श्री स्वामीजी महारजश्री की साधना पद्धति 1f

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

( SRS दिल्ली website pvr10a)

श्री स्वामीजी महारजश्री की साधना पद्धति 1f

20-23 – 25:50

यह बात नाम की उपासना स्पष्ट करती रहती है कि एक घर कैसा होना चाहिए । एक बैंक का कर्मचारी बैंक में जब जाती है, हेड cashierया cashierहै, लाखों रुपये अपने हाथों से गिनती है रोज़, उसमें से पाँच रुपये निकाल कर अपनी देह में नहीं डाल सकता । एक महने बाद उसे तनख्ह मिलेगी वहीं अपनी जेब में डाल सकता है।यही बात भक्तजनों , जो attitude एक बैंक कर्मचारी का बैंक का है वही attitude factory में आए वैसा ही attitude घर में आ जाता है, वही सच्चा साधक है।

घर लौटते ही, मेरी पत्नी मेरा घर, मेरा घन मेरा यह मेरा वह, यह सब चीज़ें शुरू हो जाती हैं। बैंक में रह कर ऐसा क्यों नहीं करते? यदि ऐसा करके पैसा अपने जेब में डाल लोगे तो पुलिस पकड़ कर ले जाएगी आपको। आप बेईमान हैं। यदि घर में यह attitude है तो वहाँ बेईमान क्यों नहीं हैं। परमेश्वर की दृष्टि में तो बेईमान हो, इसीलिए अशान्त हो, शान्त नहीं हो। परमेश्वर की दृष्टि में हम बेईमान हैं। परमेश्वर की दृष्टि में जो ईमानदार बन जाता है जो यह सोच के तपस्या करती है साधना करता है सब कुछ मेरे राम का है मैं भी राम का हूँ वह ईमानदार साधक हैं वह तुरन्त शान्त हो जाता है।

घर में घूम रहे हैं हम। गृहस्थ हैं न । स्वामीजी की साधना एक गृहस्थ की साधना है ।

कैसे पता चले कि हमारी साधना ठीक चल रही है कि नहीं। यह साधना राम नाम की उपासना हमारे जीवन में हमारे व्यवहार में उतरनी चाहिए। यदि हमारा व्यवहार अभी सद्वयवहार नहीं बना तो समझ लीजिएगा कि साधना ठीक नहीं है। जपते हो राम राम राम करते हो यह ! अपने बच्चे मुख पर कहते हैं, जाते हो श्रीरामशरणम इतनी ताली बजाते हो नाचते हो गाते हो और घर में अपने बच्चों के साथ अपने पड़ोसियों के साथ इतना दुर्व्यवहार करते हो। अपने बच्चे ही यह बात मुख पर कह देते हैं। ठीक नहीं। न व्यक्ति ठीक है न घर ठीक है । जैसे कि चालिस पचास वर्ष पहले था, वैसे ही बरसते हो, फुँकारे मारते हो, वैसे ही ईर्ष्या बनी हुई है, वैसे ही द्वेष बना हुआ है, वैसे ही वैसा सब कुछ है तो मानो साधना ने रंग नहीं डाला । परस्पर सद्भावना हो जाए। हृदय में सबके लिए प्रेम जागृत हो जाए । स्वामीजी की साधना प्रेम प्रधान साधना है। भक्ति प्रधान साधना है, अर्थात् विशुद्ध प्रेम प्रधान साधना है।

क्या चिह्न हैं भक्तजनों इस प्रेम के । आइए एक छोटे से दृष्टान्त के माध्यम से इसे देखते हैं। आज एक नौकर है। बड़े सेठ का नौकर। निजी नौकर । विश्वसनीय नौकर । जिन्हें अंगरक्षकों जाता है वैसा नौकर । लोभ के कारण आज मन में बात आ गई कि अपने मालिक को मार देना है। हर वक्त अपने पास तलवार रखता है। अंगरक्षक सा है सेठ साहब का । रात्री का अंधकार है समय ढूँढ कर तलवार निकाली है सेठ जी को ढूँढने के लिए। जिसे परमेश्वर बचाने वाला है उसे कौन मारे। परमेश्वर जो चाहता है वहीं होता है न । अंत में साधना में यही निष्कर्ष पर पहुँचोगे कि जो परमात्मा करवाता है वहीं होता है। आज तो हम करते हैं न। अभी तो साधना आरम्भ करी है। साधना परिपक्व हो जाएगी उच्च शिखर पर पहुँच जाएगी, उच्चतम शिखर पर पहुँच जाएगी तब स्पष्ट पता लग जाएगा कि मैं मूर्ख था जो जिनंदगी भर समझता था कि मैं कुछ करने वाला हूँ। मैं कुछ करने वाला नहीं था । सब कुछ करने वाला मेरा राम ही है राम के अतिरिक्त और कोई कुछ नहीं कर सकता । यह कब बात आएगी? जब साधना की पराकाष्ठा पर पहुँच जाओगे तब । अभी नहीं । यह बुद्धि अभी यह बात स्वीकारने नहीं देती । बुद्धिजीवी हैं न हम। intellectuals. यह बात इतनी आसानी से घुसती नहीं है कि वह करने वाला है।

Contd.

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