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कर्मयोग – 5

परम पूज्य डॉ विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((051))

कर्मयोग
भाग-५

धुन :
गोविंद जय जय गोपाल जय जय,
राधा रमण हरि गोपाल जय जय ।।

बहुत-बहुत धन्यवाद देवियो ! बहुत-बहुत सुंदर सब कुछ ।पांचवें अध्याय में भी भगवान् श्री कर्मयोग की ही चर्चा जारी रख रहे हैं । वास्तव में जितना अभी तक पढ़ा है, कर्मयोग करने की विधि ही समझा रहे हैं । किस प्रकार कर्म को कर्मयोग बनाया जा सकता है ? आप सब भी कर्मयोग की चर्चा ही कर रहे हैं । कल चर्चा चल रही थी कि हम कर्तव्य कर्म निभाते हैं कुछ के प्रति, कुछ के प्रति नहीं । यदि सब के प्रति हम अपना कर्तव्य कर्म निभाते हैं, राग द्वेष रहित होकर, पक्षपात रहित होकर तो यह कर्मयोग ही है। कर्मयोग में भेदभाव नहीं हुआ करता ।
साधक जनो ! कर्मयोगी को अपनी पुत्री तो अपनी पुत्री दिखाई देती है लेकिन दूसरे के घर से जो पुत्री आई है, वह बहु दिखाई देती है तो ऐसा व्यक्ति कर्मयोगी नहीं बन
सकेगा । दोनों के व्यवहार में जहां अंतर हो जाएगा यह कर्मयोगी का चिह्न नहीं है ।
कर्मयोगी बनना चाहते हो तो आपको इन छोटी-छोटी बातों का बहुत ध्यान रखने की ज़रूरत है । बड़ी-बड़ी बातें नहीं हैं, हैं ही बहुत छोटी छोटी बातें ।

कर्मयोग में देवियो सज्जनो ! सुख की उंगली अपनी ओर कभी नहीं उठती । कर्मयोगी बहुत अच्छी तरह से जानता है, सुख मेरे भोगने की चीज़ नहीं है । सुख औरों को देने की चीज़ है । जिस किसी की समझ में यह इतनी सी बात आ जाएगी, वह तत्काल कर्मयोगी बन जाएगा ।

पुन: सुनिए ! सुख भोगने की चीज़ नहीं है, सुख मांगने की, सुख पाने की चीज़ नहीं है, सुख बांटने की चीज़ है, सुख देने की चीज़ है ।

हां, दु:ख भोगने की चीज़ है, दु:ख भोगिएगा । कर्मयोगी दु:ख भोगता है पर दूसरों को सुख देता है । दूसरों को सुख पहुंचाता है । अपनी inconviences को नहीं देखता । अपनी असुविधाओं को नहीं देखता । दूसरों को सुविधा पहुंचाए, वह कर्मयोगी है । दु:ख सहकर भी दूसरों को सुख दे तो वह कर्मयोगी है ‌। यही गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण हमें समझा रहे हैं ।

स्वार्थ रहित कर्म, स्वार्थ मानो सुख की उंगली अपनी तरफ, अपने लिए ही चाहना, अपनों के लिए ही चाहना, यह स्वार्थ है । लेकिन दूसरों को देना, दूसरों के लिए चाहना, उनका हित करना, उनका हित सोचना, उनके लिए हितकारी बोलना, उनके लिए हितकर कर्म करना, यह नि:स्वार्थ है । कर्मयोग, कर्मयोग सीमित नहीं है, बहुत व्यापक चीज़ है । आइए ! कुछ दृष्टांतों के माध्यम से देखते हैं ।

आज एक साहूकार, देवियो ! घोड़ी है उसके पास । यातायात के साधन इस प्रकार के नहीं थे उस वक्त, जैसे अब ।
घोड़ियों पर जो अमीर लोग हैं, वह यात्रा इत्यादि किया करते । गरीब तो बेचारे पैदल ही चलते । साहूकार लोग, अमीर जो घोड़ी रख सकते थे, घोड़ा रखना जो afford कर सकते थे, वह घोड़ों पर यात्रा किया करते । किसी ज़रूरी काम से इस साहूकार को कहीं जाना है । घोड़ी बीमार है। अतएव जाना भी ज़रूरी है, कैसे जाया जाए ? पैदल चलने का अभ्यास नहीं रहा हुआ । शायद जल्दी भी पहुंचना हो । पैदल जाने से देरी हो जाती है । घोड़ी जल्दी पहुंचाएगी । दौड़ाते हैं लोग घोड़े घोड़ियों को।

बड़े भाई के पास गए जाकर कहा भैया ! मुझे अमुक स्थान पर बहुत ज़रूरी काम से जाना है ‌। मेरी घोड़ी बीमार है । मेहरबानी करके थोड़े समय के लिए मुझे अपनी घोड़ी दे दो तो मैं दोपहर तक लौट आऊंगा । आते ही घोड़ी आपको वापस कर दूंगा । बड़े भैया ने कहा छोटू घोड़ी घर पर नहीं है । बात खत्म हो गई । छोटे ने बड़े के पांव छुए और चलने लगा तो अंदर से घोड़ी के हिनहिनाने की आवाज़ आई । छोटा मुड़ा, बड़े भैया ! आपने तो कहा था कि घोड़ी अंदर नहीं है पर घोड़ी तो अंदर हिनहिना रही है । उसकी आवाज़ बाहर मुझे सुनाई दी है । मूर्ख ! बड़ा भाई कहता है, मूर्ख ! उस पशु की भाषा तेरी समझ में आ गई, लेकिन मेरी बात पर तुझे विश्वास नहीं । छोटू ने आंख बंद करे हाथ जोड़कर कहा-भैया आज इस घोड़ी ने मेरी आंख खोल दी । घोड़ी के अंदर स्वार्थ नहीं, पशु के अंदर स्वार्थ नहीं होता, पशु के अंदर अभिमान नहीं होता, स्वार्थ नहीं होता, इसलिए उसकी वाणी हर कोई समझ सकता है । मनुष्य को समझना बहुत कठिन है । इतनी सी बात कह कर छोटू चला गया । बहुत दिल पर बोझ लेकर छोटू जा रहा है ।

एक मामूली सी बात के लिए बड़े भैया ने मेरे साथ इतना बड़ा झूठ बोला है । यह मेरा भैया कहलाने योग्य नहीं है । कैसे मैं इनकी बात पर विश्वास करूं ? घोड़ी, पशु अधिक विश्वसनीय निकला । इतनी देर में बड़े को लगा कि छोटा रुष्ट गया है, असंतुष्ट गया है, अतएव भागते भागते पीछे गए छोटू को आवाज़ लगाई । रुको, घोड़ी ले जाओ । मेरे से भूल हो गई स्वार्थवश, लोभवश मेरे से झूठ बोला गया, मैंने बात छुपाई ।

स्वार्थ, साधक जनो ! यह सब कुछ
करवाएगा । जितने भी हम बैठे हैं, मोह ग्रस्त मानो स्वार्थी, मोह ग्रस्त । अर्थात् जिनको अपने और अपनों के अतिरिक्त कोई दूसरा दिखाई नहीं देता, वह कर्मयोगी नहीं हो सकता । ऐसों को मोह ग्रस्त कहा जाता है, जिन्हें सब कुछ अपने लिए और अपनों के लिए ही चाहिए । जो सब कुछ अपने लिए और अपनों के लिए ही करते हैं, उन्हें मोह ग्रस्त कहा जाता है । ऐसे व्यक्तियों को बच्चियो ! स्वार्थी कहा जाता है । ऐसे व्यक्ति कर्मयोगी नहीं हो सकते क्योंकि वह नि:स्वार्थी नहीं है ।

आज एक देवी का विवाह हुआ हुआ है । दो बच्चों की मां है । इतने वर्षों के बाद, बहुत adjustment के बाद, कोशिश करने के बाद भी, वह अपने ससुराल में adjust नहीं हो सकी । आज नौबत यहां तक आ गई दो बच्चों सहित वापस अपने मायके आ गई। दो बच्चों की मां, सोचिए आठ-दस साल हो गए होंगे, विवाह हुए हुए ।
Adjustment नहीं हो पाई । बेचारी ने बहुत कोशिश की होगी । लेकिन सफल नहीं हो पाई । एक भाई के घर गई है । निकाला तो नहीं जा सकता, बहन है ।
पांच हजार रुपए salary मिलती थी उस वक्त। उसमें से पांच सौ रुपए मकान का किराया, अपने बच्चे पढ़ने वाले, अपने भारी खर्चे, ऊपर से यह मुसीबत । अतएव भाई में चिड़चिड़ापन हो गया है । चिड़चिड़ा रहना शुरू कर दिया है । बिना वज़ह बच्चों को मारता है, बिना वजह पत्नी पर गुस्से होता है । अपमानित शब्द बहन को सुना सुना कर तो बोलता है । बेचारी वहां से निकली । यहां रहने योग्य नहीं तो कहां जाए ? बेबस है ।

वहां से छोड़ कर दूसरे भाई के पास गई है । बहन यह तेरा घर है । उस भाई की सोच कैसी है । बहन ! इसे अपना घर समझना । मुसीबत के दिन हैं, मिल कर काट लेंगे ।
जो रूखी सूखी मिले खा लेना । कभी हमारे से किसी प्रकार की भूल हो जाए, किसी प्रकार की बहन ! हमारी तरफ से कमी रह जाए, आखिर मैं हूं, मेरी पत्नी है, परिवार है, कुछ ना कुछ घर में रहते हुए कुछ होता ही रहता है, आपकी सेवा में किसी भी प्रकार की कोई कमी रह जाए, तो हमें माफ करती रहना । फिर कहूंगा बहन मुसीबत के दिन है कट जाएंगे, सब मिल कर काट लेंगे ।

साधक जनो ! दोनों भाईयों की सोच में कितना अंतर है । बहन बेशक ऐसा ना कहे लेकिन संसार को तो दिखाई देता है । एक बहन की बद्दुआ का पात्र है और दूसरा बहन की शुभाशीष का पात्र है । ऐसा होता भी होगा, कोई बहन देवी नहीं है । आखिर सामान्य व्यक्ति है । ज़रूर उसके मुख से इस प्रकार की बात निकलती होगी । जहां देवियो ! दूसरों को सुख देने की बात सज्जनो ! आती है, आपने शब्द सुना होगा, परमात्मा की प्रीति अर्थ कर्म करो वह कर्म, कर्मयोग बन जाते हैं । जहां दूसरों को सुख पहुंचाओगे वहां परमात्मा को प्रसन्न करने की बात
होगी । परमात्मा इससे प्रसन्न होता है । ऐसे कर्मों को परमात्मा के प्रीति अर्थ किए गए कर्म कहा जाता है । यह शब्द आपने सुना होगा । इसलिए विशेष तौर पर इस दृष्टांत को आपकी सेवा में रखा गया है ताकि इस शब्द से भी आप परिचित हो सकें । परमात्मा की प्रसन्नता के लिए किये गये कर्म “प्रभु प्रीति अर्थ कर्म” कहे जाते हैं । जहां परमात्मा प्रसन्न हो गया वहां काम बन गया । वह आपको जन्म मरण के चक्र के बंधन से मुक्त कर देगा । उसकी प्रसन्नता ही तो है ना । मीरा कहती है ना “राम रसिया रिझाऊं नी माए” मानो उनके रीझने से मेरा सब कुछ ठीक हो जाएगा । मैं अपना राम रिझाऊं, मैं अपना परमात्मा रिझाऊं । अपने कर्मों से रिझाओ, भक्ति से रिझाओ, योग से रिझाओ, किसी भी ढंग से परमात्मा प्रसन्न होता है तो उन सब कर्मों को प्रभु प्रीति अर्थ कर्म कहा जाता है । परमात्मा की प्रसन्नता के लिए कर्म कहा जाता है ।

आज साधक जनो ! कर्मयोग की चर्चा को समाप्त करते हैं । एक ही बात मुख्यतया, बाकी याद रखिए ना रखिए, एक बात तो ज़रूर याद रखिएगा, इन कर्मों में विष घोलने वाला एक ही तत्व है जिसे doership कहा जाता है, कर्तापन का अभिमान कहा जाता है। इस कर्तृत्व को बीच में से निकाल दें, तो ऐसा ही कर्म हो जाता है जैसे सांप के मुख में से विष की थैली निकाल दी जाए फिर उसे बेशक गले में डालो, उसे पिटारे में डाल लो, वह कुछ नहीं बिगाड़ सकता आपका ।

वैसे ही जिस कर्म से कर्तापन का अभिमान doership आपने निकाल दी, जो कर्म आपने परमात्मा को समर्पित कर दिया, क्या अर्थ है इसका ? परमात्मा को समर्पित करने का, मात्र अपनी सोच बदलने की आवश्यकता है । परमात्मा ! मैं तेरी कृपा के बिना कुछ नहीं कर सकता, मैं तेरी शक्ति के बिना कुछ नहीं कर सकता । मैं अपने आप में करने योग्य कुछ नहीं हूं । दिनभर आपने जो कुछ करवाया है, सब आपकी कृपा से हुआ है‌, सब आपकी शक्ति से हुआ है । आप के बल से हुआ है । यदि आप अभी तक इस स्थिति तक नहीं पहुंचे कि यह कह सकें कि परमात्मा सब कुछ तेरी इच्छा से हुआ है, यह कठिन काम है । इसके लिए बहुत लंबी साधना चाहिए । तब जाकर यह अक्ल आती है, यह बोध होता है कि सब कुछ परमात्मा की इच्छा से होता है ।
पर इस बात पर तो हर एक को टिकना चाहिए कि सब कुछ परमात्मा की कृपा से होता है, सब कुछ परमात्मा की शक्ति से होता है ‌। यह कड़छी हिला रही हुई बांह किस वक्त रुक जाएगी कुछ नहीं कहा जा सकता ।

एक महिला किसी dentist के पास गई है दांत निकलवाने के लिए ।
Dentist महोदय ने एक injection लगाया है । Injection लगाते ही कुछ मिनटों में यह सारे का सारा भाग paralyse हो गया है । बेचारी चलती फिरती शव की तरह जीवन हो गया है । कुछ करने योग्य नहीं मानो हंसने योग्य भी नहीं है । बच्चे पास खड़े हैं उनसे प्यार करना चाहती है । प्यार नहीं कर सकती उनसे । बोलना चाहती है बोल नहीं सकती क्यों ? सब कुछ ही उसका खत्म हो गया । मानो परमात्मा ने अपनी दी हुई शक्ति जो है, वह बीच में से खींच ली । होता कुछ भी है, लेकिन सत्य तो यही है, इस सत्य को हर एक को पहचानना चाहिए, समझना चाहिए। Doership बीच में से निकल जाएगी, जीवन बहुत सुरक्षित हो जाएगा ।

चलती गाड़ी, एक कार जा रही है, बच्चे को नीचे लाकर तो कुचल देती है‌ । बच्चा on the spot मर जाता है । आज तक देखा है किसी कार को सज़ा मिलती । कभी नहीं, कार तो बिल्कुल ठीक की ठीक रहती है। चलाने वाले को सज़ा मिलती है । मारने वाली तो गोली है, बंदूक में से, pistol में से गोली चलती है । गोली से हत्या होती है। लेकिन उस गोली को कभी कोई सज़ा नहीं देता । सज़ा मिलती है जो गोली चलाने वाला है । इस प्रकार से देवियो सज्जनो ! अपने जीवन से यह doership निकाल दोगे, करने वाला मैं नहीं, करने वाला परमात्मा है । जब यह इस बात का बोध हो जाएगा तो आप कर्म करने के बावजूद भी किसी फल के भोगी नहीं रहोगे ‌। किसी फल के भागी नहीं रहोगे । इस प्रकार से कर्म देवियो सज्जनो ! अपने कर्मयोग बनाईएगा । शुभकामनाएं, मंगलकामनाएं आप सबको । धन्यवाद ।

कर्मयोग – 4

परम पूज्य डॉ विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से।
((050))

कर्मयोग
भाग-४

कर्मयोग की चर्चा चल रही है । भगवान् श्री कृष्ण तो चौथे अध्याय की आज समाप्ति करते हैं, पर हम तो कर्मयोग की चर्चा जो कुछ दिनों से चल रही थी, उसी को आगे जारी रखते हैं । संभवतया कल भी वही चर्चा जारी रहेगी ‌। भगवान् ने चौथे अध्याय में भी कर्मयोग को छोड़ा नहीं है अभी । कर्म को पकड़े हुए हैं तो हम कैसे कर्म को छोड़ दें। कर्मयोग के अंतर्गत देवियो सज्जनो ! आप जी ने कल, परसों देखा था किस प्रकार भाव के परिवर्तन से कर्म बंधन का कारण ना रहकर तो मुक्ति का साधन बन जाता है‌ । मात्र भाव के परिवर्तन से ‌।

कुछ एक दृष्टांतों के माध्यम से आप जी ने देखा था कि कोई कर्म से बच तो नहीं सकता । हर एक को कर्म करना ही पड़ता है, करना ही चाहिए । भगवान् श्री इस क्रिया को, इस कर्म को, कर्मयोग बनाने की युक्ति पार्थ को समझा रहे हैं । संसार में काम करो, पारिवारिक कर्त्तव्य निभाओ, सामाजिक कर्त्तव्य निभाओ, सारे के सारे कर्त्तव्य निभाओ लेकिन भीतर से परमात्मा के साथ जुड़े रहो । जैसे घर में काम करने वाली आया, घर में काम करने वाला नौकर, काम तो यही कर रहा है । आपको लगता है देखो मेरे बच्चे से, इसका बच्चा ना होने के बावजूद भी मेरे बच्चे से कितना प्यार है लेकिन नहीं, वह तो मात्र आया कर्त्तव्य निभा रही है । इस बच्चे के माध्यम से अपने बच्चे को याद कर रही है । उसकी याद उसकी तार अपने बच्चे से जुड़ी हुई है।
भगवान् श्री समझाते हैं, जिस प्रकार वह आया या घर की नौकरानी यहां काम करती हुई अपनी तार को अपने परिवार के साथ जोड़ी है यदि इसी प्रकार से एक साधक एक कर्मयोगी संसार में रहता हुआ कर्म करता हुआ परमात्मा के साथ अपनी तार को जोड़ कर रखता है तो वह कर्मयोगी ही जानने योग्य है ।

एक डॉक्टरानी यदि डॉक्टर किसी नर्सिंग होम में काम करती है या हॉस्पिटल में काम करती है । दस साल के बाद आज किसी के घर पुत्र पैदा हुआ है । सूचना देती है डिलीवरी के बाद, बाहर माता-पिता इंतज़ार कर रहे हैं । परिवार के सब इंतज़ार कर रहे हैं । आकर सूचना देती है बहुत-बहुत बधाई, पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है । सूचना जाती है घर तक सूचना जाती है । बाजे बजते हैं, लड्डू बंटने शुरू हो जाते हैं । मिठाई बंटनी शुरू हो जाती है । अभी अस्पताल से छुट्टी नहीं हुई । अस्पताल में रखा हुआ है । बच्चे की देखभाल हो रही है । बच्चे की मां की देखभाल हो रही है ।
दो दिन के बाद, तीन दिन के बाद, वह पुत्र मर जाता है । डॉक्टरानी बाहर आकर क्या कहती है, मात्र इतना ही ना, क्षमा करना बहुत कोशिश के बावजूद भी आपके बच्चे को बचा नहीं सके । एक सफेद से कपड़े में लपेट देती है और कहती है मेहरबानी करके अपने बच्चे को अब ले जाइएगा । किसी अगले patient ने आना है । अपना कर्त्तव्य निभा रही है । उसे आपसे कोई आसक्ति नहीं है, आप से कोई लगाव नहीं है उसे । लगाव तो उसका घर बैठा हुआ है ।

यदि वह लेडी डॉक्टर घर में भी वैसा ही कर्म करती है जैसा यहां कर रही है, तो वह कर्मयोगिनी ही कहलाने योग्य है । लेकिन हम अक्सर घरों में जाकर तो फेल हो जाते
हैं । मेरा घर, मेरा सब कुछ, यह मेरा मेरा मेरा मैं मैं मैं मैं वहां घर जाकर शुरू हो जाता है । यहां तो आप बैंक की नौकरी करते हैं या अस्पताल की नौकरी करते हैं और घरों में जाकर ऐसा जो है वह नहीं हो पाता ।

परमात्मा के लिए कर्म, चर्चा चली थी, यहां समाप्त हुई थी कि परमात्मा के लिए कर्म यदि व्यक्ति करना शुरू कर देता है या करता है तो वह कर्म, कर्मयोग बन जाते हैं वह क्या है ?

परमात्मा के लिए कर्म करना, क्या कर्म है ? एकनाथ जी महाराज, एक संत, आज किसी नाई की दुकान पर गए हैं । छोटी-छोटी बातों से हर कोई सीखता है । जिसने अपने सीखने के द्वार ही बंद कर दिए हैं, वह साधक तो नहीं हो सकता । साधक अपने सारे के सारे सीखने के द्वार खुले रखता है। जहां से भी उसे कुछ सीखने को मिलता है, वह सीखता है । वह कहता है यह संसार बहुत बड़ा विश्वविद्यालय है । यहां व्यक्ति, हर दूसरे बंदे से सीखता है । हर कोई सिखाने वाला है । बस सिर्फ आपके सीखने के द्वार खुले होने चाहिएं । कोई परिस्थिति, कोई घटना, हर कोई कुछ सिखा कर ही परमात्मा वह आपके सामने प्रस्तुत करता है । अरे ! सीखो अपनी बुद्धि को ठीक करो । यह सिखाने के लिए ही मैं यह चीज़ प्रस्तुत कर रहा हूं । आप रोते हैं, धोते हैं, वह परमात्मा को दुःख देता है । कैसे व्यक्ति हैं ? मैंने यह घटना प्रस्तुत करी है कि इससे इसे कुछ सीखने को, इसकी मति ठीक होगी। आगे से ऐसी ग़लती नहीं करनी है, यह कुछ नहीं करना है, ऐसा कुछ करना चाहिए, यह सीखने के लिए घटना प्रस्तुत करी है ।

एकनाथ जी महाराज नाई की दुकान पर गए हैं । जाकर कहते हैं, भाई ! परमात्मा के लिए मेरी cutting कर दो । बहुत से लोग बैठे हुए थे । नाई ने सब को हाथ जोड़कर कहा, ग्राहक और भी बैठे हुए थे कटिंग करवाने वाले, कोई शेव करवाने वाले बैठे हुए थे वहां पर । उनको कहा माफ करना भाईयो ! पहले परमात्मा का काम बाद में आपकी बारी । इनको out of turn. मैं पहले cutting इनकी करूंगा । आपको इंतज़ार करना हो करो, कल आना हो कल आ जाना, थोड़ी देर के बाद आना हो, आ जाना। पर पहले मैं इन स्वामी जी की, इस भक्त की, इस संत की cutting करूंगा । लोगों ने कहा ठीक है । सब जानते थे एकनाथ जी महाराज को । महात्मा की कटिंग हुई । कटिंग के बाद एक छोटी सी थैली महात्मा ने निकाली और उसमें से कुछ पैसे नाई को देने के लिए निकाले, तो नाई ने महात्मा का हाथ पकड़ लिया । यह क्या है महाराज ?
आपने तो कहा था परमात्मा के लिए मेरी कटिंग करना । मैंने यह परमात्मा के लिए कटिंग करी है, पैसे के लिए नहीं । एकनाथ जी कहते हैं- कर्मयोग मैंने सीखा है तो इस नाई से सीखा है । सारी ज़िंदगी भर अपने जीवन में जो घटित हुआ यह दृष्टांत अपने प्रवचनों में सुनाते रहे । हम कर्म करते हैं उसके पीछे आश्रय देखिएगा । हमें धन्यवाद चाहिए, गले में फूल माला चाहिए, धन चाहिए, यश मान चाहिए, पद प्रतिष्ठा चाहिए, हमें यह चाहिए कि हमारी जो आज्ञा है, हमारा जो कहना है, उसका अक्षरश: पालन होना चाहिए । कितनी सारी अपेक्षाएं रखकर तो हम कर्म करते हैं । एकनाथ जी कहते हैं यह परमात्मा के लिए कर्म तो नहीं है ।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन बहुत बड़े वैज्ञानिक हैं । आज किसी दूसरे राज्य में उन्हें किसी discourse के लिए बुलाया गया है। बड़े-बड़े विद्वान इकट्ठे हुए हैं, राजनेता इकट्ठे हैं, अन्य वैज्ञानिक, junior senior बहुत इकट्ठे हैं, उनकी discourse को सुनने के लिए । प्रस्तुत किया है। करने के बाद शाम को free हो गए तो घूमने के लिए निकले । यह उन्हीं के शब्द हैं, मुझे ज़िंदगी में जहां भी अवसर मिला, जहां से भी, जिस व्यक्ति से, जिस घटना से, जिस स्थिति से कुछ मुझे सीखने को मिला, मैं पीछे नहीं हटा । इसलिए मैं संसार को महा विश्वविद्यालय कह रहा हूं। जो संसार में रहकर नहीं सीख सका, मानो उसने अपने सीखने के सारे के सारे gates बंद कर रखे हुए हैं, वह कहीं से सीख नहीं पाएगा ।

यह परमेश्वर ने इतना महान् विश्वविद्यालय हमारे लिए बनाया हुआ है, सीखने के लिए । जो यहां रहकर नहीं सीख सका, वह कहीं से भी नहीं सीख सकेगा । उसे कोई गुरु नहीं सिखा सकेगा । उसे ब्रह्मा तक भी नहीं सिखा सकेंगे । कोई भी नहीं सिखा सकेगा उसे । यह संसार चलता फिरता हर जगह विस्तृत विश्वविद्यालय है, जहां हर व्यक्ति, हर घटना, आप को सिखाने के लिए तत्पर है, तैयार है ।

एक कुम्हार देखा बहुत सुंदर-सुंदर चीजें बना रहा है । महान वैज्ञानिक आइंस्टीन वहां खड़े हों गए । उसकी रचनाएं देख रहे हैं ।
उन रचनाओं को देख देखकर, कहीं मटका बना रहे है, कहीं मटकी बना रहे है, कहीं सुराही बना रहे हैं, कहीं खिलौना बना रहे हैं, कहीं कुछ बना रहे है तो बना बनाकर, धागे से काट काट कर तो उसे पास रखते जा रहे हैं सुखाने के लिए । वैज्ञानिक को परमात्मा की याद आ रही है। उस रचयिता की याद आ रही है । लगता है उस रचयिता ने हमारी रचना भी इसी प्रकार से की होगी ।
वाह वैज्ञानिक ! कुम्हार की रचनाएं देख देख कर तो वैज्ञानिक को परमात्मा की याद उस महान् रचयिता की याद आ रही है। हम खिलौनों की रचना भी परमात्मा ने इसी प्रकार से की होगी । बहुत प्रसन्न । भीतर ही भीतर उस कुम्हार की प्रशंसा कर रहे हैं । भाई ! कितना कौशल है तेरे पास । कितने निपुण हो तुम अपने काम में । रहा ना गया। कहा, भैया ! परमात्मा के लिए यह जो पात्र आप बना रहे हो यह पात्र मुझे भी दोगे । ज़रूर, परमात्मा का नाम सुनकर तो कुम्हार गद्गद् हुआ है । परमात्मा के लिए, इसलिए अपनी best चीज़ बनाई हुई चुनी, सुंदर ढंग से उसे pack किया, pack करके तो इनको प्रस्तुत की ।
लीजिए महाराज ! मेरी ओर से तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिएगा । कहते हैं एकनाथ जी की तरह आइंस्टीन ने भी अपनी जेब से पर्स निकाला पैसे देने के लिए । कुम्हार ने भी हाथ पकड़ लिया । साहब ग़रीब ज़रूर हूं लेकिन इतना भी ग़रीब नहीं कि मैं अपने परमात्मा को कुछ नहीं दे सकता ।‌ आपने कहा था परमात्मा के लिए मुझे एक पात्र दे दो । मैंने पैसे के लिए नहीं दिया । मैंने आपको नहीं दिया, आपके लिए नहीं दिया । आपने कहा था परमात्मा के लिए मुझे एक पात्र दे दो । मैंने अति सुंदर पात्र आपकी सेवा में भेट किया है, पैसे के लिए नहीं, आपके लिऐ नहीं, परमात्मा के लिए। परमात्मा के लिए कर्म । जहां और कुछ नहीं चाहिए देवियो सज्जनो ! वह कर्म परमात्मा का कर्म है, वह कर्म, परमात्मा के लिए
कर्म है ।

चौथे अध्याय में भगवान् श्री समझाते हैं कर्म की गति बड़ी निराली है । बुद्धिजीवी प्राय: इसकी उधेड़बुन में फंसे रहते हैं । बुद्धिजीवी जो हुए, intellectuals जो हुए, उन्हें अपनी बुद्धि को दो, तीन multiple बनाना आता है । उनकी बुद्धि अपनों के लिए और है, दूसरों के लिए और है । उनका रूप अपने पुत्र अपनी पुत्रियों के लिए और है अपने सास ससुर के लिए बिल्कुल भिन्न है । दुकान पर बैठते हैं तो ग्राहकों के लिए और है office में जाते हैं तो office में काम करने वाली महिलाओं से व्यवहार और है। उनकी पिक्चर वहां बदल जाती है, आकार वहां बदल जाता है । घर में पत्नी के सामने बिल्कुल और तरह का आकार है multiple personalities, intellectuals को बनानी आती है । इसीलिए अशांत, इसीलिए कलह, इसलिए घर घर के झगड़े । भीतर भी इसी के लिए महाभारत का युद्ध होता रहता है । सत् और असत् विचारों का युद्ध, धर्म और अधर्म का युद्ध भीतर ही भीतर चलता रहता है । फिर भीतर ही भीतर चलता रहता है तो बाहर भी यही हालत । पुत्र पुत्री तो आपको दिखाई देते हैं, इनके प्रति जो मेरा कर्त्तव्य है वह मुझे निभाना चाहिए । सास ससुर के प्रति जो कर्त्तव्य है, वह आपको बोझ महसूस होता है । तो देवियो सज्जनो ! यह हमारी personality का दोष है । यह हमारी बुद्धि का दोष है । यह कर्मयोग नहीं । कल जारी रखेंगे इस चर्चा को आज यही समाप्त करने की इज़ाज़त दीजिएगा । धन्यवाद ।

कर्मयोग – 2

परम पूज्य डॉ विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((048))

कर्मयोग
भाग-२

कर्म योग नामक तीसरे अध्याय की चर्चा भगवान् श्री कर रहे हैं । आज जो पृष्ठ, जो श्लोक पढ़े गए हैं, भगवान् श्री पार्थ को अनासक्त कर्म करने की प्रेरणा दे रहे हैं । कर्त्तव्य पालन पर बहुत बल दे रहे हैं । ढंग भी बता रहे हैं । उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं, अपनी बात को पक्का करने के लिए । गिने-चुने लोगों का नाम ले रहे हैं जिन्होंने ऐसा किया है और सिद्धि को प्राप्त कर गए हैं । अपना उदाहरण भी भगवान् ने प्रस्तुत किया है । मुझे तीनों लोकों में पार्थ कुछ पाने योग्य नहीं है फिर भी मैं करता ही रहता हूं, कर्म करता हूं । यदि मैं कर्म ना करने की उदाहरण जनता के सामने प्रस्तुत करता हूं तो मैं जन समुदाय का हत्यारा हो जाऊंगा । अतएव उठ, अपने कर्त्तव्य कर्म का पालन कर ‌। आसक्ति रहित हो कर कर्म कर ।
इस पर बहुत बल दे रहे हैं । अनासक्त होकर कर्म कर, राग द्वेष रहित होकर कर्म कर । इससे पहले साधक जनो ! थोड़ा कर्मयोग को समझने की कोशिश करते हैं ‌। इसी पर हमारा जीवन आधारित है ।

हम सब के सब कर्मयोगी ही हैं । हम सबको कर्मयोगी ही बनना है । भक्ति बल देती है । सो स्वामी जी महाराज कहते हैं, भक्ति युक्त कर्मयोगी बनिएगा । आपके लिए सब कुछ बहुत आसान रहेगा । भक्ति बल देती है, समझ देती है, समर्थ देती है, सब कुछ देती है तो परमात्मा के साथ जोड़ कर रखती
है तो जो परमात्मा के पास है वह सब कुछ अनायास ही मिलता है । अतएव कर्मयोग की साधना कोई कठिन साधना नहीं रह जाती ।

संत महात्मा समझाते हैं –
हर व्यक्ति के पास समय है, सामग्री है, समर्थ है, समझ है । चार शब्दों का नाम लिया । यदि इनको व्यक्ति संसार के लिए प्रयोग करता है, इन्हें संसार की ओर मोड़ देता है तो इसे कर्मयोग कहा जाता है ।
परमात्मा की ओर मोड़ दिया जाता है तो इसे भक्तियोग कहा जाता है ।
इन चार शब्दों को प्रकृति की ओर मोड़ दिया जाता है तो इसे ज्ञान योग कहा जाता है‌ ।
अपनी और अपनों की ओर मोड़ दिया जाता है तो इसे जन्म मरण का योग कहा जाता
है । पड़े रहो जन्म मरण के चक्कर में ।

क्या है यह कर्मयोग ?
देवियो सज्जनो ! कर्म तो जड़ है । इसे कोई पता नहीं कि मैं बंधन का कारण बनूंगा या मोक्ष का साधन बनूंगा ।

परसों तक आप पढ़ रहे थे, प्रेरणा दी जाती है, संसारी एक दूसरे को प्रेरणा देते हैं, यह कर्म ही है जो हमारे बंधन का कारण है । इसलिए इसको करना बंद करो । भगवान् श्री इस पर बहुत गहरी चोट, बहुत गहरा मुक्का मारते हैं । कहते हैं, नहीं । कर्म बंधन का कारण तब है यदि इसे समझ से ना किया जाए । यदि इसे समझ कर किया जाए तो यह कर्म मोक्ष का साधन है, यह कर्म बंधन का कारण नहीं ।

अतएव जो कहते हैं कर्म त्याग करो, कर्म त्याग करो, भगवान् उनको अच्छा नहीं मानते । कर्म करने पर बल दे रहे हैं भगवान् श्री । और कैसे कर्म किया जाए, यह युक्ति भी साथ ही समझा रहे हैं । ताकि यह कर्म बंधन का कारण ना बन कर तो मुक्ति का साधन, मोक्ष का साधन बन जाए ।

भगवान् श्री कहते हैं कर्म बीज है । इसको अंतःकरण रूपी भूमि में बो दिया जाता है । कालांतर में अंकुरित होता है, पौधा बनता है, विशाल पेड़ बनता है, फिर उस पर तरह तरह के फल लगते है । इस कर्म के पीछे जैसी आपकी भावना है, वैसा ही आपको फल खाने को मिल जाता है । यदि आप कर्मयोगी बनना चाहते हो तो ऐसा कर्म करो, इस ढंग से कर्म करो कि बीज अंकुरित ही ना हो । यह कैसे होगा ?

संत महात्मा समझाते हैं जिस बीज को भून दिया जाए, उबाल दिया जाए, बीज तो बीज ही रहता है लेकिन वह अंकुरित नहीं होता। उसमें क्षमता अंकुरित होने की, sprout होने की क्षमता खत्म हो जाती है । जिस रस्सी को जला दिया जाए, रस्सी रस्सी तो रहती है, रस्सी की तरह ही दिखाई देती है, कभी रस्सी जलाकर देखिएगा । उसके आकार में कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन उसके अंदर बांधने की क्षमता खत्म हो जाती है । जिस बीज को उबाल दिया जाए वह बीज बीज की तरह ही रहता है । आप boiled seeds खाते हो, बिल्कुल वैसे के वैसे ही होते हैं । कुछ नहीं होता लेकिन उनको यदि भूमि में डाल दिया जाए तो उनमें sprout करने की शक्ति नहीं हुआ करती ।

संत महात्मा समझाते हैं –
अपने कर्मों को, अपने कर्म बीज को, इस प्रकार का बना दो, करने से पहले, करते समय और करने के बाद, जो कर्म संस्कार ना डाल सकें, वह कर्मयोग है । वह कर्म करने योग्य बन जाएगा । कर्म करने से पहले, करते समय, करने के बाद जो कर्म संस्कार देने योग्य नहीं रह जाता वह कर्म, कर्मयोग बन जाता है ।

क्या ऐसी बातें हैं ? जो हमारे कर्म को बंधन का कारण बनाती हैं और क्या ऐसी बातें हैं ? जिन को छोड़ने से यह कर्म बंधन का कारण ना बनकर तो मोक्ष का साधन बन जाता है । थोड़ी सी साधारण बातों से शुरू करते हैं । जैसे कि अर्ज़ की जा रही थी, कर्म तो बेचारा जड़ है । उसे बिल्कुल कोई पता नहीं कि मैं बंधन का कारण, मैं पाप कर्म बनने जा रहा हूं या मैं पुण्य कर्म बनने जा रहा हूं । किस पर निर्भर करेगा ? आप के भाव पर‌।

उदाहरणतया एक सैनिक कहीं जंग हो रही है । भारत पाकिस्तान की जंग हो रही है, युद्ध हो रहा है । एक सैनिक हज़ारों की संख्या में शत्रु पक्ष के सैनिक मार देता है । जितने अधिक मारेगा उतना अधिक वह बहादुर । यदि हज़ारों, लाखों को मारता हुआ वह वीरगति को प्राप्त हो जाता है, तो उसे medal मिलता है । जितने अधिक मारेगा वहां पर उतना उसको बहादुर, शूरवीर घोषित किया जाता है और उसे वीर चक्र इत्यादि प्राप्त होता है ।

घर आ जाता है छुट्टी पर । छुट्टी पर आकर अपनी किसी कलह क्लेश पत्नी से ही कहिए और बात छोड़िए, पत्नी से थोड़ा आपस में बातचीत होती है, गरमा गरमी हो जाती है । सैनिक है, पुरुष है, जोर से मुख पर थप्पड़ मारता है और एक दांत बाहर निकल आता है । टूट जाता है । खून निकलता है । पत्नी का भी अपना ego होता है वह सब कुछ सहन करने को
तैयार नहीं ।
Police को जाकर Report कर देती है। यही व्यक्ति जो वहां हज़ारों, लाखों को मारने वाला जिसको वीर चक्र प्राप्त होता है‌ इसकी report जब पुलिस थाने में जाती है तो इस को बंदी बना लिया जाता है । भाव का अंतर है । एक जगह पर वह देश के लिए युद्ध कर रहा है । रक्षा, हमारी रक्षा के लिए, देश की रक्षा के लिए, युद्ध कर रहा है और दूसरी जगह पर भाव शत्रुता का है, वैर का भाव है । भाव में अंतर आ गया ।

Dr साहिब लंबी-लंबी surgery करते हैं । पांच मिनट से लेकर पांच घंटे तक surgery चल रही है । आप अपनी surgery करवाते हो, बच्चे की, पत्नी की surgery होती है, चीरा चारी भी होती है । पेट काटा जा रहा है, छाती काटी जा रही है, इत्यादि इत्यादि । Stiches लगाए जा रहे हैं । सब कुछ होता है । कुछ अंग निकाले जा रहे हैं, कुछ डाले जा रहे हैं । सब कुछ होता है । यह सब कुछ करने के बाद आप payments भी करते हो huge payments.

वही Dr जो वहां surgery कर रहा है, घर आकर उसी चाकू के साथ, किसी को, किसी की मामूली उंगली को भी चोट लग जाती है उसकी शत्रुता के कारण तो उसका हाल भी वैसा ही जैसा उस सैनिक का हुआ है । वहां पांच घंटे की surgery कर रहा है, भाव का अंतर देखो । यह भाव क्या का क्या बना देता है । तो एक मुख्य बात तो हो गई, कर्म के पीछे, यह कर्म बंधन का कारण बनेगा । पाप कर्म होगा, पुण्य कर्म होगा, उसके पीछे आप का भाव कैसा है, उस पर निर्भर
करेगा ।‌ भाव तो एक मोटी सी बात हो गई। भगवान् श्री तो pin point करते हैं किन किन चीजों का ध्यान रखना चाहिए ?

भगवान् श्री कहते हैं कर्म को कर्मयोग बनाने के लिए, एक बात सब साधक हो ना, पढ़े-लिखे हो, अतएव पढ़े लिखों के साथ पढ़ी लिखी बातें । आसक्ति का त्याग करो, किस किस चीज़ के साथ ?
कर्म यदि व्यक्ति, आसक्ति युक्त होकर करता है तो उसका कर्म बंधन का कारण बन जाता है । देवियो !मामूली मामूली बातें हैं ।इन्हें कठिन नहीं समझिएगा, बहुत आसान
हैं । एक बार सुनेंगे, उन पर मनन करेंगे, चिंतन करेंगे तो आपको याद हो जाएंगी, तो आपको पता लग जाएगा कि आपको किन-किन चीजों से बचकर रहना है ।

प्रथम बात कौन नहीं चाहता कि हम अच्छा कर्म करें और अच्छा कर्म बार-बार करें ।
यह कर्म के प्रति आसक्ति । अच्छा ही कर्म मैं करूं तो बुरा कौन करेगा ? भगवान् श्री को संसार चलाना है तो उन्हें सिर्फ अच्छे कर्म superior कर्म करने वाले ही नहीं चाहिए, उन्हें वह भी चाहिए जो घटिया कर्म Inferior कर्म भी करें । अगर सारे के सारे व्यक्ति superior कर्मों के प्रति आसक्त हो जाएंगे तो भगवान् की गाड़ी रुक जाएगी । भगवान् की गाड़ी चलेगी नहीं ।
अगर कहें कि हम सिर्फ प्रवचन देने का ही कामकाज करेंगे तो झाड़ू पोंछा कौन लगाएगा तो घर में लेट्रिन बाथरूम कौन साफ करेगा ?

कर्म के प्रति आसक्ति दूसरी आसक्ति । ऐसा कर्म करने से शुभ फल मिले मैं वही कर्म करूंगा । यह इसका आधार क्या है ? शुभ फल, श्रेष्ठ फल ।
थोड़ा पढ़ कर मैं IAS officer बन जाऊं । यदि हर कोई इसी प्रकार की सोच वाला हो जाएगा, कर्म फल क्या है ? IAS officer बनना, या बहुत बड़ा बनना । मैं वही कर्म करूंगा जिसे करके मैं बहुत बड़ा बन जाऊं तो यह फल के प्रति आसक्ति है । दो आसक्तियां हो गई ।
आसक्ति अर्थात् लगाव, आसक्ति अर्थात्
राग । साधारण शब्दों में राग को समझो तो, राग जिसका व्यक्ति हर वक्त राग गाता रहे। वह राग वह चाहे व्यक्ति हो, चाहे वह वस्तु हो। आप कहते हो ना क्या है ? हर वक्त एक ही बात का राग अलापते रहते हो । मानो वह व्यक्ति राग युक्त है । वह राग से suffer कर रहा है ।
He is suffering from raag, attachments.
दो आसक्तियां । समय तो हो गया है देवियो सज्जनो ! अभी जारी रखेंगे । बहुत सुंदर चर्चा है यह । समझने योग्य । सुंदर, मतलब सुनने योग्य नहीं, समझने योग्य । इसको समझ कर तो अपने जीवन में उतारने योग्य चर्चा है । इसे जारी रखेंगे आज यहीं समाप्त करने की इज़ाज़त दीजिएगा । धन्यवाद ।

कर्मयोग पर चर्चा – 1

परम पूज्य श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((047))

कर्मयोग पर चर्चा
भाग-१

गीताचार्य भगवान् श्री कृष्ण कर्मयोग नामक तीसरे अध्याय की व्याख्या कर रहे हैं । आज उन्होंने कर्मयोग की कुंजी समझाई है । विभिन्न पक्ष कर्मयोग के समझा रहे हैं ।

क्रिया ही कर्म है, हर क्रिया कर्म नहीं है ।
हर कर्म तो क्रिया है, लेकिन हर क्रिया कर्म नहीं है । संत महात्मा यहां पर थोड़ा समझाते हैं; जैसे-
व्यक्ति नन्हा बच्चा है, शिशु है, बड़ा होता है । इसमें क्रिया तो है, पर कर्म कोई नहीं । बचपन से जवानी में प्रवेश करता है, क्रिया तो हो रही है, लेकिन कर्म नहीं है ।
बुढ़ापा आता है, क्रिया तो हो रही है, कर्म कोई नहीं ।
हृदय धड़कता है, क्रिया तो हो रही है लेकिन कर्म नहीं ।
भोजन पच रहा है, उसका विसर्जन हो रहा है मल के रूप में, क्रिया तो है, कर्म नहीं है । क्रिया कर्म कब बनती है, जब उसमें कर्तापन आ जाता है ।

बाल अवस्था से जवानी में प्रवेश करने में कर्तापन का कोई स्थान नहीं है । क्रिया हो रही है, कर्म नहीं । कर्म उसे ही कहा जाता है जहां क्रिया के साथ कर्तापन जुड़ जाता है, कर्तृत्व जुड़ जाता है, doership जिसमें जुड़ जाती है । उसे कर्म कहा जाता है । यही कर्म बंधन का कारण बन जाता है । इसे निर्बंध करना ही कर्मयोग है ।
जहां कर्तापन होगा,
जहां कर्म के साथ यह होगा मैंने यह कर दिया, मैं यह करवा रहा हूं इत्यादि इत्यादि।
जहां आपने देवियो सज्जनो ! अपने कर्तापन की stamp लगा दी, आपके मुख से निकल गया “मैं”, बसससस वही कर्म बंधन का कारण बन जाएगा । यही कर्म यदि दूसरों के लिए किया जाता है, अपने लिए ना करके, अपने लिए करना तो स्वार्थ है अतएव बंधन का कारण, दूसरों के लिए कर्म करना नि:स्वार्थ हो जाता है अतएव मोक्ष का
साधन । इसी को कर्म योग कहा जाता है। अपने लिए कर्म ना करके दूसरों के लिए कर्म करना, अपने लिए सुख ना चाहकर दूसरों के लिए सुख की कामना करना, अपना उपकार ना चाह कर, दूसरों के लिए उपकार चाहना, अपना हित ना चाहकर, दूसरों का हित चाहना, यह सब कर्मयोग के अंतर्गत है ।

आज यज्ञ के अंतर्गत विभिन्न पक्ष गीताचार्य भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं । यज्ञ की बड़ी सुंदर परिभाषा भगवान् श्री ने समझाई है । स्वामी जी महाराज ने स्पष्ट की है ।
यह संसार कहते हैं आदान, प्रदान, बलिदान, लेन देन पर ही चल रहा है । एक व्यक्ति देता है, दूसरा लेता है इत्यादि इत्यादि । इसी से संसार चल रहा है । जहां परस्पर सहयोग की भावना नहीं रहती, वहां व्यक्ति, व्यक्ति ना रहकर तो मानव, मानव ना रहकर दानव रहता है ।

आज एक बहुत बड़े सेठ हैं । वह अक्सर विद्वानों को, मानवों को, देवताओं को निमंत्रण देता है, भोजन करवाता है । जहां मानव साधक जनो ! भोजन के लिए बुलाए जाते हैं, सेवा भाव से जहां भोजन करवाया जाता है, देवताओं को ना भी बुलाया जाए तो भी वह वहां पधारते हैं । सो यूं समझिए कि मानव और देवता तो हमेशा भोजन के लिए आते ही हैं, बुलाए ही जाते हैं लेकिन दानव को कभी नहीं बुलाया जाता ।

आज इस सेठ ने जो बहुत परोपकारी माना जाता है, कर्मयोगी कहिए कर्मयोगी माना जाता है, इसने आज मानव, दानव एवं देव तीनों को बुलाया है । आप मेरे घर भोजन के लिए पधारिए । भव्य आयोजन किया हुआ है । खूब प्रबंध किया हुआ है । राक्षसों ने कहा आप लोग सांसारी कैसे हो ? हम में किस चीज़ की कमी है ? हमारे अंदर किसी प्रकार की कोई कमी नहीं । बलवान हैंं हम। शायद मानवों से भी ज़्यादा और देवताओं से भी ज़्यादा । कई बार हमने देवताओं को हराया । ज्ञान की भी हमारे पास कमी नहीं। जब हम प्रजापति के पास गए थे, तो हम तीनों इकट्ठे गए थे, मानव, दानव एवं देव और प्रजापति ने हम तीनों को अपनी अपनी योग्यता के अनुसार, पात्रता के अनुसार उपदेश दिया था । मानो हम एक ही पिता की संतान हैं । फिर आप लोग हमारे साथ भेदभाव क्यों करते हो ? यह अन्याय है, आप लोगों का । संसारियो ! यह अच्छी बात नहीं
है । आप मानव को बुलाते हो, देवों को बुलाते हो लेकिन राक्षसों को कभी आमंत्रित नहीं किया । आज आपकी मेहरबानी है, आपने हमें बुलाया है और हम आ गए हैं ।
पर हम इतनी बात कह देते हैं यदि आप जी का अन्याय, अत्याचार हमारे ऊपर इसी प्रकार से बना रहा, तो हम भड़केंगे ।

लाला ने कहा इस वक्त कृपया क्रुद्ध ना हूजिएगा । भोजन तैयार है । आज सबसे पहले आप भोजन कीजिएगा ताकि आपकी यह शिकायत दूर हो । अव्वल तो हमें बुलाया ही नहीं जाता, यदि हमें बुलाया जाता है तो हमें पहले भोजन कभी नहीं करवाया जाता। हमारी बारी कहीं अंत में जाकर आती है । आप पहले देवताओं को खिलाते हो फिर मानवों को खिलाते हो और फिर यदि बचता है तो फिर हमारी बारी आती है । लाला ने कहा आपकी इस शिकायत को दूर करने के लिए आज आप पहले भोजन के लिए बैठिएगा । एक शर्त है, पंक्तियों में बैठ जाइएगा आमने सामने । आप जितने भी सौ पचास आए हुए हैं, सब बैठ जाइएगा‌ । पर मैं एक शर्त से भोजन आपको खिलाऊंगा और वह भी पहले आपको । आपके दोनों हाथों पर तीन तीन फुट लंबी लकड़ी की एक फट्टी मैं बांध दूंगा । मंज़ूर है, बांध दीजिएगा । दोनों हाथों पर देखो मेरी तरफ इन दोनों बाजुओं पर तीन फुट लंबी फट्टी लाला ने बंधवा दी है ।

भोजन की थालियां उनके आगे परोसी गई हैं। लाला स्वयं परोस रहा है ताकि इनकी हर शिकायत जो है वह दूर हो । खूब तरह-तरह के भोजन बनाए हुए हैं, तरह-तरह की सब्जियां इत्यादि सब कुछ थाली भर भरकर, मीठा भी है खाने को, सब कुछ आगे रख दिया है । राक्षस लोग अपने हाथ से उठा तो सकते हैं लेकिन अपने मुख में नहीं डाल सकते, फट्टी बंधी हुई है ।

लाला की चाल देखिए, किस तरह से एक कर्म योगी, किस तरह से एक संत, दूसरों को समझाता है । दोनों हाथों पर फट्टी बंधी हुई है । कोहनी यहां से झुक नहीं सकती, मुड़ नहीं सकती, तो अपने मुख में वह राक्षस कुछ डाल नहीं सकते । सभी के सभी राक्षस भूखे हैं । और जब भूखे होते हैं तो द्वेष की भावना, निराशा की भावना इत्यादि इत्यादि पैदा होती है । आपस में उन्होंने लड़ाई झगड़ा शुरू कर दिया । एक दूसरे के सामने सब बैठे हैं । सभी के सभी राक्षस भूखे ।

देवताओं की बारी, देवताओं के साथ भी ऐसा ही किया है । उनकी भी दोनों बाजुओं पर तीन-तीन फुट लंबी फट्टी बांध दी है ताकि उनका भी इस तरह से हाथ मुड़ ना सके । लेकिन मानव कहिए, दानव कहिए, देवता कहिए, आखिर देवियो सज्जनो ! कुछ ना कुछ भिन्नता तो है । नहीं तो परमात्मा सब को मानव नाम दे देता । कुछ को देवता नाम दिया है, कुछ को मानव नाम दिया है, कुछ को दानव नाम दिया है, कुछ कारण तो होगा । मेरे राम के विभाजन में कोई ग़लती तो नहीं हो सकती, कोई अन्याय तो नहीं हो सकता ।

देवता बैठे हैं एक दूसरे के सामने । ऐसे ही पंक्तियों में बिठाया है । इन्होंने देखा कि हम अपने मुख में नहीं डाल सकते, किसी दूसरे के मुख में तो डाल सकते हैं । सामने वाला जो बैठा हुआ है उसके मुख में तो डाल सकते हैं, बस इधर वाले उनके मुख में डालते हैं, उधर वाले इनके मुख में डालते हैं और सारे के सारे देवता पेट भर कर स्वादु भोजन खाया है । जो दूसरे को पालना जानता है, वह कभी भूखा नहीं रह सकता । याद रखना इन बातों को जो अपने पेट को पालने के साथ-साथ दूसरे का पेट पालना भी जानता है, वह व्यक्ति कभी भूखा नहीं रह सकता । देवता देखो, यह जानते हैं किसी दूसरे के मुख में कैसे डाला जाता है। आज यही किया है ना । अपने मुख में तो किसी ने नहीं डाला, यह दूसरे के मुख में डालते हैं, दूसरा इनके मुख में डालता है। दोनों का पेट भरा हुआ है । जो मानव दूसरों के मुख में डालना नहीं जानता, उसे ही दानव कहा जाता है । वह दानव बन जाता
है । जो सहयोग करना नहीं जानता, जो सहयोग देना नहीं जानता, वह दानव है, जैसे अभी आपने देखा । आपस में ही लड़ झगड़ कर तो वह भूखे हैं । उनका पेट भी भरा नहीं है और भूखे भी हैं। और फिर लड़ाई झगड़ा भी आपस में कर रहे हैं ।

आज भगवान् श्री यही बात समझा रहे हैं। मेरी सृष्टि का दमदार आधार आदान प्रदान है, लेना देना, परस्पर लेना देना । इसी पर सृष्टि सारी जो है, वह चल रही है । बहुत से स्थानों पर साधक जनो ! अभी भी यह परंपरा है, लोप होती जा रही है । जब 1988 में मैं मनाली गया था, उस वक्त तक यह प्रथा वहां जीवित थी । अब तो वह भी अमीरी की चपेट में आ गए हुए हैं, अतएव यह प्रथा वहां भी खत्म होती जा रही है, नहीं है ।

क्या करते थे ? सबके अपने अपने खेत हैं और सब स्वयं ही किसानी करते हैं । कोई नौकर चाकर नहीं । महिलाएं भी खेती का कामकाज करती हैं और किसी के पास राजमां की फसल ज़्यादा हो जाती है, किसी के पास कोई सब्जी ज्यादा हो जाती है, किसी के पास पशु ज़्यादा हैं तो उनके पास दही ज़्यादा होता है, घी ज़्यादा होता है तो जितना ज़्यादा होता है, उतना वह औरों को बांट देते हैं । जिन को बांटा जाता है, जो उनके पास ज़्यादा होता है, वह उसके बदले में उसको वस्तु दे दी जाती है । इस प्रकार से गांव के सिलसिले ही नहीं, परमात्मा की सारी की सारी सृष्टि जो है, वह इसी प्रकार से चलती है । हम जानें ना जानें यह दूसरी बात है लेकिन भगवान् श्री ने आज इस बात को स्पष्ट किया है, गीता जी में ।

तो समय हो गया है साधक जनो ! अभी यहीं समाप्त करने की इज़ाज़त दीजिएगा । हम सब कर्म योगी हैं, इसे याद रखिएगा ।
स्वामी जी महाराज ने हम सब के लिए All शब्द प्रयोग किया है “हम सब” भक्तिमय कर्म योगी हैं । भक्तिमय कर्मयोगी । इस शब्द को बहुत याद रखिएगा और फिर इसे अपने जीवन में बसाइयेगा तो आप भी गीता जी के आदर्श पुरुष बन सकते हैं । शुभकामनाएं मंगलकामनाएं । धन्यवाद ।

गीता जी पर चर्चा

परम पूज्य श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((046))

गीता जी पर चर्चा

धुन :
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।

आज गीताजी का पाठ आरंभ होता है । आप सबको बहुत-बहुत बधाई देता हूं, शुभ एवं मंगलकामनाएं ।
ना जाने कितने ही गीता जी के पाठ हम कर चुके हैं, सुन चुके हैं ।
ना जाने कितने ही रामायण जी के पाठ हम कर चुके हैं, सुन चुके हैं ।
ना जाने कितने ही अमृतवाणी के पाठ हम कर चुके हैं, सुन चुके हैं ।
भक्ति प्रकाश के पाठ भी ना जाने कितने कर चुके हैं, सुन चुके हैं ।
पार्थ ने एक ही बार श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ सुना । हम तो बहुत बार सुन चुके हैं, बहुत बार कर चुके हैं । क्या जैसा परिवर्तन अर्जुन के जीवन में आया, क्या इतने पाठ करने के बावजूद हमारे जीवनों में भी अंतर आ रहा है कि नहीं ? क्या इसे देखना हमारा कर्त्तव्य नहीं है कि मात्र हमें पढ़ना ही नही हैं, हमें पाठ करना ही है ।

अर्जुन ने किन परिस्थितियों में श्री गीताजी का पाठ सुना है। कितना tense है अर्जुन, युद्ध क्षेत्र में खड़ा हुआ । आपकी किसी साधारण से मामूली तू तू मैं मैं होती है तो ब्लड प्रेशर कितना हाई हो जाता है ? सोचें, अर्जुन जिस परिस्थिति में खड़ा है उसकी अपनी निजी स्थिति कैसी होगी ? ऐसी स्थिति में उसने भगवान् द्वारा दिया हुआ ज्ञान श्रवण किया है । स्वामी जी महाराज ने आज श्रीमद्भगवद्गीता के महात्म्य के अंतर्गत अंतिम पंक्तियों में कहा है –
गीता जी का महत्व तभी मालूम होगा, जब गीता ज्ञान को अपने जीवन में बसाया जाएगा, इन्हें अपने कर्मों में उतारा जाएगा तो आपको वही लाभ होंगे जो अर्जुन को हुए थे । अन्यथा तो पन्ने पलटने की बात है। अमृतवाणी के लिए भी, भक्ति प्रकाश के लिए भी, ना जाने कितने सुंदरकांड के पाठ हम कर चुके हैं लेकिन हमारा purpose अपने आप को बदलने का purpose
नहीं । ना अमृतवाणी का पाठ करके, ना भक्ति प्रकाश का पाठ करके, और ना ही गीताजी का पाठ करके । हमारा purpose तो बहुत अलग हुआ करता है । जिसका सभी को पता भी नहीं, कि क्या कर रहे हैं? क्या purpose है ?

अर्जुन को क्या हुआ है ? अर्जुन मोहजन्य, मोह से पैदा हुई करुणा के कारण विषाद में चला गया है । यहीं से पहले अध्याय का आरंभ होता है । पहले अध्याय में आज पूरा हुआ होता तो आपको पता लगा होता कि अर्जुन किस दुर्दशा को प्राप्त हो गया है । सब कुछ छोड़ छाड़ कर, अपना गांडीव धनुष, बाण इत्यादि, छोड़-छाड़ कर कहीं फेंक कर रथ के पिछले भाग में बैठ जाता है, मुंह लटका कर ।

भगवान् के सामने घोषणा कर लेता है,
मैं एक साधु का जीवन व्यतीत करूंगा, युद्ध नहीं करूंगा । मैं अपने पितामह, अपने गुरुजनों को मारूंगा नहीं । उदास हो गया है, सब कुछ छोड़ दिया है उसने । उसका कर्त्तव्य क्या है ? इस वक्त उसे सुध नहीं है। इतने गहरे विषाद में वह चला गया है, शोक में चला गया है । भगवान् उसकी दुर्दशा को देखकर तो उसको शाबाशी तो नहीं देते ।

दूसरे अध्याय का शुभारंभ ही भगवान् की डांट से होता है । भगवान् श्री गुरु महाराज की पदवी ग्रहण करते हैं, स्वीकार करते हैं, जब अर्जुन अपने आपको शिष्य स्वीकार करता है। जब अर्जुन अपने आपको विषाद सहित, ऐसा नहीं गुरु महाराज कह रहे कि पहले आप स्वस्थ होकर मेरे पास आओ। नहीं, अर्जुन ऐसा करने में सक्षम नहीं है । इतना गहरा उसे धक्का आघात लगा हुआ है, इतना शोक ग्रस्त है वह कि इससे बाहर नहीं आ सकता । अतएव जैसी उसकी स्थिति है उसे छिपाकर नहीं, वैसी ही स्थिति में अपने आप को परमात्मा को सौंप
देता है ।

अर्जुन ने जो अच्छी बातें करी हैं, वह हम सबके सीखने योग्य, जीवन में उतारने योग्य, तभी हमें अर्जुन जैसा लाभ प्राप्त हो
सकेगा । अर्जुन ने अपने विषाद को परमात्मा के साथ जोड़ दिया है और भगवान् ने उसे विषाद योग बना दिया है ।
Never mind आप विषाद भी मेरे साथ जोड़ो तो मैं उसे योग बना दूंगा । जोड़ो । मैं आपको विषाद रहित होकर अपने पास आने के लिए नहीं कहता । मैं जानता हूं एक गुरु की भूमिका, एक डॉक्टर की भूमिका है और डॉक्टर के पास कोई तंदुरुस्त नहीं जाता, रोगी जाएगा । जो तंदुरुस्त है वह डॉक्टर के पास क्या करने जाएगा ? वह हॉस्पिटल क्यों जाएगा ? उसे क्या जरूरत है जाने की ? मत ऐसा चाहिएगा पहले हम अच्छे हो जाएं तो फिर परमात्मा की चरण शरण में जाएंगे, बहुत देर हो जाएगी ।

समुद्र की लहरें उठनी बंद हो जाएंगी तब हम स्नान करेंगे तो जन्म जन्मांतर, युग युगांतर, आप कभी स्नान नहीं कर पाओगे । इसलिए समुद्र जैसा है, आप वैसे ही उसमें कूदिएगा तो आप स्नान करके निकलिएगा । अर्जुन ने अपने जीवन रथ की डोरी भगवान् को सौंप दी है ।‌ जो जो बातें अर्जुन ने करी हैं इस लाभ की प्राप्ति के लिए, मेहरबानी करके उन्हें ध्यान दीजिएगा ।

एक तो उसने अब शिष्यत्व स्वीकार कर लिया है । मैं आपका शिष्य, आप मेरे गुरु महाराज । मात्र इतना ही नहीं मैं अपने आप को, आपके श्री चरणो में प्रपन्न: समर्पित करता हूं । मेरे जीवन के रथ की बागडोर आप संभालिएगा, आप सारथी बनिएगा। भगवान् बने हैं । नहीं सोचा कि यह कितना छोटा काम मुझे दे रहा है करने के लिए ।
कहां भगवान्, कहां मैं और कहां एक सारथी रथ हांकने वाला । लेकिन चूंकि अर्जुन समर्पित हो चुका हुआ है और समर्पित के लिए हर कुछ करना मेरा वर्ध है, मेरा प्रण है इसलिए अर्जुन ! मैं तेरे जीवन रथ की बागडोर संभालने के लिए तैयार हूं ।

तीर चलेंगे, मेरे से होते हुए तेरे पास जाएंगे। मुझे पहले लगेंगे । मैं उन्हें रास्ता दूंगा तो तीर तुम्हें लगेगा । मैं रास्ता नहीं दूंगा तो तीर तेरे तक पहुंचेगा नहीं । यह गुरु की भूमिका है । आगे बहुत कुछ होता है साधक जनो ! आप पढ़ेंगे अंत में क्या मिलता है । पार्थ गीता पाठ से पहले क्या था ?
गीता श्रवण से पहले क्या था ?
सुनने के बाद क्या कहता है ?
हे अविनाशिन् । तेरी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है, एक पाठ। हमने ना जाने कितने पाठ किए हैं लेकिन वह नित्य प्रति बढ़ता जा रहा है। क्यों ? माता ! है ना, यह मोह बढ़ता जा रहा है। पुत्र के प्रति, पौत्र के प्रति,पौत्रियों के प्रति, यह कहीं घटने का नाम ही नहीं ले रहा ।

अर्जुन हम सबके सामने, सारे संसार के सामने घोषणा करता है यह कोई छोटी बात नहीं । संसार को काट मारिएगा, वह परमात्मा के सामने घोषणा करता है जिसके सामने कोई झूठ नहीं बोल सकता, उसके सामने कहता है, –
हे अविनाशिन् । तेरी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है । मैं शोक ग्रस्त था । इस वक्त शोक रहित हो गया हूं । मेरे संशय छिन्न-भिन्न हो गए हैं । मेरे मन में किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है । अब no doubts at all.
मैं तेरी आज्ञा का पालन करूंगा अक्षरश:। मेरी बुद्धि ठीक हो गई है । मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है । अर्जुन ने अपना जीवन सफल कर लिया । अर्जुन को खड़ा हुआ देखकर, युद्ध करने को तैयार, सब कुछ छोड़ चुका हुआ, फिर धनुष बाण हाथ में ले लिया है, और युद्ध करने के लिए तैयार देखकर तो संजय अपना मत प्रकट करता है । राजन्, धृतराष्ट्र को संजय सारा हाल सुना रहा है। अंतिम श्लोक –
हे राजन् । जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण है, और धनुर्धारी अर्जुन, धनुर्हीन नहीं, धनुर्धारी अर्जुन, मानो जहां परमेश्वर कृपा है, जहां शास्त्र अनुसार चलने वाला पुरुषार्थी अर्जुन है, वहीं श्री, वहीं विजय, वही समृद्धि,
वहीं नीति, वहीं सफलता, सब कुछ वहीं, वहीं ऐश्वर्य, वहीं वैभव, वहीं विकास । अपना मत संजय प्रकट करता है ।
हम सबको संदेश देता है –
सुनो जहां परमेश्वर की कृपा है, शास्त्र है, ज्ञान गीता, ज्ञान शास्त्र, और शास्त्र अनुकूल चलने वाला अर्जुन है, तीन बातें।
अधिक ना सही इन बातों को याद रखें हम। जहां परमेश्वर की कृपा है, जहां शास्त्र है और शास्त्र अनुकूल चलने वाला पुरुषार्थी अर्जुन है, वहीं शांति है, वहीं परमानंद है, वहीं सफलता है, भौतिक भी एवं अलौकिक भी । मुक्ति की प्राप्ति उसे ही होगी, अलौकिक लाभ उसे ही होंगे अन्यथा इसके विपरीत ज़िंदगी भर टककरें मारते रहिएगा, सफलता कहीं पास नहीं मिलेगी । भौतिक सफलता थोड़ी बहुत हो भी सकती है लेकिन अलौकिक सफलता से बिल्कुल वंचित रह जाओगे ।

तो समय हो गया है । आज यहीं समाप्त करने की इज़ाज़त दीजिएगा, धन्यवाद । परमात्मा कृपा करें । थोड़ा सुनें, थोड़ा पढ़ें, अधिक अपने जीवन में उतारे, इसी में कल्याण है ।‌ अधिक पढ़ने सुनने में नहीं। थोड़ा बेटा पढ़ो, सुनो और उससे भी अधिक उसे अपने जीवन में, अपने कर्मों में उतारो तो बादशाह बन जाओगे । इस लोक के भी बादशाह और उस लोक के भी बादशाह।

एक साधु राम तीर्थ, सारे संसार के सामने अमेरिका जैसे देश में जाकर घोषणा करता है, एक बादशाह राम आया है । एक साधु भीख मांगने वाला जिसके पास दो कपड़े हैं पहनने को । वह अपने आप को बादशाह राम घोषित कर रहा है किस बल पर ? यहीं समाप्त करने की इज़ाज़त दें । धन्यवाद।

Immortal Message 5(ii)

Divine Discourse of Param PujyaShri Dr. VishwaMitr ji Maharajshri ( an amateur and a humble attempt at translating His Discourses in English )

Immortal Message

Surrender

Part 5(ii)

The words that you uttered, it burnt the heart of the other. You think that Nature is u aware of your action. Absolutely not, the Lord is very big. He dies not care for these little things. His is the greatest, merciful. If He takes into consideration the little little things, we will be left nowhere. He is too great. He is sitting up in the sky. From there we appear so small, so he does not see and hear our little talk.But Nature, has its ears all spread out.She does not spare. It only knows how to punish. She does not know how to forgive. If you burnt one heart, if she does not burn your heart, that’s not it’s rule.

Remember your old times. When you had uttered those cruel words and pierced somebody’s heart. Now at home, die to your own child , due to its own failure , your heart is burning like that. Maybe, even more, heart burn. His burning might have gotten over, to whom you gave the brunt, but in your it is still burning. Why? The son is sitting at home. It is giving non stop heart burn. This is play of Nature. Nature some way of the other, keeps bringing excuses, such that you keep experiencing that brunt, you keep enduring the pain cause by the brunt, the pain that you gave to somebody some day.

Remember about Nature, ladies and gentlemen, it does not know how to forgive. It only knows how to punish. Like the judge. They can punish, the right to forgiveness is only with the Lord. The child is not getting success. The parents will be getting upset looking at the child or not? They will be experiencing the burn or not? Our work is not getting any success. Why ? Think about it. For whom you have committed the crime, in mind itself. If you don’t have the courage to go straight and apologize to that person, then ask for forgiveness from the mind. Ask forgiveness from the Lord. The burn can go away. The Nature will continue to do what it does. Therefore, with folded hands I pray to you all, it’s a request, that the sins that happen so easily from us, we are not al all careful about it. Our personality has become such. A seeker needs to be very cautious regarding that. Nobody knows to who all you have caused hurt by your hurtful words. Such pain, such a burn, that one has not forgotten. If the other person has not forgotten then Nature too does not let you forget. She will make you burn like that, and it makes your suffer. Just take a look on the inside, then you’ll see everything very clearly.

This is what is happening with all of us.

Immortal Message – The words we utter

Divine Discourse of Param PujyaShri Dr. VishwaMitr ji Maharajshri ( an amateur and a humble attempt at translating His Discourses in English )

Immortal Message

Surrender

Part 5

My humble salutations at your feet to my mothers and dear gentlemen. Kindly accept Infinite times my obeisance. The discussion of surrender is going on. Giving ourselves up to our Lord, surrendering ourselves to our Lord. Giving ourself up means merging in the Lord. Before we continue with this discussion, a little discussion in your service. A major hinderance that does not allow us to move ahead in devotion.

In a Gurukul ( an ancient residential school) disciples are sitting. A discussion is going on. The teacher is not there in the classroom. They are discussing..

What is the most powerful thing of this human body? The most powerful part, organ, which is it? The discussion is going on. But no conclusion is being reached. They are arguing. But nobody can come to a definitive conclusion. The teacher enters and listens to the discussion. After listening he pretends to be really angry and reprimands all the disciples. You all have polluted your intellect, you have become stupid, is this a matter of discussion? He kept on scolding them. He was at peace from inside. After a while he became quiet from outside too.

But the disciples were angry. They could not take in the insult from the teacher. The eyes turned and got red. What kind of guru is he? We did not do any wrong at all. They started whispering. The teacher is watching them. After a while, when the atmosphere got a little better, they all were quiet. He said – You all are very good. Told the disciples that – good ! A little time you get free, you start intellectual discussions. I am proud of you.

All faces lit up. The disciples are happy. He was just now reprimanding and now he is praising. He shows them the difference in the two and says this is the most powerful organ. The tongue. This speech. Two things this tongue does. One it tastes. Second it speaks. Both are very important departments. The one who knows how to control them, consider that his spiritual practice has risen a lot. It has a very close relationship with spiritual practices.

In childhood if we took out harsh words for somebody then even in old age that person can never forget those words. Harsh words, strong words, words full of pride, jealousy, inside there is frustration, envy, the words are mixed with those, guided with those, there is wickedness, hence the words guided by it.

Swamiji Maharajshri really said it correctly – The wounds of the sword they get healed fast.

Such sensitive thing Maharaj has said. The injury of the sword gets healed fast. The words that causes the hurt, they give pain always.

Why this is being brought to your service, don’t take it lightly. Now also nothing has lost. Hold yourself together. Take out words from your mouth, in a very conscious manner, speak very carefully. It’s a great sin, that we commit very easily. You’ll see that the words with which you have hurt others, there in their heart, you have put a scar of a flame. As if one got injected. Harsh words, egoistic words, sour words are extremely painful.

Contd…

Karmyoga 5c

Discourses from Most revered Param Pujya Shri Dr. VishwaMitr ji Maharajshri 

How to convert action into karmyog ( Action enjoined with Divinity) [ An humble attempt to translate His Divine words in English] 

Part 5c

Tomorrow we’ll especially discuss about being happy and sad, but because you have no right on what so ever the result of the action will be, whether success or failure, happiness or distress. So, you are free to do the work, free to desire, but the action that is based on desire , will give you happiness or distress, it’s not in your hands. It’s not under your control. So the action that gives you happiness you would want to do it again and again But again, on doing that action repeatedly, it will not always give you happiness. It will give you distress at one time of the other.Thus the action will give happiness as well as distress. 



The action which you start liking or with which you get attached, one day or the other it will bring in pain. Thus in this world perform the action, but don’t get attached to it. Remember one word – why are we working ? It’s my duty. I am performing my duty. The responsibility

has been given to me by my Lord and I am taking care of it. 


Just imagine, you are parents. You take care of you son very lovingly. Way more than the daughter. The daughter is not taken care of in the same way as the son is. The daughter is not ours. That’s why the poor thing is not asked. The son is taken care of in a special manner. He is the one who will take care of us. Where ever O devotees, you expect or wish to be served or taken care of, why are you performing work? So that when he grows up he will take care of us. There only you will falter! The action will no longer remain a duty, but will become a desire. The painful action. Who knows that the son will turn out to be abusive tomorrow , kick you out of the house or will take care of you at home. Your action will no longer remain a Karmyoga. Why? You are taking care of the son , it’s my responsibility . That’s it. This responsibility will become Karmyoga. 


A lady doctor, helps pregnant women  to deliver their child. Today there, after 10 years somebody’s son was born. The doctor knows about the history. After ten years a child has been born. This. she comes out of the operation theatre and congratulates the family, don’t know about the mother. A son has been born. Just this much was the news that it reaches home. There is festivity , sweets are distributed . The atmosphere becomes so happy. Two three days, due to some reason the mother and the child are kept back in the hospital. After one week, the child dies. What does the doctor say today? Both mothers are inside. Father is outside. Family is outside. Just says this much that I am sorry, after much effort I was unable to save your son. She wraps the child in white cloth. And just says you may kindly take your child now. Empty the room please. Next patient has to come here. The doctor is neither elated st the birth nor saddened at the loss of their son. She is just performing her responsibility. She goes home. If at home also she does like this then she is a karmyogi. But when she goes home, it does not happen the same way. St home it is, my son, my daughter, my home, my husband , everything is mine. At the hospital she is performing her duty, but at home forgets her duty. Thus to perform our responsibilities dear ladies and gentlemen is Karmyoga.

Attachments, actions with desire are the reason for bondage. The day after we will continue this discussion further. Kindly allow to end here. Thanks. 

Karmyoga 5b

Discourses from Most revered Param Pujya Shri Dr. VishwaMitr ji Maharajshri

How to convert action into karmyog ( Action enjoined with Divinity) [ An humble attempt to translate His Divine words in English]

5b

There is a garage in the houses. You park your car there. We will understand with the help of an example. How are actions possible without the desire?

There is a garage. You park your car there. The first state of the car is -neither the motor is working , neither the wheels, nothing. The car is standing there since few days. Neither there is any desire to work, neither any action. It’s a very easy example, everybody can understand it. The car is standing in your garage. You have not even stopped it. If it’s standing, neither there is desire nor any work is being done. Now you start the car. Put the keys in, the engine starts running. But the wheels are still not moving. Car is still in the garage. The desire has come, but no work. You press the accelerator and the car starts moving. It comes out of the garage. The engine is running, Action is also being done. The wheels are also moving. The desire is also there and action too. There is a slope. Get down from here . You all turn off your engine. Now there is no need. The wheels move. The journey is determined. You travel so far without starting the car. Scooter riders too do like this. They turn off the scooter. The slope is there, the scooter keeps moving, till far, without being turned on.

Saints here say that here there is no desire, only action is taking place. This state provides peace. There is no desire but work is being carried out. Such a state is a perfect example of Karmyoga. What is Karmyoga? When without any desire the work is being done. whatever action is done it happens by itself, I do not want any pleasure out of it. Only one desire there is. Now I do not want pleasure out of it. Comfort I understand. How so much comfort I give others, that Lord of Supreme Beings will make me eligible for the Supreme Bliss. That I don’t need to ask. What do I have to do? Provide comfort to others.

Thus, saints say that O seekers, Devotees, Kindly always remember, one must not go after the the pleasures of life, Kindly do not run after them. Share the comforts. If you share it, then the Supreme bliss will come after you by itself. The bliss of the Lord, the bliss of devotion, the bliss of Supreme peace, all will follow you. Why? You have become the right hand of the Lord and working. You are providing happiness to others, peace to others. The Lord then fills you with peace, bliss and with His own love. There is a huge difference O seekers between a karmyogi, one who is working selflessly, without any desire he is working and going around in the world and the beggar, who has desires and then working. He is called one with Self interest. The difference between the one who works with self interest and the one who works selflessly is the same between the earth and the sky.

Let’s go to a king’s home. A kind has many maids at his service, but he had two personal ones. One who took salary and the other who without salary, served the Master. One is called a maid and the other the Queen. Where lies the difference ? One is working with a desire and the other is working as a wife. The latter has no self interest. The one with desire, the maid, the worker, has the right only uptill the salary. The other who is the Queen, has the right on everything. So, how much is the difference between selfless service and the service with self interest. So much difference is there, working without the desire and working with desire. One is termed as a maid and if we keep going further down then is called a beggar. Whereas the other, My Lord, Queen etc . So much difference is there.

In the eyes of the Lord, where there is desire, there you’ll have likes and dislikes. You want comforts, but always there are not comforts in life. The fulfillment of desire is not in your hands. As it is not in your hands so every act does not give your pleasure. If are free to desire a work but whether that work will give you happiness or sadness, you do not have any say on it !

Karmyoga 5a

Discourses from Most revered Param Pujya Shri Dr. VishwaMitr ji Maharajshri

How to convert action into karmyog ( Action enjoined with Divinity) [ An humble attempt to translate His Divine words in English]

5a

Today is Raksha-Bandhan. It’s full moon too. On this auspicious occasion wishing all congratulations . Best wishes . Yesterday in the newspapers it was mentioned that the auspicious time to tie the holy thread is between 7:45-9:00. So after the satsang, those who get the Rakhi tied and those who get to tie the Rakhi, may kindly go and tie. So much trouble you took to come here today. This discomfort is not through a person, it’s through the Lord, the Nature. You all so joyfully accepted this discomfort and have come here , so I hope that today’s distress the Lord will accept as austerity. If He won’t agree then I pray to the Lord with folded hands that the distress that you experienced while coming and will experience while going then O Lord ! it may not turn out to be a distress but kindly accept it as an austerity. Heartfelt thanks to you all that you came.

The discussion that is going on is how to convert labor into worship. Discussion is going on how to make an action into Karmyoga? Today at the completion of the 6th chapter, The Supreme Teacher of Gita, Lord Shri Krishna, has sung the glory of Yoga. In the first and the second chapter Arjuna wanted to become a yogi. But which yogi ? The one that begs. I will not fight. I will not perform my duties. I will beg and survive. In chapter one this is the wish. Lord decides there and then, Paarth, I will make you a yogi, but the one that performs actions. Today also, at the end of this chapter, he is saying the same.

Become such a yogi, who works selflessly. This kind of yogi is called a karmyogi. His status is very high. The karmyogi who has devotion, his status is still higher. Swamiji Maharaj calls a devoted Karmyoga as devotional Karmyoga ( bhaktimay karmyoga)

What are the practices of Swamiji Maharaj? Devotional Karmyoga. We all too want that we should become devotional karmyogis. So, the subject of the discussion is, this only, O seekers! This discussion is going on since last few days.

Karmyoga is also called selfless action. Whatever you have heard earlier, there is no need to repeat it. Let us move on. Karmyoga is also called selfless action. That is, without any desire when work is performed.

What is desire? You have been told earlier too that the names can be different. They can be many. A worldly person has only one desire that he wants the comforts of the world. Whether it is in the form of success, winning, promotion, name or fame, in the form of an award, or to become something.

The desire is one only. From all these, what do you want? Comforts of the world. To want the worldly pleasures is desire. Till the time this desire is there, Saints and Divine Souls say that the real desire of absolute bliss , the real desire cannot be born in you. When this desire is not born, till then you cannot attain absolute peace. You will get comforts of life. Small house, you’ll get a big one. Pleasures you will get. Earlier you had little work, now you have expanded it. Now you have become a big industrialist. So many factories you have now. Showrooms are there. Hotels you have. You will get comforts Son with this. Ur not peace. This scriptures say very confidently. Do remember that these things can give you comforts but not the Absolute bliss, not the Supreme peace.

What is the Supreme peace related with? To beget the Lord. When you have the desire to beget the Lord, the intense desire, it is a desire too. But this desire gives salvation. There are so many desires , but this one desire gas the capability to give salvation.

All those desires bind you with handcuffs, bind your feet , these desires cause bondage. Till the time that these bondage causing desires are not done away with, till them Supreme peace, you cannot attain , scriptures make it very clear. The Supreme Teacher of Gita ji makes it very clear .

Continued….