Category Archives: ध्यान – प्रवचन पूज्य महाराजश्री

ध्यान 3 – शरणागत (c)

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी के मुखारविंद से

ध्यान 3 – शरणागत (c)

10:11- 13:48

एक संत मृत्यु शय्या पर हैं। पता है सबको ।शरीर छोड़ने वाले हैं। यह शरीर के नाते से, एक चाची मिलने के लिए आई है। चाची कहती है अपने किए हुए पाप कर्म जाने अनजाने हुए उनको कर्मों की क्षमा परमात्मा से माँगी कि नहीं माँगी । भतीजे को पूछते हैं। भतीजा संत है इस वक़्त। भतीजा तो उसके लिए होगा । यह तो देवियों शरीर के नाते हैं न। यह आत्म संबंध नहीं हैं। यह शरीर के संबंध हैं । नश्वर संबंध । संत चाची ले कहते हैं चाची , मुझे एक ज़िन्दगी में एक क्षमा नहीं जब परमात्मा के साथ मेरा मन मुटाव हुआ हो। उन्होंने कुछ कहा और मैंने न मानी हो । मुझे कोई ऐसा क्षण याद नहीं। ऐसा अवसर मुझे याद नहीं। मैं उसकी हाँ में हाँ मिलाता रहा। जैसे उसने मुझे नाच नचाया मैं नाचता रहा। क्षमा किस बात की माँगूँ ? क्षमा तो तब माँगू जब मैंने उनकी किसी इच्छा को पूर्ण न किया हो। जो उन्होंने किया जैसा उन्होंने मुझे उंगल पर नचाया मैं सारी ज़िन्दगी नाचता रहा। मुझे ऐसा अवसर याद नहीं जब उनमें और मुझमें मन मुटाव हुआ हो। क्षमा किस बात की? वैसे तो मैं क्षमा हर समय ही माँगता रहता हूँ पर कोई ऐसा अपराध मैंने विशेष किया हो मुझे याद नहीं है। शरणागति ।

परमात्मा की हाँ में हाँ मिलाना भक्ति और भक्ति की पराकाष्ठा है। चर्चा यहाँ समाप्त हुई थी । ऐसे शरणागत । आपकी सेवा में उदाहरण दी है कि शरणागत कैसा होता है। ऐसे शरणागत को परमात्मा उसके कर्मों के अनुसार नहीं चलाता । क्या रह गया ज़िन्दगी में ? मौज ही मौज है अब । आनन्द ही आनन्द है अब । कर्म तो ख़त्म हो गए भस्म हो गए । तुझे मैं सारे पापों से मुक्त कर दूँगा । यदि यही नष्ट हो गए ख़ाक. हो गए तो दुख कहाँ से आएगा । उसे मैं अपने अनुसार चलाता हूँ। अपना वाहन । परमात्मा को अपना काम चलाना है कि नहीं चलाना । किनके माध्यम से चलाता है वह ? ऐसे शरणागतों के माध्यम से। जिनको परमात्मा अपना स्वीकार कर लेता है । जो परमात्मा के हाथों पहले बिक जाते हैं और फिर परमात्मा उन्हें ख़रीद लेता है बस। उनको अपना वाहन बना लेता है। उनके माध्यम से परमात्मा करता है। उनको मैं उनके कर्मों के अनुसार नहीं अपने अनुसार चलाता हूँ ।

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ध्यान ( समर्पण ) 3 b

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

ध्यान ( समर्पण ) 3 b

5:32- 10:10

आज माधव के साथ अर्जुन कहीं घूमने के लिए निकले हुए हैं। भगवानश्री ने एक सफ़ेद कबूतर देखा और कहा देखो पार्थ कैसा काला कलूटा कौआ । हाँ माधव बहुत कुरूप है।काला कलूटा । देखने को मन नहीं करता । थोड़ी देर आगे गए, आगे वास्तव में एक काला कौआ देखा। माधव ने कहा देखो पार्थ कैसा चमकता हुआ सुंदर सफ़ेद कबूतर । पकड़ने को मन करता है। प्यार करने को मन करता है। गोदी में लेने को मन करता है।हाँ केश्व आप ठीक कह रहे हैं। भगवानश्री अर्जुन की इस प्रकार की प्रतिक्रिया को देखकर विस्मयपूर्वक अर्जुन से पूछते हैं। पार्थ ! एक बात बता , क्या तूने वास्तव में वहीं देखा जो मैं कह रहा था ? अर्जुन कहते हैं माधव ! आप जो कहते हैं वह स्वीकार करता हूँ । क्यों ? यदि वह नहीं है तो आप उसे बनाने में समर्थ हो । इसलिए बेहतर वही है उसी को स्वीकार कर लेना । शरणागति । इस तथ्य को अर्जुन समझ गया हुआ है। तभी उसे उच्चतम उपदेश उसे – सब धर्मों का त्याग करके पार्थ तू इक मेरी शरण में आ जा।मेरी ही शरण में आ जा । शर्त है। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा । करना क्या है ? हो गया सब कुछ । कर दिया सब कुछ । शोक मत कर । चिन्ता मत कर । मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा ।

भगवानश्री पम्पा सरोवर पहुँचे हैं। मानो वह area जहां शबरी माँ रहती हैं। स्नान करने के लिए जाना था , हाथ में प्रभु ने तीर पकड़ा हुआ था। सोचा कि पम्पा सरोवर में स्नान करना है वहाँ तीर क्या करना है धरती में उसे गाढ़ दिया । स्नान के बाद आकर उस तीर को निकाला । तीर की नोक पर आगे खून लगा हुआ था। लक्ष्मण यह खून किसका है? देख ! धरती में कौन है? मैंने को धरती में इसे गाढ़ा था । देख धरती में कौन है ? खून लगा हुआ है। मानो की कोई जीव है अंदर । देख । थोड़ी सी खुदाई की और देखा कि एक मेंढक लहु लुहान । बड़ी सुंदर देवियों और सज्जनों उदाहरण समर्पण की । शरणागति व समर्पण की सभी की सभी बातें ही बड़ी कमाल की बातें हैं। क्योंकि शरणागति है ही इतनी सुंदर समर्पण है ही इतना सुंदर ।

अरे मेंढक ! जब देखो हर समय चर चर करता रहता है । जब तुम्हें तीर लगा, जब पीड़ा हुई होगी बोला क्यों नहीं ? कहा – मालिकों के मालिक , जब जीवनदाता ही जीवन लेने जा रहा है तो फरिआद किससे ? सोचा , न सोचने की ज़रूरत है न मुख खोलने की ज़रूरत है । पहले कभी कष्ट होता था क्लेश होता था तो पुकारता था कि राम मेरी रक्षा करो । रक्षक करने वाला ही अब भक्षक बना हुआ है तो फ़रियाद किससे करूँ ? यह शरणागति है।

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ध्यान 3 (a)

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

ध्यान 3 (a)

1- 5:22

शरणागति की चर्चा चल रही है। समर्पण की चर्चा चल रही है। भक्ति की पराकाष्ठा की चर्चा चल रही है। इससे पहले कि जहां पीछे चर्चा छोड़ी थी वहाँ से आगे शुरू करें, शरणागति के बारे में एक दो अधिष्ठान के माध्यम से शुरू करने की चेष्टा करते हैं कि यह है क्या ? नाम तो हर एक ने सुना हुआ है । शरणागति भी सुना है, समर्पण भी सुना है। प्रत्येक कर्म समर्पित करती हूँ सब बातें सुनी हुई हैं। आख़िर एक साधारण साधक एक सामान्य साधक क्या समझें कि यह समर्पण क्या है, शरणागति क्या है? जहां अपनी इच्छा कोई न रहे वह शरणागति। सुनना बहुत आसान है, देवियों और सज्जनों। करके दिखाना बहुत कठिन है। भक्ति की पराकाष्ठा है। जहां अपनी चाह कोई न रहे। यह शरणागति यह समर्पण है। जहां अपना कर्तापन कर्तृत्व न रहे। वह शरणागति है। समर्पण है। तो फिर कौन करने वाला होगा ? भक्ति के मार्ग के शब्द हैं यह ज्ञान के मार्ग के शब्द नहीं। भक्ति के मार्ग पर कर्ता एक ही है – परमात्मा कहा जाता है। एक ही की इच्छा काम करती है जिसे परमात्मा कहा जाता है। अपनी इच्छा रोई नहीं तो बस एक ही की इच्छा रह जाती है जिसे परमात्मा की इच्छा कहा जाता है।यह शरणागति है। परमात्मा की इच्छा का वाहक बन जाता है।

परमात्मा अपनी इच्छा उसके माध्यम से पूरी करता है। उसकी सोच परमात्मा की सोच उसके शब्द परमात्मा के शब्द । उसकी करनी परमात्मा की करनी। lord works through Him. शरणागत। परमात्मा उसके माध्यम से सब कुछ करता है। जिसको वह अपना शरणागत स्वीकार कर लेता है, तो अपनी इच्छा का कोई स्थान नहीं है। करना तो है, जितनी जल्दी हो सके करो। अपनी इच्छा कोई न रहे अपना संकल्प कोई न रहे।एक ही इच्छा बाकि रह जाती है जिसे परमात्मा की इच्छा कहा जाता है।

समस्या मेरी माताओं यह है कि उसकी इच्छा का पता नहीं चलता। बड़ी भारी समस्या । पता नहीं आप लोगों के साथ यह है कि नहीं। लेकिन मेरे जैसे घटिया साधक के साथ तो यह बहुत भारी समस्या है। बोलता नहीं, सामने नहीं होता, प्रकट नहीं होता ।कैसे पता लगे कि यह क्या चाहता है। इसलिए आदमी भ्रमित ही अपना जीवन व्यतीत कर देता है। इस स्थिति तक पहुँच नहीं पाता क्योंकि अभी घटिया है। जैसे मैंने कहा अपने लिए मैं घटिया हूँ। परमात्मा कहते हैं कि यह संसार क्या है? संसार दिखाई देता है। फिर अभी भक्ति के मार्ग में पग नहीं रखा आपने। यह संसार संसार अभक्त को दिखाई देता है। भक्त को यह संसार संसार नहीं परमात्मा का साकार रूप दिखाई देता है। जो किसी के मुख से शब्द निकलता है तो मेरा समझ, वह समर्पण । इसी लिए बहुत कठिन काम है देवियों और सज्जनों । लेकिन यदि हो गया तो बस उसके बाद कुछ करने की ज़रूरत नहीं। सब कुछ अपने आप घटित होगा।

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ध्यान २(c)

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

ध्यान २(c)

14:00- 17:55

साधकजनों कल तो नहीं परसों राजा अश्वपति की चर्चा करेंगे । ब्रह्मज्ञानी हैं वे, आत्म साक्षात्कार उन्हें परमात्मा का साक्षात्कार हो चुका हुआ है।छांदोक्य उपनिषद में उनकी बहुत सुंदर कथा आती है।परसों करेंगे । कल तो जप शुरू होगा । कल तत्काल जप के बाद ध्यान में हम बैठ जाएँगे। बाकि दिन साधकजनों जैसे आज भक्ति प्रकाश का पाठ हुआ उसके बाद हमें ध्यान के लिए बैठना था। जिस दिन ध्यान के लिए बैठेंगे उस दिन ध्यान के बाद जो भी अमृतवाणी का नेतृत्व कर रहे हैं, जैसे ही समय होगा सर्वशक्तिमते परमात्मने श्री रामाय नम: का पाठ शुरू कर देंगे तो कार्यक्रम के सत्संग की समाप्ति हो जाएगी । मैं दूसरी बार राम नहीं बोलूँगा । जो सत्संग का नेतृत्व कर रहे हैं वे समय से समाप्ति करेंगे तो हमें पता चल जाएगा कि समाप्ति हो गई है ।

समय हो गया है यहीं समाप्त करने की इजाज़त दे दीजिएगा । आप ज़रूर कोशिश कर रहे होंगे कल से । बहुत लम्बी यात्रा है देवियों और सज्जनों । जप को तो हम बहुत seriously नहीं लेते। सो जप में हम बातें भी करते रहते हैं। टीवी भी देखते रहते हैं। इधर भी देखते हैं, उधर भी देखते हैं, इनसे भी बात सुनते हैं इनको भी देखते हैं कि क्या हो रहा है। सब पता रहता है। काश ! हमने जप को महत्व दिया होता । तो हमारे लिए ध्यान बहुत आसान हो जाता ।

जप के वक्त जब आप अपनी खिड़की दरवाज़े बंद करके रखते हैं, तो फिर ध्यान में अपने खिड़की दरवाज़े बंद करने में आपको कठिनाई महसूस नहीं होगी । अन्यथा ध्यान में बहुत कठिनाई आती है। कठिनाइयाँ आएंगी तो पता चलेगा कि कितना जटिल मार्ग है कितना कठिन मार्ग है। कितनी गलतियां हम करते रहे हैं और कितनी गलतियां हम करते जा रहे हैं । अभी भी गलतियां बंद नहीं हुई ।

शुभ कामनाएँ साधकजनों ! अपेक्षा रखता हूँ । कोई न कोई साधक तो अपनी सही समस्या लेकर मेरे सामने आएगा । अठारह साल हो गए हैं साधक जनों किसी एक व्यक्ति ने आज तक , लाखों की संख्या में साधक हो गए हैं, किसी एक व्यक्ति ने आज तक अपनी ध्यान की समस्या मेरे साथ discuss नहीं की। आँखें बिछाए बैठा हूँ । कोई को आके सही समस्या मेरे साथ आके discuss करे। चालिस लाख का loan हो गया है, एक करोड़ का loan हो गया है, मैं क्या करूँ उसमें? परमात्मा क्या करेंगे उसमें? ऐसी समस्याओं का क्या किया जाए । waste of time. जिस समस्याओं के लिए सुलझाने के लिए यहाँ आते हैं, वे समस्याएं तो वैसे की वैसी ही बनी हुई हैं। उनको सुलझाने का कोई प्रयत्न ही नहीं है किसी का।

शुभ कामनाएँ देवियों और सज्जनों मंगल कामनाएँ । परमेश्वर की कृपा मेरे गुरूजनों की अपार कृपा सदा सदा सब पर बने रहें

ध्यान २(c)

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

ध्यान २(c)

11:00 – 14:00

जैसे ही परमात्मा के साथ यह संस्पर्श प्राप्त होता है आप तत्काल वहीं बन जाते हो। आपके सामने वह सारे के सारे भेद अपने आप ही खुलने लग जाते हैं। सारी की सारी पर्ती जो हैं वह उखड़ने लग जाती हैं। उतर जाती हैं।

ज्योति ज्योति में समा जाती है। ज्योति ज्योति से मिल जाती है। आत्मा परमात्मा से मिल जाती है। दोनों आत्माओं का मिलन हो जाता है। एक हो जाते हैं। अद्वैत हो जाता है। दो शून्य मिल गए। मानो यह शून्य शब्द जो आपके सामने प्रयोग किया जा रहा है यह बहुत महत्वपूर्णहै। आप सब ध्यान में बैठते हो मुझे कोई संदेह नहीं है जितने भी थोड़े बहुत बैठते हो।कोशिश करते हो हमें यह शून्य अवस्था लाभ हो। यहाँ साधकजनों हमारा मार्ग दो में विभाजित हो जाता है। एक तो शून्य ही ।

आप जप कर रहे हैं, ध्यान में जप बाधा नहीं है यदि सही ढंग से किया जाए ।सिर्फ़ जप आपका हो रहा है, सिर्फ़ जप, संसारिक विचार कोई नहीं है तो वह जप आपको बहुत सहायता देता है।ऐसा जप शून्य ही कहा जाता है। शून्य अवस्था ही कहा जाता है, क्यों ? भौतिक विचारों से रहित है। शून्य अर्थात् भौतिक विचारों से रहित । साधक जनों पहले यह अवस्था प्राप्त कीजिएगा ।

उसके बाद समय आता है, जब व्यक्ति गहन और जाता है, जब और उसे शान्ति और आनन्द का अनुभव होने लगता है फिर अपने आप जप भी बंद हो जाता है। यह अपने आप करना नहीं। क्योंकि आज आपको बताया जा रहा है इसलिए हम जप बंद कर देते हैं, यह ठीक नहीं है। इसे अपने आप बंद होना चाहिए । अपने आप बंद होने पर यह दूसरी शून्य अवस्था आपको लाभ होने जा रही है, महाशून्य अवस्था आपको लाभ होने जा रही है। जो परमात्मा की है जब वहीं आपकी होगी को ही परमात्मा से आपका मिलन होगा । दो शून्य एक हो जाते हैं। अध्यात्म में, ध्यान में दो शून्य मिल कर एक हो जाते हैं। ऐसी को ही ब्रहमज्ञानी कहा जाता है, ऐसे को ही ब्रह्मवेता कहा जाता है।

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ध्यान २(b)

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

ध्यान २(b)

6:52- 11:00

हम सम्बंधित सब रामजी से हैं। यह सत्य है साधकजनों ।जब तक इस सत्य की अनुभूति नहीं होती तब तक दुविधाएँ बनी रहेंगी ।,कहाँ जा रहे हैं? वृंदावन। बाँके बिहारी जी के दर्शन करने के लिए।लेकिन यदि यह बात हो जाए साधक जनों, मानो राम और बाँके बिहारी जी दो नहीं हैं। जब तक यह बात हृदयंगम नहीं हो जाती, नहीं, मैं राम जी के बाँके बिहारी जी के रूप के दर्शन करने जा रहा हूँ । तो बस । सत्य तक पहुँचने में बिल्कुल देरी नहीं । जाइए हनुमान जी के मंदिर में जाइए माँ वैष्णव देवी की यात्रा करने के लिए, कहीं भी जाइएगा । तब कुछ नहीं । लेकिन यह बात जब तक आपको स्पष्ट नहीं होती । यह सब बातें देवियों और सज्जनों स्पष्ट होती हैं, व्यक्ति को गहन ध्यान में। यह सत्य है । और सत्य जो है वह बहुत deep seated है। वह ऊपर ऊपरी नहीं है। its not superficial. जैसे ही आप ध्यान अवस्था में भीतर ही भीतर deep deep deep जाते हैं, तो वह सत्य खुलता जाता है। परमात्मा अपने भेद खोलता जाता है। भक्त को खोलता है। हर एक को नहीं। हर एक को वह अपने भेद नहीं देता । जो close संबंधी हो जाता है वह उसे अपना भेद देता है।

आज आपकी सेवा में बहुत भेद की बात कही जा रही है। इससे देवियों और सज्जनों बहुत सारी दुविधाएँ आपकी मिट जाएँगी । द्वैत मिट जाएगा । द्वैत बिल्कुल ख़त्म हो जाएगा । infact यह द्वैत नहीं है। हम तो बहुत सारों को मानते हैं। द्वैत तो दो का होता है। हम तो अतीव हैं। कोई ऐसा नहीं जिसको हम नहीं मानते । हम शनि महाराज की भी उपासना करते हैं। नव ग्रह की भी उपासना करते हैं। हम इसकी भी आरती करते हैं, उसकी भी आरती करते हैं। सिर्फ़ भय के कारण यदि इनका ऐसा न किया तो कहीं हमारा अनिष्ट न हो जाए । इसे भय भक्ति कहा जाता है। यह भक्ति भक्ति नहीं है। मन में यह विचार हो तो इससे जिसके लिए आप कर रहे हो वह भी प्रसन्न होता है, अन्यथा वह हमारी अज्ञानता पर हमारे अधूरेपन पर हंस देता है। देवी देवताओं की पूजा करने वाले अविधि से मुझे पूजते हैं। विधि पूर्वक नहीं कहा, अविधि से मुझे पूजते हैं। मानो उन्हें अभी बोध नहीं है जो हमारी सेवा में कहा जा रहा है। हम तो एक राम के उपासक हैं, बाकि तो सब उनके रूप हैं। यह सत्य है, यह परम सत्य है। इसको आज मानिएगा, कल मानिएगा अगले जन्म में मानिएगा उसके बाद जन्म में मानिएगा । यह आपको मानना ही पड़ेगा ।

यह सब बातें स्पष्ट होंगी जिस वक्त आप आँख बंद किए हुए हैं। आप तृकुटि स्थान को देख रहे हैं। आपको परमात्मा का संस्पर्श मिलना शुरू हो जाता है। सानिध्य सामीप्य फिर संस्पर्श । मानो आप महसूस करने लग जाते हो कि परमात्मा का स्पर्श मुझे मिल रहा है। स्संपर्श उसे कहा जाता है। बस यहीं से यात्रा का शुभारंभ होता है। यहीं से भेद खुलने शुरू हो जाते हैं। इससे पहले मत अपेक्षा रखिएगा। प्रतीक्षा कीजिएगा बेशक । किन्तु अपेक्षित रखिएगा। लोहा चुम्बक के साथ छुएगा तो चुम्बक बनेगा । दूर रहने से जितनी दूरी है वह लोहा लोहा ही रहेगा । चुम्बक नहीं बन सकता । अतैव यह संस्पर्श बहुत सुंदर शब्द है।

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ध्यान २ (a)

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

ध्यान २ (a)

1:00-6:52

ध्यान के steps फिर से सुनिएगा। चौकड़ी मार कर बैठिएगा। परमेश्वर को अपने अंग संग मान कर बैठिएगा। झुक कर प्रणाम कीजिएगा। बहुत झुक कर प्रणाम करना।परमेश्वर के श्रीमुख वाक्य हैं, जितना मेरे आगे झुकोगे, उतना मेरे से पाओगे। शरीर से तो कुछ सीमा तक ही झुका जा सकता है, लेकिन मन से तो कोई सीमा नहीं है। मन से झुकना सीखिए। हृदय से झुकना सीखिए।परमात्मा को ऊपरी ऊपरी बातें बिल्कुल पसंद नहीं हैं।बहुत झुक कर प्रणाम कीजिए। आशीर्वाद परमात्मा के लीजिए। सीधे होके बैठ जाइए।

सीधे होकर कैसे बैठना है? जैसे चौकड़ी लगाई है, अपने हाथों को बेशक ऐसे रखिए, ऐसे रखिए कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता । फ़र्क़ इस बात का पड़ता है महत्वपूर्ण बात यह है, जितनी देर ध्यान के लिए बैठना है, बिल्कुल निश्चल बैठना है। बिना हिले जुले बैठना है। 10min बैठिए, 15 min बैठिए, जहां हिलना जुलना हो जाता है वहाँ ध्यान, ध्यान नहीं रहता।That is no more meditation. वह जप हो जाता है, या जो मर्ज़ी कहिए। लेकिन ध्यान में निश्चल बैठना होता है। इसीलिए ध्यान की अवधि थोड़े समय के लिए रखो। शुरू शुरू में दस पंद्रह मिनट । जितने में आनन्द आए। जितने में मज़ा आए। उतना समय रखो। बहुत कसरत करने की ज़रूरत नहीं। परमात्मा कसरत से नहीं मिलते परमात्मा प्रेम से मिलते हैं।जितनी देर तक आनन्द परमात्मा को दे सको, दो। उनसे आनन्द ले सको लो। यह दोनों आनन्द लेने और देने की चीज़ है ध्यान। ध्यान का समय ।

आपने झुक कर आशीर्वाद ले लिए। ऐसे बैठ गए। आँख बंद कर ली। स्वामीजी महाराज फर्माते हैं, दो आँखों के बीच यह त्रीकुटी स्थान बिंदी वाली जगह आज्ञा चक्र भगवान शिव का तीसरा नेत्र आप सब का तीसरा नेत्र भी यही है। आँख बंद करके इस जगह को देखिएगा। focus your gaze at this point. हिंदी को नहीं देखना , बिंदी वाली जगह को देखना है।यह बाह्य संकेत है। जो कुछ भी परमेश्वर आपको दिखाएँगे वह सब कुछ इसके पीछे है। यह बाह्य संकेत है।

कुंडलिनि शक्ति ऊपर आती है, नीचे से आती है, फिर मुड़ती है और फिर सीधी होती है। देखने में रूट सीधा है पर बहुत लम्बा है। जब तक साधक जनों कुण्डलिनी यहाँ से हिलती नहीं है, तब तक आदमी किसी समय भी पतन को प्राप्त हो सकता है। हम लोग अधिकांश यहीं टिके हुए हैं। इसलिए रोज़ गिरना होता है, रोज़ उठना होता है। किसी दिन ध्यान अच्छा लग जाता है किसी दिन ज़ोर लगाने पर भी नहीं लगता। एक सप्ताह जल्दी जल्दी उठना हो जाता है और फिर कितने दिन ऐसे हो जाते हैं कि आँख ही नहीं खुलती।यह सब इन्हीं कारणों से । जब तक कुण्डलीनी यहाँ से move नहीं करती, कहते हैं गुरूकृपा से आती है, जब तक यहाँ ऊपर नहीं आ जाती तब तक पतन का डर बना रहता है।

कल आप से यह भी अर्ज़ की जा रही थी कि इस स्थान पर क्या देखना है? स्वामीजी महाराज दीक्षा देते समय इतना ही कहते हैं, इस स्थान को देखिएगा। कुछ वर्षों के बाद श्रीअधिष्ठानजी देते हैं, इसका अर्थ यह है कि शब्द पर देखिएगा। राम शब्द पर देखिएगा या जो भी कोई आपके ईष्ट हैं उन्हें देखिएगा। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता साधक जनों। हमने राम को ही देखना है। चाहे उन्हें कृष्ण रूप में देखिए यह बात बहुत पल्ले बाँध लो, समझने की बात है साधकजनों यहाँ तक पहुँचना होगा ।हमने यहाँ किनको देखना है? राम को देखना है, निराकार । कौन राम? निराकार राम को देखना है। आप उन्हें धनुषधारी राम के रूप में देखिए आप उन्हें बाँके बिहारी के रूप में देखिए उन्हें शिव पार्वती के रूप में देखिए, माँ लक्ष्मी के रूप में देखिए, माँ सरस्वती के रूप में देखिए माँ काली के रूप में देखिए जगद्गुरु भगवान के रूप में देखिए हनुमान जी के रूप में देखिए, मानो जो भी आपको प्रिय स्वरूप लगता है आप उस स्वरूप में देखिएगा । मत भूलिएगा कि यह कौन हैं? राम जी के रूप ।

ध्यान 2

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

ध्यान 2

करें जी झुक के प्रणाम परमेश्वर को । जिनके पास जगह है वे अपने मस्तक को धरती पर रखके परमात्मा के श्रीचरणों पर रखके सीधे होकर बैठें । पीठ सीधी रखें ।गर्दन सीधी आँख बंद करें। सब आँख बंद रखें जी। देखें बिंदी वाली जगह को।तृकुटी स्थान को देखें और देखते रहें। भीतर ही भीतर प्रीयतम परमात्मा के याद करें। जल्दी जल्दी राम राम पुकारें अथवा लम्बा करके राम पुकारें। जो मीठा लगे वैसा बोलें। दोनों मीठे लगें दोनों ढंगों से बोलें। ध्यान का समय परमेश्वर के सतत स्मरण का समय । for His constant remembrance. संसार का विस्मरण का समय । forget about the world. क्या हुआ मेरे साथ भूल जाइएगा। क्या मैंने किसी के साथ कुछ किया, भूल जाइएगा। कोई भलाई करी है उसे भूल जाइए, किसी ने कोई बुराई की है उसे भूल जाइए । इसी कारण से ध्यान का समय बहुत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर को सतत याद करने का समय और संसार के साथ जो कुछ हुआ है, उसे भुलाने का समय । संसार जितना याद आएगा उतना दुख देगा । परमात्मा जितना याद आएगा उतना सुख देगा, शान्ति देगा परमानन्द देगा।

भूल जाइएगा कि आप ब्राह्मण हैं या क्षत्रिय । भूल जाइएगा कि आप डॉक्टर हैं या इंजीनियर, भूल जाइएगा कि आप उच्च अधिकारी हैं या एक तुच्छ कर्मचारी । भूल जाइएगा कि आप अमीर हैं या गरीब । भूल जाइएगा कि आप पापी हैं या पुण्य आत्मा , स्त्री हैं या पुरुष । इस वक्त आप उस चैतन्य के अंश चैतन्य हैं। अपने सत्स्वरूप को वास्तविक स्वरूप को, अपने आत्मिक स्वरूप को, प्रकट करने का समय । मैं नश्वर देह नहीं हूँ । फिर क्या हैं आप ? मैं नित्य शुद्ध प्रबुद्ध, मैं नित्य शुद्ध प्रबुद्ध, मुक्त चैतन्य आनन्दस्वरूप आत्म हूँ । मैं अविनाशी परमात्मा का अविनाशी अंश हूँ, अजर हूँ अमर हूँ । देह को क्लेश कष्ट हो सकते हैं मुझे नहीं। देह को दुख हो सकता है, मुझे नहीं। देह को रोग हो सकता है, मुझे नहीं। अपने वास्तविक स्वरूप को प्रकट करने का समय । अपने सत्सवरूप को प्रकट करने का समय । परमेश्वर के साथ मेरा क्या संबंध है, इसे खोजने का समय। संसार के साथ मेरा क्या संबंध है इसे ढूँढने का समय । मैं क्या हूँ, मैं कौन हूँ इसे जानने का समय ।

ध्यान ।

निर्विचार हूजिए। निर्विचार मतलब कोई संसारी विचार न आए । ऐसा समय यह है, जब परमेश्वर आपको बोध दिलाएगा who are you? Who am I? मैं कौन हूँ? परमात्मा कौन है? मेरा परस्पर संबंध क्या है? संसार क्या है। यह सब बातें किसी पुस्तक से ढूँढने की आवश्यकता नहीं । यदि आपकी ध्यान अवस्था इस प्रकार की है, यह समय देवियों और सज्जनों जिस वक्त एक मिनट का गहन ध्यान आपके कई जन्मों के पाप संस्कारों को जलाते राख कर देता है। जैसे एक अणु बम्ब एटम बम्ब व्यापक विध्वंस कर देता है, wide deatruction. ठीक इसी प्रकार से एक मिनट का गहन ध्यान हमारे जन्म जन्मांतर के कुसंस्कारों को जला कर राख कर देता है, इतना महत्वपूर्ण है यह ध्यान एवं ध्यान का समय ।

बैठे रहिएगा ऐसे। निर्विचार होके। शाबाश ! सोच के सब खिड़की द्वार बंद कर दीजिए। जब तक बैठक की समाप्ति नहीं होती ऐसे ही बैठे रहिए।

राऽऽऽऽऽऽऽम राम राम राम राऽऽऽऽम

ध्यान १a (b)

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

ध्यान १a (b)

6.46 min – 13:22

एक young couple आया । मैं नहीं पहचान सका उन्हें। उनकी बीवी कहती हैं। पति पास ही खड़े हैं चुप । पत्नि कहती हैं मेरी मम्मी की surgery हुई ठीक हो गई । अब वो आगे से ठीक हैं। मैंने अर्ज़ की परमेश्वर कृपा देवी, बहुत अच्छी बात है। आगे से कहती है, पर अभी कमजोरी बहुत है। मैंने कहा देवी, रोग के बाद कमजोरी होती ही है, ठीक हो जाएगी। मैं गर्भवती हूँ । मैंने कहा बहुत बहुत बधाई । ज़ाप पाठ बेटा करते रहना। मेरी बहन की अभी तक engagement नहीं हुई । बेटा, यह सब बातें निश्चित हैं। आप अपना पुरुषार्थ जारी रखो और प्रतीक्षा करो। अंतिम बात थी, मेरे पति की बहन की भी शादी अभी नहीं हुई ।

तब मैंने उस देवी ने कहा यह अपनी समस्याएं लिखवाने का register नहीं है श्रीरामशरणम । यह भक्ति करने का स्थान है। यहाँ आके परमेश्वर को याद करो। और संसार को भुलाओ। स्वामीजी महाराज की ओर से लिखा, स्वामीजी महाराज का फ़रमान है, बिन भक्ति शान्ति नहीं । इसलिए

अनन्य सुभक्ति राम दे

परमेश्वर के दरबार से अनन्य भक्ति माँगा कीजिए।

यह चिट्ठी उनको मिल गई, तो उस देवी ने उत्तर भेजा, बहुत सुंदर लगा, पढ़ी लिखी लगती हैं, शुद्ध हिन्दी, थोड़ी थोड़ी english mix में पत्र लिखा था। लिखा था बात समझ में आ गई ।

ध्यान का फल क्या है देवियों और सज्जनों ? जो वास्तविकता है वह समझ में आ जाए। तो यह ध्यान का फल है। यह ध्यान में ही आएगी । वह महिला भाग्यवान है, उसे पत्र लिखने से ही, पत्र पढ़ने से ही बात समझ में आ गई। बिन भक्ति के शान्ति नहीं है। यह उन्होंने मुझे शब्द लिखे, यह उनका पत्र मुझे आया। पोस्ट । बात समझ में आ गई । बिन भक्ति शान्ति नहीं मिलती । समस्याएं यदि हल भी हो जाएँ तो भी क्या शान्ति मिल जाती है? यह प्रश्न पूछा है। आगे स्वयं ही उतर दिया, न जाने आज तक कितनी ही समस्याएं ज़िंदगी में आई और कितनी ही समस्याएं ज़िंदगी की सुलझ गई लेकिन शान्ति तो अभी तक भी नहीं मिली । मैं आगे से ध्यान रखूँगा । श्रीरामशरणम जाऊँ, स्वयं भी शान्ति प्राप्त करूँ भक्ति करूँ औरों को भी सूचित करूँ कि एक स्थान जहां बैठ के शान्ति मिलती है।

देवियों और सज्जनों ! बहुत सुंदर पत्र उनका लगा, इसलिए आप सबके सेवा में अर्ज़ कर दी। भक्ति से, यदि आप कहो कि श्रीरामशरणम आने से हमारी भौतिक और परमार्थिक समस्याएं सुलझी हैं, तो मैं आपजी को स्पष्ट करता हूँ कि यह भक्ति का प्रताप है। यहाँ आके जो शान्त मना आप थोड़े समय के लिए बैठते हैं, जो आपको ऊर्जा आपके अंदर अर्जित होती है, संचित होती है, उससे भौतिक समस्याएं सब प्रकार की समस्याएं सुलझती जाती हैं। आप परमात्मा के कृपा के पात्र बनते जाते हैं। समस्या न भी सुलझे तो आपको भक्ति बहुत बल देती है, आपको बहुत सहनशील बना देती है। आपको मुख बंद रखने की हिम्मत और अपनी सोच के द्वार बंद करने की हिम्मत देती है। भक्ति ।

रााााााााााााम

इस ध्वनि पर एकाग्र कीजिए अपने मन को। भीतर गूंजती हुई सुनिए एकाग्र कीजिएगा अपने मन को इस ध्वनि पर ।

ध्यान १a

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

ध्यान १a

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करें जी आँख बंद। बैठ जाएँ सीधे होके।पीठ सीधी करें जी, रीढ़ की हड्डी बिल्कुल सीधी रहे ।देखते रहें त्रीकुटी स्थान को। बहुत प्यार से देखें। don’t strain. कभी कभी खुली आँख भी इस जगह को देखते रहा कीजिए। बहुत मीठी बहुत महत्वपूर्ण जगह है यह आज्ञाचक्र । ईंड़ा पिंगला एवं सुषमणा नाड़ी तीनों यहाँ मिलती है। बहुत महत्वपूर्ण स्थान है यह।

अनन्य सुभक्ति राम दे पराप्रीति कर दान

अविचल निश्चय दे मुझे अपने पथ का ज्ञान

लक्ष्य रखिए ध्यान का- अनन्य सुभक्ति राम दे। यह सब कुछ कैसे होगा।जब कुछ करना नहीं तो हाथ हिले क्यों? जब कहीं जाना नहीं तो पाँव हिले क्यों ? जब राम राम के अतिरिक्त कुछ बोलना नहीं तो जिह्वा हिले क्यों ? जब त्रिकुटि स्थान जब परमेश्वर के अलावा कुछ देखना नहीं हूँ तो आँख खुले क्यों ? कुछ माँग नहीं है तो मन में संकल्प उठे क्यूँ ? मन निर्विचार क्यों न हो? शरीर का मौन मन का मौन एवं हृदय का मौन, ध्यान इन तीनों को माँगता है । इन तीनों का समन्वय है ध्यान। इन तीनों से बाहर से ऊर्जा हमारी संचित होती है।वह सारी की सारी ऊर्जा ध्यान लगाने में उपयोग होनी चाहिए। ये कमज़ोर व्यक्तियों का खेल नहीं है। शूरवीरों का है। अध्यात्म शूर वीरों का खेल ऊर्जावान full of energy वालों का खेल है। जिन्हें अपने ऊर्जा को बचाना आता है वही इस खेल के खिलाड़ी हो सकेंगे। अन्यथा गिरते रहेंगे टूटते रहेंगे फूटते रहेंगे।लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाएंगे।

इस संदर्भ में देवियों और सज्जनो एक पत्र कुछ दिन पहले एक देवी को लिखा था। उनका पत्र तो नहीं आया था। पत्र उनके इस कथन पर लिखा था, कोई समस्याएं थीं उनकी, सुनाने के लिए आईं जाते हुए ये कह गई हमारे जैसों की सुनवाई नहीं होती। पता नहीं था कालरा साहब के माध्यम से ही एक छोटी सी स्लिप लिख कर भेजी। देवी कुछ एक स्पष्टीकरण है, यह स्थान जिससे श्री रामशरणम कहा जाता है यह मंदिर है, मंदिर में परमात्मा की भक्ति की जाती है, परमात्मा को याद किया जाता है, और संसार को भुलाया जाता है। संसार अर्थात अपना शरीर, अपने शरीर की समस्याएं, अपनी शरीर के रोग, अपने संबंधियों की समस्याएं एवं रोग का विस्मरण, जहाँ होता है, मंदिर है वह हैं श्री रामशरणम् । यह सुनवाई का केंद्र नहीं है, कोई कचहरी नहीं है FIR दर्ज कराने के लिए पुलिस स्टेशन नहीं है, शिकायतें रजिस्टर करने के लिए ये रजिस्टर नहीं है।

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