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी । ऐसे ही मर जाएगा । अर्जुन ने ऐसा ही किया । युधिष्ठिर अति लज्जित । अर्जुन भक्त हैं। भगवान का सानिध्य उन्हें इतनी देर तक प्राप्त रहा है, स्नेह इतनी देर तक प्राप्त रहा है, अच्छा नहीं लगा।

क्या बात है? ऐसा प्रण तुझे करना ही नहीं चाहिए था । क्या रखा है ऐसे प्रण में? भरी सभा में मैंने अपने बड़े भाई को बेइज्जत कर दिया । भगवान के पास गए हैं। यह आपने क्या मुझे उपाय बता दिया । इससे अच्छा होता कि मैं ही मर जाता । भगवान कृष्ण कहते हैं कोई बात नहीं, तुझे मरना है तो तुझे भी मार देते हैं। आज एक अनोखी बात भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं। हमने इन बातों पर कभी ध्यान ही नहीं दिया । पार्थ ! एक शब्द है आत्मशलाघा, प्रशंसा । अपनी प्रशंसा । पार्थ अपनी प्रशंसा करने वाला व सुनने वाला भी जीते जी ही मर जाता है। जा । किसी के सामने जाकर अपना गुण गान कर दे या उन्हीं के बीच बैठ कर अपना गुणगान सुन ले। तो तू जीते जी ही मर जाएगा । हमने कभी प्रशंसा की gravity का कभी ध्यान नहीं दिया ।

ऐसी घास है यह प्रशंसा जो असली पौधे को उगने नहीं देती । उसका विकास नहीं होने देती । मत इसके पीछे पीछे घूमिएगा । वह तो भूखा है कंगाल है । जो अपनी प्रशंसा सुनने के लिए इधर भटकता है उधर भटकता है। आज वहाँ कल यहाँ परसों वहाँ। आज इसके पास कल उसके पास। भिखारियों की तरह कंगालों की तरह घूमता फिरता है। दो शब्द प्रशंसा के सुनने के लिए।

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प्रशंसा साधक के लिए घातक 1d

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

( SRS दिल्ली website pvr08a)

प्रशंसा साधक के लिए घातक 1d

17:37- 22:47

इस घास को नहीं काटेंगे तो कहीं के नहीं रहेंगे । इस घास को स्वयं काटिएगा या कटवाइएगा। दोनों बातें हैं। पता भी लगना चाहिए कि घास उगी है और फिर कटवाने वाला भी कोई मिलना चाहिए जानकार पहचानकार कि कहीं वह असली पौधा ही नहीं काट दे । उसे पहचान होनी चाहिए कि यह घास है । यह असली पौधा है उससे घास कटवाइएगा ।

आज भक्तजनों, यह प्रशंसा की बात, यदि इसकी gravity को यदि आप आज नहीं जान सके हैं, तो एक छोटे से दृष्टान्त के माध्यम से पहले आप अपनी अपनी छाती पर हाथ रखकर देखो, कौन ऐसा यहाँ बैठा हुआ व्यक्ति है, जो इस रोग से suffer नहीं करता । इस रोग से ग्रसित हैं। एक यह है कि प्रशंसा आए । हालात और बिगड़ जाती है कि जब प्रशंसा आती है तो आप चाहते हैं कि और आए , क्यों ? इससे भूख तो मिटती नहीं ।

हमारे अधिक मित्र कौन जो हमारी अधिक प्रशंसा करने वाली हैं, उनको telephone करके बुलाती हैं, आज आ जाना । lunch पर आ जाना । day spend करना क्यों ? वह मूर्खा आके आपका नुक़सान करती है। खाना भी आपका खाती है और भीतर भी है वह भी खाती है, आपको समझ नहीं आ रही। हर प्रकार से खोखला करने वाले ऐसे लोगों को चापलूस कहा जाता है। इनके भीतर झांक कर देखो वे महा स्वार्थी हुआ करते हैं। वे आपके मित्र नहीं हैं, वे भीतर से आपके कटु शत्रु हैं, दुश्मन हैं। बचो इनसे !

सबसे अधिक बचने की आवश्यकता मुझे । जिसके चारों ओर ऐसे लोग घूमते हैं। मेरे जैसे कोई और भी हैं, उनको भी बचने की आवश्यकता । क्यों ? यह रोग लग गया तो जन्म जन्मान्तर भी , यह इतने सारे बैठे हैं, आपको लगेगा कि इतने सारों की प्रशंसा से मेरा पेट भर जाएगा तो यह बात सम्भव नहीं है। और भूख लगेगी ।

एक बड़ी प्रसिद्ध कथा है। आप जानते हैं। अर्जुन को अपने गांडीव धनुष से बड़ा प्रेम था । उसने क़सम खा रखी थी, मेरे गांडीव धनुष के भूल से भी कोई बदनामी करेगा अपमान करेगा तो मैं उसके प्राण हर लूँगा । महाभारत में ऐसा वर्णन आता है। आज उनके अतीव माननीय सम्माननीय भाई युधिष्ठिर से अपमान हो गया । लानत है तेरे गांडीव पर । ऐसे शब्द युधिष्ठिर से निकले और अर्जुन का प्रण । मेरे प्रण के अनुसार युधिष्ठिर को मरना है। और मैं इस मार कर रहूँगा ।

भगवान के श्रीचरणो में महाराज , आपको पता है क्या घटना घटी है। मैंने इस युधिष्ठिर के बच्चे को आज मारकर रहना है।क्यों ? इसने मेरे गाण्डीव का अपमान किया है गाली निकाली। भगवान अर्जुन को कहते हैं पार्थ कि व्यक्ति को मारने के ढंग केवल तलवार एवं बंदूक़ ही नहीं। मैं तुझे अनोखा ढंग बताता हूँ। मैंने इसका श्रीगीता जी में वर्णन भी किया है। बताएँ महाराज । युधिष्ठिर मरेगा भी नहीं और बचेगा भी नहीं।

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प्रशंसा साधक के लिए घातक 1c

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

प्रशंसा साधक के लिए घातक 1c

( SRS दिल्ली website pvr08a)

11:23-16:00

एक समझदार इंसान को घास जो उग कही है और पौधे के बीच की पहचान है। पर पहचान बड़ी कठिन। साधक बेचारा यहाँ मारा जाता है। उसे लगता है मैं आगे बढ़ रहा हूँ , लेकिन उसके पावन खींचने वाली कोई और चीज़ होती है। वह उसके पाँव पीछे को खींच रही है । वह उसे आगे नहीं बढ़ने दे रही। unwanted घास उग आया है। एक किसान, समझदार। नुकीले खुर्पी से लेकर या हाथ से वह घास को निकालता है। यदि नहीं निकालता तो सारे की सारी शक्तियाँ वह दे रहा है, वह घास खींच कर ले जाती है और जो उपज होनी चाहिए , उससे वह वंचित रह जाता है। ठीक है न बात । मुश्किल बात नहीं है। खाद इत्यादि से जो शक्ति मिलती है वह उसे न मिलते जो unwanted घास है उसे मिलती है। उसकी growth उसका विकास नहीं हो पा रहा। या पौधा सूख जाता है सड़ जाता है।

एक साधक के साथ क्या साम्य है इसका ? कैसी तुलना ? अब साधकगण कुछ सत्कर्म करना आरम्भ करते हैं। उत्तम काम । राम नाम जपना आरम्भ करते हैं। सेवा करना आरम्भ करते हैं। शुभ कर्म करना आरम्भ करते हैं। आप किसी को दुख नहीं देते। हर प्रयास करते हैं किसी को सुख पहुँचाया जाए । एक सत्कर्मों बन गए हैं आप । अब आप सत्कर्मी बन गए हैं तो प्रशंसा की वर्षा भी होकर रहेगी । कोई सेवा करने वाला, कोई सत्कर्म करने वाला, चाहे या न चाहे, ध्यान दे भक्त जनों। बहुत ऊँची बात सूक्ष्म बात आप सब के सामने भक्तजनों कही जा रही है। आप चाहें प्रशंसा या न चाहें प्रशंसा, आप सत्कर्मी हैं, किसी क्षेत्र में आप उतरे हैं, आपको प्रशंसा मिलके रहेगी । यह बालक अच्छा फ़ोटोग्राफ़र है, यह चाहे मेरी प्रशंसा , मेरा गुणगान हो या न चाहे, वह अच्छा काम करेगा, इसकी recognition होकर रहेगी, कोई रोक नहीं सकता। आप चाहें प्रशंसा मिले या आप चाहें प्रशंसा न मिले लेकिन प्रशंसा रूपी वर्षा होकर रहेगी । तो अभिमान रूपी घास उग कर रहेगा । यदि वह अनिवार्य है तो यह भी अनिवार्य है।

यह बाधक है। इसमें और अधिक काम करने का मन करेगा। क्यों ? जितना अधिक काम करेंगे उतनी अधिक प्रशंसा मिलेगी । इसके अंदर उत्कृष्टता का भाव आ जाएगा । मैं औरों से बढ़िया हो गया । इन्हीं को अभिमान के चिह्न कहा जाता है। अभिमान की घास न चाहते हुए भी इस बालक के अंदर उग आई है। यह विवेक का प्रयोग नहीं करता, किसी की सहायता नहीं लेता, तो, लौकिक दृष्टि से तो बेश्क यह ऊपर चढ़ रहा है, लेकिन परमार्थ की दृष्टि से यह बीच ही बीच खोखला हो रहा है। किसी काम का नहीं है। इसको रोग इस प्रकार का लग गया है, जो भीतर ही भीतर खा जाएगा।मान रूपी, अभिमान रूपी घास उग आई है। आप विवेक प्रयोग नहीं करते, यह घास तो बढ़ती जाएगी । और आपका असली पौधा सूखता जाएगा। क्यों ? उसके लिए तो कोई शक्ति है ही नहीं।

ध्यान रहे ! यह रोग किनको लगता है? यह रोग उनको लगता है जो राम नाम जपने वाले हैं। जो सत्कर्मी हैं, जो सेवा के क्षेत्र में उतर गए हैं। सेवा करने वाले को यह रोग लगता है, आगे बढ़ने वाले को यह रोग लगता है, बुद्धिजीवी को यह रोग लगता है, जो आपसे ऊपर चढ़ गया हुआ है, वह इस रोग से अधिक ग्रस्त होता है।

अभिमान रूपी मान रूपी मंद रूपी मोह रूपी घास । यह निर्भर करता है कि आपने बीज भक्ति का बोया है, कर्म का बोया है या ज्ञान का बोया है। सब उस पर निर्भर करता है। मान या मोह रूपी घास उग गई। इस घास को यदि आप नहीं काटेंगे तो किसी काम के नहीं रहेंगे । इस घास को स्वयं काटिएगा या कटवाइएगा।

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प्रशंसा साधक के लिए घातक 1(b)

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

( SRS दिल्ली website pvr08a)

प्रशंसा साधक के लिए घातक 1(b)

6:29- 11:23

एक ऐसी बहुत छोटी चीज़ की बात की चर्चा करी जाएगी । शायद आपने जीवन में बहुत इसका महत्व जाना नहीं । पर हर कोंई इस रोग से ग्रस्त है। छोटा बड़ा बच्चे से लेकर बूढ़े तक, हर व्यक्ति इस रोग से ग्रसित है। आप साधक हैं तो भी ग्रस्त हैं आप सामान्य व्यक्ति हैं तो भी इससे ग्रसत हैं। मानो यह चर्चा है तो विशेषतया साधकों के लिए पर सामान्य व्यक्ति भी इस चर्चा से लाभ ले सकते हैं, क्यों ?

दुखदायी तो यह रोग उनके लिए भी है। यह रोग आपको परमेश्वर के धाम तक तो नहीं पहुँचने देगा । यह मानव जन्म मिला हुआ है । उस को यह रोग पूरा नहीं होने देगा ।

संतों महात्मा ने खोज करके, एक साधक के जीवन को एक किसान के जीवन से तुलना की है। क्या सामने है? कहाँ एक किसान खेती बाड़ी करने वाला और कहीं एक साधक नाम नाम जपने वाला । संयमी जीवन बिताने वाला। अच्छे कर्म करने वाला । अपने ऊपर अंकुश रखने वाला । ऐसे व्यक्ति का साम्य एक किसान से कैसे हो सकता है? तुलना कैसे हो सकती है आइए देखें।

एक खेत का मालिक है किसान ।धरती की छाती को हल्के नुकीले भाग से चीरता है। छलनी छलनी कर देता है धरती माँ की छाती को । कालान्तर में उसमे बीज बोना है खाद डालनी है वर्षा की प्रतीक्षा करनी है। जल से सींचना है, जो बोया है वह उगे। शान्दार बीज । गला सड़ा नहीं ।शानदार बीज । रोगी बीज नहीं। स्वस्थ बीज, अच्छी quality का बीज लाकर बोता है। अपनी तरफ़ से प्रयत्न करता है इसे बढ़िया ले बढ़िया खाद भी दी जाए, जल भी दिया जाए, परमेश्वर की कृपा से उसका भी प्रकाश प्राप्त हो ताकि जो बोया है वह अनन्त गुना हो कि मुझे प्राप्त हो। यह धारणा है न एक किसान की। सकामी है। निष्कामी नहीं है। कुछ करके बहुत पाना चाहता है। इसी को सकामी कहते हैं। परमेश्वर की ऐसी करनी जो बोया है वह उगता है। धान कहिए । धान लगाया है वह उग रहा है। समस्या यहाँ होती है। बेचारा किसान । जो भूमि में बोया है वह तो उगेगा ही । लेकिन उसके साथ साथ वह भी उगता है जो नहीं बोया हुआ । यदि कोई यहाँ किसान बैठे हुए हैं या ऐसे व्यक्ति बैठे हुए हैं जिन्हें ऐसी बात में रुचि हैं वो मेरे साथ सहमत होंगे ।

घर में पौधा एक लगाया हुआ है। आप पानी भी देते हैं, सब कुछ देते हैं उसे , लेकिन आपको लगता है कि पौधा सूख रहा है। कारण देखते हैं, कारण वही है जो उस किसान के साथ हो रहा है। क्यों ? उसके साथ साथ जो नहीं भी बोया हुआ वह भी उग आया है।जिसे unwanted घास कहते हैं।

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New Book!

Dec 9, 2020

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महाराज़श्री के पावन तिलक दिवस की हम सब को असंख्य बधाई ।

आज के इस पावन दिन प्रेम का बीजारोपण कि नई पुस्तक
“ अपनी संस्कृति से जुड़े रहने पर मन का रुपांतरण”
“ Transforming Minds by Being Grounded to One’s Culture”

गुरूजनों के श्री चरणों में समर्पित हैं।

पूज्य महाराजश्री का बच्चों को आदेश था कि यदि वे अपनी संस्कृति से जुड़े रहेंगे तो सुखी रहेंगे ।

इस पुस्तक की रूप रेखा श्री भक्ति प्रकाश जी के शिष्टाचार से ली गई है।

यह पुस्तक माता पिता के लिए 3 वर्ष से ऊपर के बच्चों के पालन पोषण करने में बहुत सहायक होगी । साथ ही इस पुस्तक में बच्चे कैसे सुरक्षित रह सकें इस पर भी चर्चा कि गई है ।

यह पुस्तक हर किसी को सुख व शान्ति प्रदान करे, इसी मंगल आशा से आप सबको समर्पित है। कृपया अपने मंगल आशीष देते रहिएगा ।

शरणागत जन जान कर मंगल करिए दान
नमो नम: जय राम हो मंगल दया निधान

मंगल नाम राम राम मंगल नाम नाम राम 🙏🌺

New Arrival – Dec, 9, 2020

प्रशंसा साधक के लिए घातक 1a

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

( SRS दिल्ली website pvr08a)

प्रशंसा साधक के लिए घातक 1a

2:00- 6:29

पूज्य देवियों और सज्जनों इस दास का कोटि कोटि प्रणाम है आप सब के श्री चरणों में। मेरी नत शिर वंदना । सर्व प्रथम आपके मांगलिक श्री वचनों का हृदय से धन्यवाद करता हूँ । मुझ जैसे को आपका स्नेह प्राप्त होता है तो मैं समझता हूँ कि परमेश्वर की अपार कृपा है । वहीं अपना स्नेह आपके माध्यम से मुझे जैसे तुच्छ व्यक्ति तक भेज रहा है। उसका भी धन्यवाद, पूज्य बाबा का भी धन्यवाद गुरूदेव का भी धन्यवाद एवम् आप सब का भी हृदय से धन्यवाद । मेरा रोम रोम आपका आभारी है।

स्वामीजी महाराज अमृतवाणी में लिखते हैं, राम राम भज कर श्री राम करिए नित्य ही उत्तम काम। जितने कर्तव्य कर्म कलाप करिए राम राम कर ज़ाप । यों कहा जाए, स्वामीजी महाराज ने अपनी सारी साधना पद्दति इन्हीं चार पंक्तियों में उड़ेल दी है। स्वामीजी महाराज की दृष्टि में सर्वोत्तम काम राम नाम जपना है। हमारी दृष्टि अभी पूज्यपाद स्वामीजी महाराज जैसी नहीं। हमारी दृष्टि में राम नाम से कहीं अधिक महत्वशाली है नींद, भोजन, अपनी प्रशंसा सुननी , दूसरों को दुख देना, इत्यादि इत्यादि ऐसी बातें । व्यर्थ बातों में समय गवाते रहना। इन सब बातों को हम अधिक महत्व देते हैं, राम नाम की उपासना से।

यदि स्वामीजी महाराज की तरह भी हमारी दृष्टि इस प्रकार की हो, राम राम भज कर श्री राम करिए नित्य ही उत्तम काम। वे कहते हैं यह उत्तम काम है। यदि वास्तव में यह उत्तम है तो फिर तो हमारी हालत मीरा जैसी होनी चाहिए । दिवस न भूख, नींद नहीं रैना । उसकी दृष्टि में है। राम नाम का महत्व। हम तो डट कर सोते हैं, डट कर खाते हैं। इस बात की चिंता नहीं कि कम सो कर कम था कर अधिक राम नाम का पाठ कर सकें। ऐसी हालत तो हमारी है नहीं। मानो हमारी दृष्टि पूज्यपाद स्वामीजी जैसी नहीं बनी। बन भी कैसे सकती है। हमारी दृष्टि अभी अनेक स्थानों पर, जो बहुत नगण्य है, insignificant, जिनका जीवन में विशेषतया परमार्थ में कोई महत्व नहीं, बल्कि वह हमारी कमाई को चूसने वाली। हमारी दृष्टि तो, उन स्थानों पर टिकी हुई है।

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तिलक दिवस Dec 9

Dec 9 : पर। पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महाराजश्री का पावन तिलक दिवस

🌺पूज्य महाराजश्री की जीवनी उनके श्री मुख से🌺

परमात्मा की कृपा कैसी होती है। उसकीकृपाओं का नमूना आपके सामने । 1955 मेंमैंने दसवीं पास कर ली थी । हमारी joint family थी । ग़रीब नहीं थे । मेरे माता पिता नेमुझे पढ़ाने से इन्कार कर दिया । हम नहींपढाएंगे । लेकिन मेरे मन में बड़ी भारी इच्छा थीcollege में जाने की । primary school था जिस स्कूल से पढा था । उस स्कूल में मुझेuntrained teacher की ४० रू महीनेनौकरी मिल गई । नौ महीने नौकरी की, tuition रखी , ४०० से कम ही पैसे थे, तो घरछोड कर अमृतसर चला गया । हिन्दु कॉलेज मेंadmission ले ली । उन दिनों १०+२ नहीं होतेथे , fsc होती थी । दो साल वहाँ पढाई की as a poor student. मैं था नहीं poor, मेरेमाता पिता भी poor नहीं थे , पर , मुझे ग़रीबबनके रहना बहुत अच्छा लगता था । अभी भीअपने आपको ग़रीब ही कहता हूँ । कहता हीनहीं समझता हूँ । मैं हूँ ही ग़रीब।
कोई भी आपको हिन्दु कॉलेज का पुरानारिकॉर्ड मिल जाए तो मेरे नाम वहाँ as a poor student लिखा हुआ मिलेगा ।

हिसार, वेटेनेरी कॉलेज, पशुओं का डॉक्टर , मुझे बडी आसानी से वहाँ नौकरी मिल गई ।चार साल का course किया । मैं हूँ तो पशुओंका डॉ पर कोई मानने को तैयार नहीं , यहपरमात्मा की कृपा नहीं तो और क्या है ।परमात्मा ने कहाँ कहाँ मुझे सम्भाल कर औरछिपा कर रखा हुआ है, यह परमात्मा की कृपानहीं तो और क्या है ! वहाँ का topper था ।scholarship मिलना शुरू हो गया । उन दिनों५० रु मिलता था । ठीक गुज़ारा हो जाता थाउसमें । माता पिता को तकलीफ़ नहीं दी , कभीदेनी चाही ही नहीं । जैसे भी था चार सालनिकल गए । नौकरी लग गई । पंजाब में थोडीदेर नौकरी की , पर क्योंकि वहाँ का topper था , तो वहाँ demonstrator , तबlecturer नहीं कहते थे , demonstrator की नौकरी लग गई । 1962 में वहाँ पहुँचा और1964 में पूज्यश्री महाराजश्री का वहाँ आगमनहुआ ।

1964 में दीक्षा ली । पूज्यश्री महाराज कोएक पत्र लिखा English में । मुझे पता नहीं थाकि कैसे पत्र लिखा जाता है । मैंने किसी सेसलाह ली कि पूज्य श्री महाराजश्री को कैसेपत्र लिखा जाता है । देखो कैसा बुद्धु था मेरीमाताओं और सज्जनों । अब भी वैसा ही हूं ।संसारिक दृष्टि में बहुत ही निकम्मा और बुद्धु ।पत्र लिखा – महाराज I want to serve the humanity. मुझे यह का पशुओं का बिल्कुलपसंद नहीं है । न डॉ पसंद है न मैं इन्हें पढ़ानाचाहता हूँ । महाराज ने आशीर्वाद भरा पत्रवापिस भेजा । यह ’64 की बात है । ’65 से मेंAIIMS में आने का सम्बंध बनने लग गया ।एक पशुओं का डॉ AIIMS में कैसे ? यहपरमेश्वर की कृपा नहीं है तो और क्या है ।क्यादेखा AIIMS ने मुझ में मुझे पता नहीं , इसीतरह न जाने क्या देखा मेरे गुरूजनों ने मुझ मेंकि मुझे ऐसा बना दिया ।
M.Sc का course वहाँ निकला । I was the first one to get it.

मैं 1966 में दिल्ली आ गया ।यहीं से ज़िन्दगीशुरू होती है । यहीं से महाराज का प्यार मिलनाशुरू हुआ और श्रीरामशरणम आना जाना शुरूहुआ । अनेक सारे subjects. किसी में gold medal, किसी में silver medal, मानोfirst class / first division में पास हुआ ।दो को छोड के । एक surgery मुझे यहअच्छी नहीं लगती थी । यह काटना पीटना ।एक subject जिसमें जब मैं retire हुआ तोAsia का सबसे बड़ा ocular microbiologist था , उसमें भी नहीं आई ।यह परमात्मा की कृपा नहीं तो और क्या है ।

भाग २

दिल्ली पहुँच गया । दो साल की पढाई थी ।आज मैं जब कभी भी यह सब याद करता हूँमुझे परमात्मा की कृपा के सिवाय कुछ नहींदिखाई देता । यह सुन के मत सोचना कि यहइतना लाएक है ।इतना योग्य है, इतनाintelligent है । छी !! बिल्कुल नहीं ! कतेईनहीं !! दिल्ली आने पर डॉ राम मेरे मित्र बन गए। एक ही hostel में रहते थे। खाना इकट्ठाखाते थे । यह तो असली के डॉ MBBS , MD कर रहे थे, मैं M.SC कर रहा था । इनका मुझेमित्र स्वीकार कर लेना , सब परमात्मा की कृपानहीं तो और क्या है । कोई मेल जोल ही नहीं!!

देवियों सज्जनों मुझे चलती फिरतीmicrobiology की dictionary लोग कहनेलग गए ! महाराज के strict instructions थे , श्रीरामशरणम नहीं आना । देखो ! कोई है, जिसे प्रेम जी महाराज कहें श्रीरामशरणम नहींआना ! मैं हूँ ! जिसे कहा श्रीरामशरणम नहींआना । मैं तेरे पास आया करूँगा ! और यहबात उन्होंने निभाई ! वही आया करते थे । एकइतवार को मुझे जाने की इजाज़त थीश्रीरामशरणम ! बहुत पढने की ज़रूरत थी दोसाल । I started from scratch. महाराजने कैसे मुझे सम्भाला होगा। परमेश्वर ने कैसे, मेरे बच्चों बच्चियों , खासकर आपके लिए , यह बातें बहुत अनुकरणीय होनी चाहिए।depend करो परमात्मा के ऊपर । Depend करो गुरू महाराज के ऊपर ।

शाम को आकर कहते , थक जाए पढते पढते , ( मेरे 6 नं० hostel में 51 नं० कमरा होता था, आख़िरी , उसके ऊपर छत थी ; महाराज कोपता था ) छत पर जाके deep breathing कर लिया कर। महाराज जब भी आते थे मेरेपास,mess से दूध नहीं मिलता था ; तो कालीcoffee महाराज को पिलाया करता । स्वयं भीकाली coffe पीत था , महाराज को भी कालीcoffee पिलाया करता । महाराज कहते पढाईकरते करते midnight के बाद जब थक जाएतो ऐसी काली coffee पीकर तो फिर पढनेलग जाया कर ।

ऐसे प्रश्न पूछे गए मुझसे … !!! उन दिनों कहाकरते कि मेरे से वही प्रश्न पूछ गए जो सिर्फमुझे ही आते थे । exam लेने वाले जो बाहर सेआए – तीन दिन का exam होता था , फिरviva होता था , बडी मिट्टी पलीत करते थे ।आख़िरी दिन कहते कि पास तो हमने तुम्हें पहलेदिन ही कर दिया था .. यह शब्द मेरे दिमाग़ मेंगूँजते हैं तो मुझे परमात्मा की कृपा भरपूर !! पास तो पहले दिन ही कर दिया था , उसकेबाद तो तेरे से सीखा है ! यह परमात्मा की कृपानहीं तो और क्या है । पास हो गए !

भाग ३

वहीं नौकरी offer की as a research scholar, scholarship पर, 300रु रामको मिला करते 300रु मुझे ! MSc करतेकरते ! अचानक double salary हो गई600/- फिर मुझे आँखों के हस्पताल RP center में ले जाया गया , PhD भी साथसाथ शुरू हो चुकी थी । मेरी first appointment RP center में as adhock lecturer. Interview हुआ ।AIIMS के interview में कोई दो चार लोगनहीं बैठते, इतना बडा bench. Adhock lecturer बना, lecturer बना, assistant professor बना, associate professor बना। associate professor बनकरvoluntary retirement ले ली और मनालीचला गया । last pay slip sign करने केलिए होती है , उस पर लिखा हुआ थाadditional professor! यह कैसे हुआ !! मैं छोड कर आ गया और फिर promotion !! ध्यान से सुनो .. २०-२२ साल नौकरी की .. परमात्मा की करनी देखो !! इतनी posts परपरमात्मा ने कोई और candidate appear नहीं होने दिया । I was the only candidate for promotion! यह परमात्माकी कृपा नहीं तो और क्या है । मेरी last position के लिए जब application scrutiny के लिए गई तो objection कियाकि एक यही है व्यक्ति संसार भर से जिसनेapply किया है ?? हम नहीं मानते । post फिर से advertise हुई । सारा selection postpone हो गया। सभी papers में post advertise हुई । फिर वही ! फिर किसी नेapply नहीं किया , मुझ अकेले का हीinterview करना पड़ा ! वहाँ भी समस्या हुईकि मेरे पाँच साल अभी पूरे हुए थे, सबने कहाकरदे apply. सब administrative staff मुझ पर मेहरबान था ! यह परमात्मा की कृपानहीं तो और क्या है ! Apply कर दिया ।selection हो गई पर announcement नहीं की जा रही । बडे बडे लोग meeting मेंबैठे कि इसको मात्र ५ साल हुए हैं, बाकी१०-१० साल वाले बैठे हैं , इसको कैसे कर दें?? बहुत arguments हुए आख़िर उन्हें मुझेassociate professor बनाना ही पड़ा ।यह परमात्मा की कृपा नहीं तो और क्या है ।

कभी मेरी याद आए यह सब सोच कर, मुझेयाद नहीं करना, परमात्मा को याद करना , वाहपरमात्मा वाह ! तेरी कृपा अपरम्पार ! सर्वोपरिसर्वेसर्वा है ! कल तक कोई न पूछने वाला, आज हर कोई पूछता है ! यह परमात्मा कीकृपा नहीं तो और क्या है ! संत नहीं हूँ , यहकोई मानने को तैयार नहीं कि संत नहीं हूँ । यहपरमात्मा की कृपा नहीं तो और क्या है.. मैंनेसन्यास नहीं लिया .. कोई मानने को तैयार नहींयह परमात्मा की कृपा नहीं तो और क्या है! हरकी पौडी जाकर कपड़े उतार दिए यह ऊपरवाला बाबा का चिह्न ले लिया और नीचे वालाप्रेम जी महाराज का !! यह विधिवत सन्यासनहीं है !! और यहाँ की तो सब आपके सामनेहै।

कुछ गलत न सोचना । परमात्मा क्षमा करें, मेरेगुरूजन क्षमा करें आज अपने बारे में ऐसे हीमुख से निकल गया । आप भी क्षमा करें , सबक्षमा करें ।

भक्ति- अविनाशी सुख 1K

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

( SRS दिल्ली website pvrA003)

51:13 – 55

भगवान सर्वसमर्थ होते हुए भी कल्पतरु होते हुए भी करुणानिधान होते हुए भी वह कृपा जो वह बरसाना चाहता है, वह, वह कर नहीं सकता ।क्यों ? आपके अंदर जो इच्छा वाली जो पुकार वाली जो उँगली है जो प्रार्थना वाली उँगली है वह आपने अभी तक बढ़ाई ही नहीं। आपको छोटी मोटी इच्छा होती है तो वह बूंदा बाँदी कर के चला जाता है। लेकिन मूसलाधार वर्षा तभी होती है जब वह इच्छा जो है वह परमेश्वर के प्रति पुकार बनके जाती है। हृदय से ।

इतने वानर गए हुए हैं। यह कोई बात अटपटी नहीं कही जा रही। भगवान चाहते हैं हर साधक साधना करे। जानते हैं रावण कहाँ हैं। वानर सेना को कह रहे हैं पूर्व में जाओ, पश्चिम में जाए, दक्षिण में जाए उत्तर में जाए इधर जाओ उधर जाओ क्यों ? जानते हुए भी कि रावण का निवास दक्षिण में है । कह रहे हैं सब दिशाओं में जाओ । किसी को नहीं मिले । एक हनुमान जी महाराज को शान्ति की प्राप्ति हुई । शान्ति की खोज, भक्ति की खोज एक ही भक्त कर सका । और वह हैं हनुमान जी महाराज । अवश्य कोई गुण हैं न । क्यों ? प्रभु की कृपा उनपर बहुत है। किस लिए ? उन्हें प्रभु को पुकारना आता है। वे प्रभु के हृदय को द्रवित करना जानते हैं। वे ऐसी तकनीक जानते हैं जिससे प्रभु की आँखों में आँसु आ जाते हैं।

आज विभीषण भी आ गया है। कौन है विभीषण ? हमारी तरह जीव । रावण उसका बड़ा भाई मोह । ध्यान देना । प्रतीकात्मक शब्द हैं यह । पर बड़े मार्मिक। आज मोह ने क्या किया है? आज मोह ने छाती में टांग मारी है। हमारे साथ नित होता है। जिस के प्रति मोह – पुत्र के प्रति मोह, बड़ा ख़तरनाक मोह । पत्नी के प्रति मोह पति के प्रति मोह, इत्यादि इत्यादि , जिसके प्रति भी मोह होगा वह आपको टांग मारे बिना रह नहीं सकता । यह मोह का स्वभाव है। भगवान तुड़ाते हैं हम जोड़ते हैं। वह टांगें मरवाते हैं, धक्के मरवाते हैं, ध्यान देना, जिसके प्रति आप मोह ग्रस्त हो, क्या उससे नित अपमानित नहीं होते हो आप ? इसी को तो कहते हैं टांग मरवाना। लेकिन हम भी बाज नहीं आते । मोह से मार खाके, विभीषण जीव है, समझदार है, प्रभु राम की चरण शरण में आ गया है।

शरणागति। भगवान के पास भक्तजनों यह शब्द याद रखना। शरण । इस स्थान का नाम स्वामिजी महाराज ने शरणम् रखा है। शरण में आने के लिए । जानते हो क्या महानता है इस शरण में जाने की । एक उज्जवल उदाहरण आपकी सेवा में अभी रखी है विभीषण की। भगवान के पास यदि ज्ञानी जाता है तो उसकी परीक्षा लेते हैं। भगवान के पास कर्मयोगी जाता है तो उसकी भी परीक्षा लेते हैं। भगवान के पास जब भक्त जाता है तो उसकी भी परीक्षा लेते हैं। लेकिन भगवान के पास जब शरणागत जाता है तो वह कहता है – न मैं ज्ञानी हूँ न मैं कर्मयोगी हूँ न ही मैं भक्त हूँ। मैं शरणागत हूँ । मैं परीक्षा देने नहीं लेने आया हूँ। आपके हनुमान जैसे तुलसी जैसे भक्त ढिंढोरा पीटते हैं कि जो कोई आपकी शरण में आ जाता है आप उसे कभी ठुकराते नहीं। मैं तो यह परखने के लिए आपके पास आया हूँ।

एक उँगल परमेश्वर की कृपा की एक उँगल परमेश्वर की पुकार की, अंतकरण से भीतर से जब पुकार निकले, दोनों मिल जाएँ तो सब कुछ आपका।

भक्ति- अविनाशी सुख 1L

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

( SRS दिल्ली website pvrA003)

भक्ति- अविनाशी सुख 1L

44:14 – 51:13

राम कृपा के बिना राम प्रभुताई जानी नहीं जाती । राम कृपा के बिना उसकी कृपा हम पर नहीं होती । तो एक ही बात याद रखिएगा, एक ही स्रोत, एक ही source, याद रखिएगा, भगवदभक्ति का, भगवद् प्राप्ति का, प्रेम की प्राप्ति का और वह है भगवान की कृपा ।

कैसे मिले ?

संत महात्मा गाते हैं, भगवान कल्पतरु है। कल्पतरु और पाक् कल्पना का वृक्ष । उनसे जो माँगो वह मिलती है। एक छोटी सी कहानी । एक व्यक्ति थका माँदा, एक वृक्ष के नीचे लेट गया। मन में आया कि इस वक्त कुछ खाने को मिल जाए तो । क्या अच्छा । कल्पनतरु था । मानो हमारी हर कल्पना को पूर्ण करने वाला । स्वादु भोजन । बड़े सुंदर थाल में सजा हुआ उस व्यक्ति के सामने सदा हुआ आ गया खा लिया । पेट भरा और मन में आया कि यदि इस वक्त विश्राम का भी कोई साधन मिल जाए, चारपाई आ जाए, बिस्तर लग जाए तो आराम कर लूँ । चारपाई और बिस्तर लग गया । सोने लगा तो मन में विचार आया, निर्जन वन है उसी वक्त कोई भूत आ गया, मुझे खा लिया तो !

यही हाल हमारी है । संत महात्मा कल्पतरु से, परमेश्वर कल्पतरु से, कामनाएँ पूर्ण तो करते हैं, पर अंत क्या होता है कि भूत आता है और खा जाता है। जन्म इसी प्रकार से बीते जा रहे हैं। अब तक वह नहीं माँगा जो माँगना चाहिए । इसलिए दो दृष्टान्त, एक रामायणजी से और दूसरे श्रीमद्भागवत दी से। क्या चाहिए परमेश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए?

काकविशुण्डीजी महाराज बाल रामजी से अयोध्या में खेलने जाते हैं, राजा दशरथ के आँगन में । हर युग में जाते हैं। यह उनका नियम है। आज माँ कौशल्या में मालपूआ खाने को दिया । रोज़ दिया करते अपनी जूठन काकविशुण्डजी को खाने के लिए। आज जूठन नहीं दे रहे। परमात्मा नित्य हमारी कामनाओं को पूर्ण करता है, सोच विचार कर देखना भक्तजनों। उसके अतिरिक्त इस संसार में कोई ऐसा नहीं है जो हमारी कामनाओं को पूर्ण करता है। कभी किसी रूप में आकर करता है कभी किसी के रूप में। पति के रूप में बाप के रूप में आचार्य के रूप में आकर हमारी कामनाओं को पूर्ण करता है। आज काकविशुंण्डी जी की कामना पूर्ण नहीं हो रही इसलिए रामजी के प्रति संदेह आ गया । कैसी है यह? कहते हैं भगवान उदार है लेकिन कितना कंजूस है यह कि अपने मुख से झूठा मालपूआ मुझे नहीं दे रहा। यह राम है भी कि नहीं। हैं न हमारे से मिलती जुलती बात ! नित्य कामनाएँ। पूरी होती हैं तो भगवान । आज किसी कामना की पूर्ति में भगवान ने देरी कर दी तो संदेह मन में उठता है, यह राम है भी कि ऐसे ही है।

अविश्वास जीव को परमात्मा से दूर से जाता है। इसलिए काकविशुण्डी जी महाराज भगवान राम से दूर जा रहे हैं। आगे आगे काकविशुण्डी पीछे उनकी बाँह । बिल्कुल हमारे जैसे। पीछे मुड़ कर देखने का स्वभाव ही नहीं है हमारा कि मुड़ कर देख भी लें। गरुड जी को कथा सुना रहे हैं काकविशुण्डी । कोई ऐसा स्थान नहीं जो मैंने छोड़ा हो। जहाँ देखूँ भगवान की भुजा मेरे पीछे। गरुड जी कहते हैं कि फिर तो आपको पकड़ लिया होगा । काकविशुण्डी कहते हैं, न । मात्र दो अंगुल का अंतर रह गया। जब भी मैं देखता मात्र दो उंगल का अंतर रहा। यह दो उंगल का अंतर क्या है?

आज भगवान भक्त को पकड़ने जा रहे हैं, तो भी दो उंगल का अंतर । श्रीमद्भागवत में माँ यशोदा भगवान कृष्ण को बांधने जा रही है तो भी दो उंगल का अंतर । भगवान पकड़ में नहीं आ रहे । क्या है यह दो उंगल का अंतर । संत महात्मा कहते हैं, एक परमेश्वर की उंगल और एक जीव की अंगुल । उसकी कृपा के बिना कुछ सम्भव नहीं। लेकिन उसकी कृपा भी तब सम्भव है जब जीव भी अपनी अंगुल बढ़ाता है।

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