Category Archives: ध्यान – प्रवचन पूज्य महाराजश्री

ध्यान १ (b)

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

ध्यान १ (b)

6:47- 13:30

हम हाथ से कम करते हैं, मन से ज़्यादा करते हैं, हृदय से ज़्यादा करते हैं। इसलिए इस पूजा में चिन्तन की प्रधानता है, जप की प्रधानता है, ध्यान की प्रधानता है, शारीरिक क्रियाओं की प्रधानता यूँ कहो बहुत कम। माला फिर रही है, उसमें उँगलियाँ चल तो रही हैं, लेकिन इस जप के साथ यदि मन नहीं जुड़ा हुआ तो यह बिल्कुल टेप रिकॉर्डर की तरह ही है। यह बिल्कुल यांत्रिक है। इसका महत्व कितना होगा वह परमात्मा जाने।

तो आज सर्वप्रथम इतनी समझ हमें आई कि स्वामीजी महाराज की पूजा, उपासना पद्धति मानसिक उपासना है। तो इसमें क्या करना होता है? इसमें आपके भाव किस प्रकार के होने चाहिए। मानसिक अर्थात् काल्पनिक । काल्पनिक जैसे, इस समय आप अपने कक्षों बैठे हुए हैं, घर पर, वहाँ आपने प्रवेश किया। अधिष्ठान जी के आगे जो पर्दा लगा हुआ था उसे हटाया, या द्वार बंद था तो उसे खोला, और आपने मथेगा टेका। मत्था टेक के तो आप बैठ जाते हैं, अगरबत्ती धूप वहाँ पड़ी हुई होती है उसे सबसे पहले वहाँ जलाते हैं। तनिक सोचो देवियों और सज्जनों पहले जोत जलाएँगे या फिर धूप जलाएँगे या अगरबत्ती जैसा भी आपका क्रम हो। कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता । वहाँ बैठकर आपने धूप या अगरबत्ती को जलाया है। what for? यह सोचने का विषय है। यह किस लिए जला रहे हो? क्या परमात्मा को सुगंधित करना चाहते हो ? परमात्मा को आप इसकी सुगंध देना चाहते हो? उसे क्या आवश्यकता है इस सुगंध की? देवियों और सज्जनों। इतिहास साक्षी है जहां परमात्मा का प्रकटन होता है जहां परमात्मा की उपस्थिति होती है, सबसे पहले वातावरण सुगंधित हो जाता है। यह उनके आने का चिह्न यह उनके प्रकट होने का चिह्न । यह उनकी उपस्थिति का चिह्न । स्पष्ट है, कमरे में उनकी उपस्थिति नहीं है, तो आप सुगंध जला के तो आप ऐसी कल्पना कर रहे हैं, कि परमात्मा यहाँ उपस्थित अब हैं। तो अगरबत्ती किस लिए जलाई ? ताकि वातावरण सुगंधित हो जाए परमात्मा की उपस्थिति का हमें बोध हो। आपने दीप जलाया इत्यादि इत्यादि सब किया ।

हमें अगरबत्ती की सुगंध क्या समझाती है? धूप की सुगंध क्या समझाती है? आपके रोकने पर भी धूप का धुआँ धूप की सुगंध अगरबत्ती की सुगंध, जहां आप नहीं भी बैठे हुए हैं, वह वहाँ भी पहुंच जाएगी । बाहर भी निकल जाएगी बाहर के लोगों को पता लग जाएगा कि मम्मी ने धूप जला दिया है अगरबत्ती जला दी है, मानो , परमेश्वर की सर्वव्यापकता का बोध दिलाए धूप या अगरबत्ती का जलाना तो, सार्थक । अन्यथा यांत्रिक । अब आप बैठे हैं उस जगह पर जहां सर्व व्यापक परमात्मा विराजमान है। क्यों ? सुगंध का वातावरण है। और जहां सुगंध होती है, वहाँ ऐसा माना जाता है कि वहाँ परमात्मा विराजमान है। तो आपको परमात्मा की उपस्थिति का बोध हो रहा है, अनुभूति हो रही है, अब आगे की पूजा आरम्भ होती है।

तो आज इतना ही। बरहाल हमें पक्का पता लग गया, हमारी उपासना पद्धति पूजा पद्धति मानसिक है। वस्तु प्रधान नहीं है। यदि हम वस्तु का प्रयोग करते हैं तो मानसिक की तैयारी के लिए ।

रााााााााााााम

ध्यान १

परम पूज्यश्री डॉ विश्वामित्र जी महारजश्री के मुखारविंद से

ध्यान १

1-6:47 min

करो परमेश्वर को प्रणाम और बैठ जाओ सीधे होके। आँख बंद करें और देखें त्रिकुटी स्थान को। ध्यान अवस्था में बैठिएगा । ध्यान के steps फिर याद दिलाता हूँ ।

परमेश्वर को अपने अंग संग मानते, झुक के प्रणाम करके सीधे होकर बैठ के, आँख बंद करके त्रिकुटी स्थान को देखते हुए भीतर ही भीतर अर्थात् मन ही मन अपने प्रीयतम परमात्मा को पुकारना ध्यान कहाता है। हम पुकारने से शुरू करते हैं, उच्चारण से शुरू फिर पुकारना फिर स्मरण, याद करना । इस क्रम को बनाए रखिएगा । इसी को follow कीजिएगा । परमेश्वर कृपा से लाभ होगा ।

हम सब यहाँ परमात्मा के पुजारी बैठे हैं। हमारी पूजा और पूजाओं से भिन्न हैं, जिन पूजाओं से हम परिचित हैं उन पूजाओं से हमारी पूजा भिन्न है। स्वामीजी महाराज फर्माते हैं

परमात्मा को पूजिए घट में धर कर राम

मन को मंदिर मानिए जो हर परम महान

कभी न भूलने वाला दोहा । इसमें स्वामीजी महाराज ने अपनी पूजा पद्धति समझाई । घट घड़ी को कहते हैं, शरीर को भी घट कहते हैं। शरीर का ऊपरी भाग देखें तो यह उल्टा घट है। घड़ी जो उल्टा रखा गया है इसका मुख नीचे की ओर है बाकि का भाग ऊपर की ओर । यह सिर हमारा घट है। परमात्मा को पूजिए घट में धर कर ध्यान । स्वामीजी महाराज पूजा की विधि समझा रहे हैं। हमारा ध्यान घट में होना चाहिए । हमारा ध्यान बाह्य वस्तुओं पर नहीं होना चाहिए । बाहर नहीं होना चाहिए। मन को मंदिर मानिए । स्वामीजी महाराज ने और स्पष्ट किया है जो सबसे महान है उस मंदिर में मूर्तिमान हैं विराजमान हैं, उनकी पूजा कीजिए ।

स्पष्ट है हमारी पूजा वस्तु प्रधान नहीं है। हमारी पूजा क्रिया प्रधान भी नहीं है । सामान्यतया तो अपने हाथों से अगरबत्ती जलाते हैं दीप जलाते हैं फूल चढ़ाते हैं फल चढ़ाते हैं, मिठाई चढ़ाते हैं , चलकर मंदिर जाते हैं। वहाँ जाके प्रसाद चढ़ाते हैं प्रसाद लेते हैं आरती उतारते हैं आरती लेते हैं इत्यादि इत्यादि, हम इस पूजा से परिचित हैं। इसी पूजा से हमारी जानकारी है। इसमें कोई दोष नहीं है। यदि यही पूजा सही ढंग से की जाए जैसे स्वामीजी महाराज फ़र्मा रहे हैं। तो इस पूजा के अतिरिक्त आपको कुछ करने की ज़रूरत नहीं । यह पूजा ही अपने आपमें सम्पूर्ण साधना हो जाएगी । अन्यथा बहुत अधूरी जैसे कर्म काण्ड । अभी तो इस पूजा में सिर्फ़ शरीर की involvement है। मंदिर जाते हैं पैर द्वारा हाथों से पुष्प चढ़ाते हैं दीप जलाते हैं अगरबत्ती जलाते हैं तो शरीर द्वारा प्रसाद चढ़ाते हैं तो शरीर द्वारा मानो इस पूजा की सीमा सिर्फ़ शरीर। यह एक शारीरिक क्रिया है। इसके साथ मन को जोड़ा जाए, चित्त को जोड़ा जाए भावों को जोड़ा जाए तो यही पूजा सम्पूर्ण पूजा बन सकती है। जिसे संत महात्मा मानसिक उपासना कहते हैं।

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